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Full text of "Geetavali Ka Bhasha Shastriya Adhyan"

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गीतश्वली का लाघा शास्त्रीय अध्ययन 
एवं 
बेज्ञानिक पद पाठ 


डॉ० सरोज शर्मा 


उषा पडिलाशिग हाउस 
जोधपुर-जयपुर 


8 डॉ० सरोज शर्मा 


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संचालिका 8६ उषा थानवी 
उषा पब्लिशिंग हाउस 


ततीम स्ट्रीट, वीर मोहल्ला 
जोधपुर ( 34200 ) 


शाखा : समाधो बिहारी जी का वाग 
स्टेशनरोड, जयपुर 

संस्कररण : जून, 980 

सुद्रक : 


राजस्थान प्रिंटिंग वक्‍से, जयपुर 





गीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 


दो शब्द 


मैंने श्रीमती सरोज शर्मा के “तुलप्तीकृत गीतावली का माषाशास्त्रीय अध्ययव 
एवं वैज्ञानिक पद पा5” शीर्षक पुस्तक की पांडुलिपि देखी । इस पुस्तक की मुख्य उप- 
लब्धियां हैं कि गीतावली के पाठ संपादन की जो पद्धति अ्पनाई गई है वह शुद्ध है 
और इस प्रकार के पाठालोचन के अनन्तर निर्णीति पाठ के आधार पर गीतावली को 
भाषा का संरचनात्मक विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। 


यह अध्ययन एक सघन अध्ययन है और इस दृष्टि से एक श्लाघ्य प्रयत्न 
है । गीतावली की भाषा दूसरी साहित्यिक मापा और बोलियों से प्रभावित है इस 
पर भी संक्षिप्त प्रकाश डाला गया है। <.- 


पु ०. रि ८2 लक 
मुझे विश्वास है कि लेखिका, के अध्ययन का क्षेत्र इससे भी अधिक सघन 
/ हे 
औझौर विस्तृत होगा । 2 


॒ 70 ५ 


89. 0९ 


क० मु० हिन्दी तथा भाषा विज्ञान विद्यापी् _ -:::--... विद्यानिवास मिश्र 
आगरा विश्वविद्यालय निदेशक ' 
आगरा 


(१ 


स्वसनप्नणा 





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अवत्तरण विधा 


.] ठुरूसी की रचनाओं में गीतावली का वेशिष्द्य : 


गोस्व्रामी तुलसीदास राम साहित्य के प्रधान कवि है। इन्होने श्नेक रचनाएं 
को है परत्तु कहीं भो उनके नाम ग्रथवा संझुया नहीं लिखी है । इन रचनाओ्रों के 
सम्बन्ध में एक कवित्त मिलता हैं जिसके शआ्राधार पर इनकी बारह प्रामाणिक 
रचनाएं मानी जातो है जो इस प्रकार हैं - () रामचरित मानस, (2) जातकी 
मंगल, (3) पाव॑ती मंगल, (4) गीतावली (राम गीतावली, पदावली रामाय्ण), 
(5) छृष्ण गीतावली, (6) विनय पत्रिका, (7) दोहावली, (8) वरवे रमायण, 
(9) कवितावली, (0) वैराग्य सदीपनी, (१) रामाज्ञा प्रश्त और (2) राम- 
लगा नहूू । इसके अतिरिक्त एक अर्ध प्रामाणिक रचना सतसई तथा उन्तालीध् 
अप्र.माणिक रचनाएं भी कही जाती है । 


गीतावली प्रामाणिक रचना है। यह गीत प्रवान काव्य है, इसमे काण्ड-करम 
से राम के चरित का वर्णन पदों में किया गया है । बालकाण्ड में राम की बाल्या- 
वस्या के बहुत कोमल चित्र है। जनकपुर प्रसंग भी विस्तार से वश्ित है; अबोध्या 
में बन-गमन प्रसंग, व्ंत और फाग का वर्णात है | अरु्यक्नाण्ड में जटाबु-वध, 
शवरी प्रसग वशित है | किष्कित्धा काण्ड केवल दो पदों में रचित है । सुन्दर काप्ड 
रस दी दृष्टि से श्रे ८्ठ हैं। इसमें वोर, वियोग, ख्यूगार और रौद्र-रस के साथ साथ जाच्त 
बी भी उपस्थिति है। लक्राकाण्ड में कबण रस का चित्रण तथा उत्तर काण्ड में राम 
का सौन्दर्य-वर्णोन, हिंडोल। प्रौर फाग का वर्णन है । 


तुलसी की अत्य प्रामाणिक रचताश्रों में गीतावली का महात््‌ बेशिप्व्य है 
क्योकि अन्य रचनाओं शी तुलता में गीतावली में कवि का मधुर भाव ही दिखाई 
देता है। इसमें रामचरित के भाबुक स्थलों का हो वर्शव है-इसी कारण राम के 
तायप-वेप, भरत-मिलाप, जटायु-उद्धार, सीता की वियोग दशा, विध्वीपएण का राम 
की घरण झाना आदि करुण-भावों का कवि ते मर्म स्पर्शी चित्रण किया है लेकिन 
परशु राम-क्राघ, लका दहच आदि पहप स्थलों को कवि ने छू मर दिया है। यहां 
तक हि यद्ध और रावण वध जैसे परुप प्रसंगों की तो कब्र ने चर्चा भी नहीं को 
है | इसका संबंध परम्परागत संस्कृत, प्राकृत की वर्णंव पद्धति से भी अधिक स्फुट 
। रघवंश आदि संस्कृत की वर्णात पद्धति का भी इसमें अनुगमन है और पाकृत 
की सेतुबन्ध आदि का भी । 


इसके सभी पद गेय है-सम्पुर्ण ग्रत्थ में कवि का कोमल एवं मधुर भाव ही 
इप्टिगोचर होता है ! प्रवन्ध काव्यों के स्रोत ग्रन्थों की छूटी हुई कथाएं या प्रसंग 
भी इसमें आरा गए हे जिन्हें तुलसी उबर काव्पों में न ला सके थे । इसके अतिरिक्त 
यह अन्य एक लम्बी अवधि को घेरे हुए है जो उसके रचना काल से स्पष्ट है। 
यद्यपि गीतावली की रचना तिथि विश्वस्त रूप से निर्घारित नहीं को जा सकती 
(फर भी उसके संवध मे कतिपय साक्ष्य मिलते है । बावा वेशीमाधवदास ने 
४ मूल गोसाई चरित”? में गीतावली (जिसका नाम उन्होंने राम गीतावली रखा 
है) को तुलसीद।स की रचनाग्रो में प्रथम स्थान दिया है पश्रौर उसका रचना-काल 
सं. 620 माना है। 


मूल गोसाई चरित के अधघार पर वाबू श्याम सुन्दर दास ने गीतावली को 
रचना का समय स. 6!6 से स. 628 के बीच बताया है। ग्रौर उसका संग्रह 
काल स 628£ माना हे । 

रामनरेश त्रिपाटो गीतावली का रचना काल स. 625-28 के बीच बताते 
हैं और 'रामचरित मानस' से पूर्व की रचना मानते है । मानस” और “गीतावली' 
की क्था-व्यवस्था पे अन्तर हे श्रत उनकी मान्यता हे कि पहले तुलसी ने राम कथा 
को राग-र।गनियों में लिखकर गाया होग। उसके उपरान्त व्यवस्थित रूप में “राम 
चरित मार्नेस' की रचना की होगी । गीतावली में तुलसी कवि अधिक हैं और मानस 
में भक्त | इस प्रकार पं. रामनरेश त्रिपाठी गीतावली का स्थान मानस के पूर्व का 
मानते है +? डॉ. माताप्रसाद गुप्त का मत इससे भिन्‍त है । वे गीतावली का 
रचनाकाल सं. !646 शोर स. 4660 के बीच का मानते है और पदावली 
रामायण के पाठ को स. 658 का श्रोर उसका लिपिकान स. 666 का 
मानते है ।£ 

डॉ. रामकुमार वर्मा ने गीतावली का रचना काल सं. 643 के पधास-पास 
का माना है। इसका स्थान वे मानस के बाद मानते है । इनके भ्रनुसार ये उस 
ससय की रचना है जब कवि सस्क्ृत ग्रस्थो से अधिक प्रभावित हुआ होगा क्योकि 
गीतावली की कथा उत्तरकाण्ड में वाल्मीकि रामायण से साम्य रखती है 

डॉ उदयभानुतिह ने गीतावनी के झ्न्तिम संपादन का समय सं. 670 के 
लगमग माना है और इसके प्रारंभ के समय मे उनका मानना है कि गीतावली 


||“: +5 555 त5्््त++ततन्‍न्‍ तन न्‍.क्‍..........००ब........................... 


]. मूल गोसाई चरित (33/3) 
2. गोस्वामी तुलसीदास, पृष्ठ 66-67. 

3. तुलसीदास और उनका काव्य, पृष्ठ 324, 

4. तुलसीदास, पृष्ठ 244-48, 

5. हिन्दी साहित्य का आालोचनात्मक इतिहास, पृष्ठ 289, 


9 2] 


“मानस” रचना काल में भी लिखी जाती रही होगी । उस बीच भी कवि राम 
फथा विषयक भावों को पदावली-वद्ध करके अभिव्यक्ति देता रहा होगा । मानस के 
पश्चात्‌ भी यह क्रम चलता रहा है और अच्त में शमकथा संबंधी गीतों को 
'गीतावली' नाम से कवि ने संग्रहीत किया होगा । इस प्रकार गीतावली का रचना 
फाल सं, 630 से सं. 670 के बीच रहा होगा ।7 

वास्तव में गौतावली के गीतों की रचना वहुत विस्तृत समय में हुई होगी 
धौर इसका नामकरण बहुत बाद का रहा होगा-श्रतः उसका रचनास्थान मानस 
के बाद का है और ये तुलसी की प्रथम रचना नहों है जो भाषा कटी रुपावली के 
वैविध्य से स्पष्ट-पुष्ठ है । 

इस प्रकार गीतावली तुलसी की अन्य रचनाओं कौ एक लम्बी परम्परा को 
जोड़ती है। यह सटीक ब्रजभाषा का ग्रन्थ है श्रत: इसके अध्ययन से उनकी सभी 
ब्रृजभाषा की कृतियों का अध्ययन हो जाता है । 


4.2 प्रस्तुत विषय की सौलिकता एवं उपादेयता : 
तुलसी साहित्य का विविध दृष्टियों से अध्ययन हुआ है परन्तु तुलसी की 
ब्रजभाषा को लेकर भापाशास्त्रीय अध्ययन कम हम्ना है और तुलसी की केवल एक 
कृति को लेकर भाषा शास्त्रीय अध्ययन तो अधी तक देखने में ही नहीं आया । 
ग्रभी तक तुलसी से संबंधित जितना अध्ययन हो चुका है उसे दो वर्षो में 
रखा जा सकता है | 
() तुलसी विषयक साहित्यिक अध्ययन । 
(2) तुलसी विषयक भाषाशास्त्रीय अध्ययन | 
तुलसी विषय साहित्यिक अध्ययन के अन्तगेत बहुत से परिचय प्रन्थ, 
समालोचनात्मक, क्ृतियां, टीकाएं एवं कोष ग्रन्थ लिखे गए हैं । जिनमें से कुछ इस 
प्रकार हैं- 
परिचय प्रन्थ- 
. बाबा वेणीमाधवदाप का मूल गोसाई चरित 
2, आचार्य भिखारीदास का काव्य-निर्सय । 
समालोचनात्मक साहित्य के अन्तर्गत मुख्यतः निम्नलिखित ग्रन्य गआ्रातै हैं- 


. नोद्स आन तुलसीदास डॉ. जाज ग्रियर्सत 
2. रामाय्गी व्याकरण (नोद्स आन दि ग्रामर 
आफ रामायन आफ तुलसीदास ) एडविन ग्रीव्स 


3. मिश्रवन्धु विनोद सिश्चवन्धु 





है. 2. मल विवश  जक] * न मल 5.3. 22. - पल कह - हक 20 


3 


4. 


5 
6 
]7 
8 
9 


20. 


2] 


नवरत्य 
मानस-प्रवोध 


« रामचरित मानस की भूमिका 


तुनसीदास 
हिन्दी साहित्य का इतिहाम 


. जावसी-म्रन्यथावनी (भूमिका) 
80. 
]. 
82. 


तुलसी-पग्रन्यावली (भूमित्ा) 

तुलसीदास और उनकी कविता 

रामचरित मानस (भूमिका) 

. इण्डियन ऐंटीक्वेरी और हलाहाबाद यूनीवर्सिटी- 
स्टडीज में प्रकाशित कतिपय जिवन्‍न्ध 
मानस दर्पण 

« तुलसीदास 

« रामचरित मानस का पाठ 

« विश्व साहित्य में रामचरित मानस 

- विशाल भारत में प्रकाशित कुछ निवन्ध 

- तुलसी के चार दल 

मानस व्याकरण 

« संस्कृत साहित्य श्रौर महाक्षति तुलसीदास 


मिश्रवन्धु 

विश्वेग्बर दत्त शर्मा 
रामदास गौड़ 

आ्राचार्य रामचंद्र शुक्ल 


॥7 न्‍) १8 
45 8 जग 
संपादक रामनरेश त्रिपाठी 


+ ग 
8 गो 7 


डॉ. बाबू राम सक्सेना 
चंद्रमौलि' मुकुल 

डॉ. माता प्रसाद गुप्त 
चर | ही 
राजवहादुर लमगोड़ा 
अम्बिका प्रसाद वाजपेयी 
सदयुरु शरण अवस्थी 
विजयानंद चिपराठी 
डॉ छोटेलाल शर्मा 


स्फुट टीकाएं एवं कोष ग्रन्थ-इसके श्रन्तर्गत निम्नलिखित ग्रन्थ आते हैं -- 


4, 


2, 
3 
4 
5 
6 


मानस-पीयुष 


- तुलसी शब्दाथे प्रकाश 

« मानसं-कोप 

- विनय-कोष 

- मानस-कोप 

« मानस शब्दानुक्रमणिका (इडेक्स बर्बोरन आफ- 


दि रामायण प्राफ तुलसीदास ) 


ग्ंजनीनंदत शरण 
शीतलासहाय 

जय गोपाल बोस 

श्रमीर वह 

महावीर प्रसाद मालवीय 
रघुनाथ दाध 


है] 


डॉ. सूर्यकान्त शास्त्री 


तुलपी विपयक भाषा शास्त्रीय ग्रध्ययन के अन्तर्गत बहुत कम अध्ययन 
देखने में आते हैं। कुछ महत्वपूर्ण अ्रध्ययव इस प्रकार हैं। डॉ० 'दिवकीनन्दन 
श्रीव स्तब्र' ने अत्रतों पुस्तक “तुलतीदास की भाषा” में ब्रज श्रौर अवबी दोनों 
भाषाश्रों क' विस्तृत विवेवत विया है जो परम्परागत ढंग का है उन्होंने इस पुस्तक 


0), 


् 


में मापा वैज्ञानिक विवेचन और साहित्यिक विवेचन दोनों हो पक्षों पर प्रकाश डाला 


( 9 ) 


है लेकिन उसमें साहित्यिक पक्ष अधिक प्रभावशाली रहा है । इस कारण भाषा- 
वज्ञानिक विवेचन सम्यक्‌ रूपेणा नहीं हो सका है ' अत्तः यह अध्ययन शैली विज्ञान 
घिक् सहायक है अपेक्षाकृत भाषा वैज्ञानिक पाठ के । 


डॉ० जनादेन मिह ने अपनी पस्तक “तुलसी की भाषा” में तुलसी की अवधी 
कृतियों को झ्राधार बनाकर उनका वर्णानात्मक इष्टि से विवेचन किया हैं। तुलसी 
की कृतियों को लेकर किया गय! यह प्रथम भाषा-तात्विक अध्ययन है । अतः इसकी 
अपनी मौलिकता है-तुलपी को किसी एक कृति को प्राघार बनाकर भाषा तात्विक 
अध्ययन करने वाले को दिशा-निर्देश अ्रवश्य करेगा लेकिन चू'कि इस पुस्तक में केवल 
अवधी की रचनाएं आधार रूप में ली गई हैं इस कारण प्रस्तुत अध्ययन में उक्त 
पुस्तक बहुत उपयोगी सिद्ध नहीं हो सकी है परस्तु फिर भी अनेक दृष्टियों से यह 
ग्रन्थ सहायक है। 
डा० वबादूराम सकक्‍सेता ने “इवोल्यूशन श्राफ ग्रववी” में अ्रवधी बोली के 
विक्रास क्रम का अध्ययन प्रस्तुत किया है साथ ही 'मानस' की भाषा के नेक रूपों 
का गठचात्मक विश्नेषण करके उनके ऐतिहासिक विक्रास क्रम को भी देखा है-इस 
ग्रन्थ में सक्सेना जो की इ्टि अ्रववी पर केन्द्रित रही है भ्रतः उनके अध्ययन का दृष्टि 
कोण ग्रलग है, भाषा वैज्ञानिक विकास एवं व्याकरणिक्त विश्लेपण का प्रथम प्रयास 
होने के कारण ही महत्वपूण है किन्तु संक्रालिक पद्धति से उप्तका कोई संबंध 
हीं है। 
डॉ० घीरेच् वर्मा दवारा रचित ग्रन्थ “ब्रजभापा व्याचरण” का तुलसी की 
भाषा से प्रत्यक्षतः कोई सम्बन्ध नहीं हैं क्योंकि इसमें वर्माजी की इण्टि केवल ब्रज 
भापा के व्याकरण पर केन्द्रित रही है । इसमें गीतावली के यत्र-तत्र उद्धरण प्वश्य 
भिलते हैं जिनमें ब्रजभाषा के व्याकररिक रूपों का स्पष्टीकरण होता है लेकिन इसमें 
न तो समूचा अध्ययन ही है और न संकालिक व्याकरण की ह्टि 
“तुलमीकृत गीतावली विमर्श” डॉ० रमेशचन्द्र मिश्र दृवारा रचित ग्रन्थ में 
गीतावली के साहित्यिक पक्ष भर का अध्ययन है । इसके एक शअ्रध्याय में गीनावली की 
भाषा पर विचार विभर्श हैं जो सतही झागत शब्दावली तक ही रह गया है । 
भाषा शास्त्रीय ग्रदयवत के अतिरिक्त पुस्तक में गीवावची के “बैत्र तिझ पद 
पाठ” पर भी विचार प्रस्तुत है । हिन्दी में पद-पाठ परम्परा को प्रारम्भ हुए ग्रमी 
अधिक समय नहीं हुआ ' उसमें भो अन्य ग्रन्थों पर तो पद-पाठ से संबंधित कुछ 
कार्य अभी तक प्रकाश में आ भी छुक्के हैं परन्तु गीतावली पर ऐसा कार्य अभी तक 
| हुआ है | डॉ० माता प्रसाद गुप्त ने अपनी पुस्तक “तुलसोदास” में “क्वत्थिं का 
पाठ” नामक अध्याय में तुलसी की रचनाग्रों के पाठों पर विचार किया है परच्तु 
क्रेवन एफ पह्यय में तुबती को समपस्त्र कृतियों के पाठों का वर्ण चुक््ध झूत से 
कमी नहीं हो सकृता । हां, दिशा-निर्देश इस कार्य से अवश्य मिल जाता है। 


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3 2.) 


डॉ० माताप्रसाद गुप्त ने इस पुस्तक में तुलसीकृत गीतावली की तीन महत्व- 
पूर्ण हस्तलिखित प्रतिय्रों कर उल्लेख किया है- 
],  संत्रेत 77 की प्रतापगढ़ (अवध) के राजकीय प्स्तकालय की खंडित 

प्रति । 
2, रामनगर *वनास्स स्टेट) के चीधरी छुन्‍्तीथिह की प्रति जिसमें केवल सुन्दर 

काण्ड एवं उत्तर काण्ड के पद हैं और वे भी पूर्ण नहीं है * 
3, संवत 689 की प्रति जो स्वयं लेखक 'डॉ० भाताप्रसाद गुप्त) को प्राप्त 

हुई थी । 

उक्त ग्रन्य में केवल इनके श्र!घार पर रचना काछ के निर्धारण का प्रयत्त 
किया गया है न कि पद पाठ का | 

गीतावली के अनेक मुद्रिद एवं प्रक'शित संस्करण मिलते है यथा- (।) 
सरस्वती भण्डार, पटना दब रा एकाजशित पाण्डेय रामावतार शर्मा की प्रत्ति, 
(2) मूल मात्र (तुलसी ग्रन्थावली में संग्रहीत) सागरी प्रच'रिणी सभा दुवारा 
प्रकाशित (3 ) राम तारायग वृुकसेलर द्वारा प्रकाशित श्री रामदेवनी की टीका, 
(4 ) नवल किशोर प्रेस लखनऊ की वेद्यनाथ की टीकावाली प्रति, (2) 
खंगविल'स प्रेस की महात्मा हरिहर प्रसमादकृत टीकावली प्रति, (6) गीता प्रेस 
गोरखपुर को प्रति एवं (7) मिद्धान्त * लक (पं० श्रीक'स्त शरण दूव।रा लिखित) 

परन्तु इब समी प्रत्ियों में नतो पाठ की समानता है न कवि के अन्त 
इचेवन में व्याप्त काव्य रूपी की पनरावृत्ति का न्‍्यान है, ने अर्थ के सौरम्य की प्रधा- 
नत' है | यहाँ तक की मन्नी प्रतियों में पदों की संख्या तक अ्रसमान है। ये सब 
प्रतियां एक संस्कृत लिप्ठ सुधारवादी इृष्टिक्रोगा में मुद्रित एवं संकलित हैं । 

अतः इस प्रकार के अध्ययन को आवश्यकता वी हुई थी । इसी ग्रावश्यकता 
की पूर्ति हेतु प्रस्तुत काये किया गया है जिसके प्रस्तुतीकरण का ढंग भी नया 
श्रौर गरितोय है । 

मुझ आशा है कि भाषा वैज्ञानिक निष्कर्पों के आधार पर तुलसी संबंधी 
विभिन्‍न मतों (मूल भाप आ्ादि के संबंध) का संतुलत हो सकेगा । प्रस्तुत कार्य के 
माध्यम से तुनसी क्लीन ब्रच्रभाषा का स्वरूप और झधिक स्पप्ट हो सकेगा । पद- 
पाठ के माध्यम से तुल टी जैसे महान्‌ कवि की कृतियों का प्रारंभिक्र रूव भी सामने आ 
सके ग॒ झ्ौर उनकी प्राम,शिक्र भाषा भी हाथ लग सकेगी जिसके विपय में इतना 
ऊहापोह है । 

इसे धरक्ार के अध्ययन में प्राकृत भाषा का निर्माण तो स्वतः हो ही जायेगा; 
साहित्यिक क्षेत्र में कविकी प्रवृत्ति भी स्पप्ट हो जायेगी । इस प्रकार यह नूतन प्रयोग 
एवं इष्टि सिद्ध होगी। सके अनिरिक्त तुलसी की अन्य क्ृतियों के तुलनात्मक 
अ्रध्ययन में भो इपसे मदद मिलेगी । 


( हा ) 


ईंस प्रकार एक नवीन परम्परा का निर्माण हो सकेगा जिस पर आगे चले- 
क्र अनेक अंघकारमय तथ्य सामने श्रा सकेंगे | 

इस अध्ययन में कवि के प्रयोगों का तुलनात्मक सांख्यिकी और भाषा 
वैज्ञानिक संरचना के माध्यम से कवि के मूलपाठ तक पहुँचने की चेष्टा की गई 
है । इस तरह का प्रयत्त अनी तक देखने - सुतने में नहीं आया । यही इस ग्रन्थ 
की उपादेयता और मौलिकता का आधार है । 
.3 अध्ययच-विधि : 
.3.] पाठ-संकलनच-विधि : 

प्रति की प्रामाशिकता की परीक्षा हेतु गीतावली की हस्तलिखित प्रतियों 
को खोज की गई । अनेक निजी एवं सरकारी सस्थाग्रों से पत्र-व्यवहार के श्रनन्तर 
यथेष्ट सामग्री-संकलन हो सकी । सामग्री दो स्थानों पर सिली-- 
(।) साहित्य सम्मेलन प्रयाग, (2) सागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी । 

साहित्य सम्मेलन प्रयाग से केवल दो हस्तलिखित प्रतियाँ प्रप्त हो सकी 
हैं (।) ग्रन्य संड्घा 6/2078 की संतब्रत्‌ 854 की प्रति तथा (2) ग्रन्थ 
सख्या 5/637 की संबत्‌ 908 की प्रति । 

स,गरी प्रचारिणी सभा बवारस मे प्र प्त होने वली प्रतियाँ इस प्रकार हैं- 
ग्रन्थ-क्रमांक 6] [73 की संवत ]856 वि. की प्रति 
ग्रल्थ-क्रमांक. 62/74 की संवत 89] वि. की प्रति 
प्रन्थ-क्रमांक ]48|763 की प्रति में लिपिकाल नहीं लिखा 
ग्रल्थ-क्रमांक 299/382 की प्रति में लिपिकाल सं. 809 बि. 
ग्रल्य-क्रमांक 2592/4527 की प्रति में लिपिकाल नहीं लिखा 
ग्रन्य -क्रमांक 2669/6व0 की प्रति में लिवकाल नहीं लिया 
इसके अतिरिक्त नागरी प्रचारिणी सभा, काशी की खोज-रिपोर्टे सन्‌ 

900-935 तक प्रथम-खण्ड, संवत्‌ 202] वि, में प्राप्त गीतावली की श्रन्य 
हस्तलिखित प्रतियों से भी सहायता लो गई है जिनका विवरण प्रस्तुत पुस्तक के 
प्रथम खण्ड के तृतीय अध्याय - “ प्रतियों का वंश वृक्ष और प्रामारिक पाठ 
में दिया गया है । 

प्राप्त सभी हस्तलिखित प्रतियां कवि हस्तलिखित प्रति की प्रतिलिपियों की 
भी प्रतिलिपियां हैं फलत: ( अ्पन्नी मूल कृति से दुर एवं दृरतर होने के कारण) 
अमेक विकारों से परिपूर्ण होती गई है । इसके अतिरिक्त प्रतिलिपिकार की क्षेत्रीय 
प्रवृत्ति एवं लेखन जैली आदि कारण्णों से झी उनके पाठों में विविधता एवं अच्तर 
मिला है । 

उपरोक्त सभी प्रतियों का सूक्ष्म अध्ययन पाठ मिलान के बाद पुरा किया 
गया है| सभी हस्तलिखित प्रतियों के परस्पर तुलनात्मक श्रध्ययत्त के उपरान्त कुछ 


+ 


हे 


०5 ९.७ 5 (७० >> 


( शा ) 


पाठ-वैविध्य एवं पाठान्तर मिले हैं । प्रतियों में मिलने वाली प्रसमानताओं पर 
स/मान्य रूप से निम्न शीपंकों में विचार हुआ है - 
, स्वर-परिवर्तन एवं स्वर-संधि 
2. एक पदग्नाम अ्रथवा वाक्य के स्थान पर भिन्न पदग्राम श्रथवा वाक्य 
3. लोप 
प्रतियों में मिलने वाली श्रसमानत,श्नों के झनुमानतः निम्द का? ण मिले हैं- 


], लिपि जन्य विकृतियाँ 
2. स्थान विपर्यय 
3. पर्याय 
4. प्रमाद 

लिपिजन्य-विक्ृतियों के श्रन्तर्गत वे विक्ृतियां ली गई हैं जो मूलपाठ में 
प्रतिलिपिकार के दृष्टि भ्रम अ्रथवा लिपिश्रम के काररा श्रयवा अ्रन्य॒ किसी संभव 
कारण से हुई है। सभी प्रतियों में किसी न किसी स्थान पर किसी न किसी प्रकार 
की विक्ृतियां मिलती हैं जिनके कारण पाठ में अंतर मिलता है । 


प्रतियो में एक पाठ का प्रतिस्थानी पाठ भी अनेक स्थानों पर मिला है जो 
प्रतिलिपिकार के भ्रम अ्रथवा क्षेत्रीय आदत के कारण संभव प्रतीत होता है । 


बहुधा प्रतिलिपिकार कठिन पाठ के स्थान पर उसका सरल पाठ रख देते हैं- 
कुछ प्रतियों में स्थान विपयय मिला है। 

भूल के कारण कुछ प्रतियों में पाठों का लोप भी मिला है ऐसे लोप प्रति- 
लिपिकार को असावघानी का परिणाम प्रतीत होते हैं । 

प्रतियों में मिलने वाली उपरोक्त सभी श्रसमानताओं का श्रध्ययन प्रस्तुत 
पुस्तक के प्रथम खण्ड के द्वितीय अध्याय “प्रतियों का तुलनात्मक श्रध्ययन” में 
किया गया है । 

मुलनात्मक अध्ययन के उपरान्त प्रतियों का प्रतिलिपि संबंध निरखा-परखा 
गया है । प्रतियों में मिलने वाले 'पर्याथ', 'लिपिजन्य विक्ृति' आदि कारखों से 
प्रतियों के प्रतिलिपि संबंध को समभने में सहायता मिली है । 


प्रतिलिपि संबंध के आधार पर प्रतियों का वंश वृक्ष तय किया गया है । 
जिस प्रति का पाठ सर्वाधिक प्रामाणिक एवं न्यूनतम चुटित मिला है और जो 
प्राचोनतम प्रति भी है उसे मूल प्रति के नजदीक की मानकर अध्ययन का आ्राधार 
बनाया गया है। लेकिन कहीं-कहीं इस “क' मूल प्रति के अतिरिक्त श्रस्य प्रतियों में 
प्राप्त पाठ को भी सर्वाधिक प्रामाणिक मानकर अध्ययन में स्वीकार किया गया 
जैसे 'घ' प्रति में प्राप्त “पेपन को पेषत” ,72.] तथा “ मीच तें नीच” 5.5.3 


( $£ ) 


की पाठ तथा “च॑ प्रति में प्राप्त "निसि” 6.7.2 का पाठ सर्वाधिक प्रामाणिक्र 
स्वीकार किया गया है । 

इस प्रकार प्रस्तुत अध्ययन में मूल प्रति की समीपस्थ प्रति ढू ढ़ने का प्रयास 
किया गया है जो भापा-विपयक निष्कर्षो के मेल में है । 
]3-2 विश्लेषण-विधि 

प्रस्तुत पुस्तक के अन्तर्गत गीतावली का मापाशास्त्रीय अध्ययन प्रस्तुत किया 
गया है। भाषा शास्त्रीय अध्ययन हेतु गीतावली के व्याकररि[क रूप-सम्वन्धी कुल 
(28865) श्रद्ठाइस हजार झाठ सौ पैंसठ काडे वनाए गए हैं। प्रत्येक् काडं पर 
एक पद, उमप्तका झंंदर्भ, नीचे की और काण्ड-संख्या, पद संख्या एवं पक्ति संख्या 
लिखी गई है । 

व्याकरणिक रूपों का विश्लेषण वरशंनात्मक अथवा अमरीकी पद्धति पर 
किया गया है । प्रत्येक रूप को उसके व्याकरणिक-गठन के झनुसार ही व्यवस्थित 
किया गया है । विश्लेपणा के समय घातु अश को अलग कर, उसम जुड़ने वाले रूपि- 
मों को स्पष्ट किया गया है । इस प्रकार रुप गठन एवं आवश्यकतावुतार कहीं-कहीं 
ग्र्थगठन के आधार पर रुपों का विश्लेषण किया गया है। अध्ययन मे समस्त सपों को 
लिखना अनावश्यक समझकर कुछ रुपों को उदाहरण स्वरुप लिखा गया है तथा शेष 
की आवृतियां गिना दी गई हैं । 

सभी व्याकरणिक रुपों की आवृत्तियां भी प्रस्तुत की गई हैं । इस प्रकार यह 
अध्ययन पूरा हुआ है ! 
.4 अध्ययत्त-विवरण : 

प्रस्तुत अध्ययन दो खण्डों में विभक्त है । प्रथम खण्ड में वैनानिक पद-पाठ का 
तिर्माण किया गया है। इसके प्रथम अध्याय में गोतावली के प 5-लंयादन में प्रयुक्त 
प्रतियों का विवरण प्रस्तुत किया गया है ' ह्विंतीय अध्याय में प्रतियों का तुलनात्मक 
अध्ययन प्रस्तुत हैं | तृतीय ब्रध्याय में प्रतियों का प्रतिलिपि सम्बन्ध उनके वंञ्-वृक्ष के 
प्राघार पर तय किया गया है --इसके चतुर्थ अव्याय में प्रामाशिक पाठ का निर्धारण 
है । प्रामाणिक प्रति तैयार होने के बाद उम्रका भाषा-शास्त्रीय हृष्टि से श्रध्ययन 
किया गया है जो द्वितीय खण्ड में प्रस्तुत है । 

द्वितीय खण्ड पाँच अब्यायों में विभाजित है जिसके भ्रयम अध्याय में ध्वनि 
विचार पर विवार प्रस्तुत है ' इप्के विषयक्रम . में स्व्रनिम प्रस्तुत हैं । विपय- 
क्रम !.2 में लि।पे सम्बन्धी विशेष-विवरण दिया गया है। ॥3 में स्वर-स्वनिम 
वर्एत हैं | स्वर-स्वनिमों के विवरण में .3.4 में स्व॒र-वित्रण तथा .3.2 में 
दीर्घस्व॒र विवेचित है। विपय-क्रम .3.3 में हस्त स्व॒रों पर विचार क्रिया बया 
है । -3.4 में प्रध॑स्व॒रों की चर्चा की गई है। इसके पश्चात्‌ .3.5 में अनुस्वार एवं 
.3.6 में अनुनासिकता पर विचार प्रस्तुत है। .3.7 में स्वर संयोगों का 


( # ) 


प्रध्ययन विस्तार से प्रस्तुत है तत्पश्चात्‌ .3,8 में गीतावली की ग्राक्षरिक संरचना 
को प्रस्तुत किया गया है । 

स्वर स्वतिम के पश्चात्‌ .4 में व्यंजन-स्वनिम वर्णित है । .4. में व्यंजन 
खंडीय स्वनिमों का विस्तार से अध्ययन है। सर्व प्रथम व्यंजन वितरण .4.. में 
प्रस्तुत है इसके अनन्तर संस्ववात्मक बैविध्य के मुझ्य झ्राधारों को विपय क्रम 
.4..2 में प्रस्तुत किया गया है और .4.].3 में ब्यंजत स्वनिम तथा उसके 
सस्वतत वर्णित हैं। .4..4 में व्यंजन-संगोग की चर्चा की गई है। .4.2 में 
खण्डेतर स्व॒निमों पर प्रकाश डाला गया है इसके श्रन्तर्गत विभाजक, सुरसरझियां 
और सुरसरणि परिवर्तक सभी पर संक्षिप्त विचार संलग्न है। 

दूसरे अध्याय में पद-विचार के अस्तर्गत नामिक, विशेषणा, सर्वताम, क्रिया 
झौर क्रिया विशेषण तथा श्रव्यय का विस्तृत विवेचत नवीत एवं वर्णंनात्मक पद्धति 
से किया गया है। 

विपय-क्रम 2,! में नामिकों पर विचार संलग्त है जो नवीनता एवं मौलिकता 
लिए हुए है । 2-. में प्रतिपदिक वर्णित है। नामिकों को दो वर्मो में विभाजित 
किया गया है । विषय क्रम 2...] में एक भाषिक इकाई वाले प्रातिपदिक वर्णित 
हैं। विषय क्रम 2..2 में मुक्त-वैविध्यों को देखा गया है। 2-.3 में स्व॒रीभूत रूप 
तथा 2..4 में अ्रवधारण के लिए प्रयुक्त कुछ संयोगात्मक रूपों का वर्णात है। 
2..5 सें एकाधिक रूप और 2 .6 म लिग-विधान पर विचार सलग्न है | 2..7 
में वचन-विधान को देखा गया है | विपय-क्रम 2 .8 में कारकीय-विधान प्रस्तुत है 
जो कुछ मौलिकता लिए हुए है। गीतावली में प्रयुक्त कारकीय संरचना को दो भागों 
में वाटा गया है--() विभक्ति मूलक संरचना जो विपय-क्रम 2..8.] में वर्शित 
है (2) पिह नक धुलक सरचना जिसका भअ्रध्ययन 2.!.8.2 में किया गया है । 
विपय-क्रम 2..9 में परसर्गीय पदावली का वर्णोन हैं। विपय-क्रम 2..,.2 में 
नामिको के हूसरे वर्ग 'दो रूपिमों के योग से निर्मित प्रातिधदिक' का श्रष्ययन है जो 
सरचना की इष्टि से तीन प्रकार के हैं-- 

(4) बद्घ पदग्राम -- मुक्त पदग्राम 

(2) मुक्त पदग्राम -- बद्ध पदग्राम 

(3) भुक्त पदग्राम + मुक्त पदग्न।म 

सभी का विस्तृत अध्ययन प्रस्तुत है । 

विप .-क्रम 2.2. में विशेषणं। का ग्रध्ययन्न तीन रृष्टियों से किया गया है । 
2.2.] में सरचनात्मक जो अरुपास्तरित तथा रूपान्तरित दो भागों में विभमक्त है। 
उ्पास्तरित पुनः दो भागों में बंटे है : मूल और यौगिक । यौगिक विशेष पदों को 
तीच भाशों में बाँठा गया है--- 

(!) बद्ध पद्ग्राम +- मुक्त पदग्राम 


( हा ) 


(2) मुक्त पदग्राम + वद्ध पदग्राम 
और (3) मुक्त पदग्राम+ मुक्त पदग्राम 

सभी का यथा स्थान विस्तार से वर्णन किया गया है। विषय-त्रम 2-2-2 
में विशेषशों का वर्गीकरण अथेगता किया गया है! इसके ब्रन्तगेत दो प्रकार के 
विश्येषण गाते हैं। 2 2.2.] में सावंवामिक विभेषण और 2.2.2.2 में संख्या 
वाचक विशेषश बशणित है। 

विषय-क्रम 2.2.3 में विशेषणों का तीसरा वर्गीकरण 'प्रकार्यगत' है जिसमें 
विश्येषणों का अध्ययत्त उतके कार्यों के आधार पर किया गया है। इसे पश्चात्‌ 
उनके लघु-दीघे रुप, अवधारण के लिए प्रयुक्त रुप और विशेषरों में तुलता देखी 
गई है । 

विषय-क्रम 2.3 में सर्वभामों का अध्ययन है जो वर्शन'त्मक ढंग का है। 
इसमें पुरुष वाचक, निश्चय वाचक, अनिश्चय वाचक, प्रश्ववाचक, संवंध वाचक, 
तिजवाचक, आदर व चक, नित्य संबंधी और संयुक्त सवेनाम आते हैं सभी सर्वेवामों 
को उनके मूल एवं तियंक्र रूपों के साथ ४स्तुत किया गया है । 

विषय-क्रप 2.4 में क्रिया रुप-रचना प्रस्तुत की गई है । सवंप्रथम 2.4 ! में 
धातुओ,रों के दो वर्ग मूल और यौगिक किए गए हैं । मूल धातुग्रों की ब्याक्षरिक संरचना 
पर प्रकाश डालते हुए योगिक घातुओं को सोपसगिक, नाम ध तु एवं अनुकररा मूलक 
धातु-तीन वर्गों में विभाजित किया गया है। इसके अनन्तर व'च्य (कत्‌ वाच्य शोर 
कर्म वाच्य) पर विचार है। इसके बाद गीयावलो के पे रणार्थक वशशित है । 

विषय क्रम 2.4.2 में गीतावली में प्रयुक्त सहायक क्रियाओं पर विचार 
संलरत है | विपय क्रम 2.4.3 में भीतावली की क्ृदन्‍त रचना वरशित है। 2.4.4 में 
कल रचना का अध्यग्न है। गीतावली की काल-रचना तीन भागों में विभक्त है 
244 ॥ में कृदचत काल, 2.4 4.2 में मूल काल और 2.4.4.3 में संयुक्त काल का 
अडवयत है । विपय क्रम 2.4.5 में संयुक्त क्रिया का अध्ययन है । 

विपय-क्रम 2.5 में क्रिया विजेषण तया अव्य्य वशित है। क्रिया विशेषणों 
का गअ्रध्ययन 2.5. में दो प्रकार ग्र्थ के आधार पर, और संरचना के आधार पर) 
से किया गया है। 2.5.2 में अव्यय वरणित है जो सामान्य सूचक और विस्मय सूचक 
दो प्रकार के हैं । 

अ्रध्याय तीन में गीतावली की वाक्य-संरचना वर्णित है थ्ालोच्य ग्रन्थ में 
प्राप्त वाक्‍्यों को संरचना की इृष्टि से तीन वर्गों में विभाजित किया गया है 
।-वाक्य 2-उप्वाक्य 3-वाकक्‍्याँश । 

विपय-क्रम 3.].] में वाकप्र विचार वणितर है। गीत वी पें प्र पव वाक्य 
दो भ्रक'र के हैं- एक वहुउपवाकगीय वाक्य यौर वहुताबगी। वाकउ-एक उबर कवीय 


( हा ) 


वाक़्यों का अध्ययन उपव'क्यों के साथ हुआ है, वहुउ॒पवाक्यीय वावयों का श्रष्यवन 
वावप्र संरचना के अच्तगंत किया गया है। बहु उपवाक्यीय वाक्य तीन प्रकार से 
वर्णित हैं-- 

]. द्विउपवक्त्रीय वाक्य 

2. त्रि उपवाक्यीय वाक्य 

3. भ्रधिक उपयवाक्यीय वाक्य 

सभी प्रकार के (द्वि, त्रि, अधिक) उपवाक्धीय वाक्य संयुक्त एवं मिश्र दो 
प्रकार से वणित है ' सभी का यथा स्थान विस्तृत वर्णन है । 

विपय-क्रम 3..2 में उपवाक्य संरचना वर्शित है, संरचना की दृष्टि से दो 
प्रकार के उग्वाक्य मिले हैं-(।) पूर्ण उपवाकतर (2) अपूर्णा उपवावप्र--पूर्णा 
उपयाक्यों के अ्रध्ययन के अस्तगंत दो प्रकार के उपवाक्य वर्णित हैं पूर्णा्थक्र क्रिया 
युक्त उपव कक्‍्य, अपुएथिक क्रिया युक्त उपवाक्य | 

पूर्शार्यक क्रिया युक्त उपवाक्य को सकरमेक पुरर्थक एवं अकर्मक पूर्णािक- 
दो प्रकार से वशित हछिया गया है। सकर्मर पुन: कर्त्ता सहित सकमंक एवं कर्ता 
रहित सकमेक दो प्रकार के हैं-- 

अ्रकमेंक पूर्णार्थक्र उपवाक्य भी दो प्रकार से वरशित हैं--प्ता मान्य ग्रक्र्मक, 
गत्यथक ग्रकर्म 

अपूर्णा बैंक क्रिया युक्त उपवाक्ध दो प्रकार से वशित हैं -- 

(।) सहर्मंक अपूर्णार्यक जो कत्ता सहित सकमंक एवं कर्त्ता रहित सकर्मक 
दो प्रकार के हैं- 

(2) अऊसंक् ग्रपूर्णाथंक जो कर्त्ता सहित अकर्मक एवं कर्ता रहित झअकर्मक 
दो प्रकार से बशित है- 

अ्रपूर्ण उपबगक्र दो प्रकार से वशित हैं- 

() अंशत: अपूर्णा उपवाक्य (2) पूर्णतः अपूर्णा उपवाक्‍्य 

विपय-क्रम 3..3 में वाक्यांश संरचना वणित है, गीताउली में प्राप्त 
वाक्याशों को 5 प्रक र से वणित किया गया है- 

(।) शीर्ष विशेषक्त वाक्याँश 

(2) ग्रक्ष सम्बन्ध वाक्याँश 

(3) सम्ावयवी वाक्यांश 

(4) शेप विश्नेपक वाक्यांश 

(5) संग्रुफित क्रिया वाक्यांश 

अव्यय 4 पें गी। बची पें प्रास्त ब्ोवीगत्त वेविध्यों पर प्रकाश डाला गया 
है श्रीर मूलाधार बोली का निर्णय किया गया है । 


( हा ) 


प्रस्तुत अध्ययन के पंचम अध्याय में उपसंहार वर्णित है जिप्नमें समूचे 
अध्ययन का सार है। + 

अंत में, जिन गुम्जनों विद्वानों संस्थाप्रों आदि से सहायता प्राप्त हुई है 
उनके प्रति मैं कृतज्ञता ज्ञापित करती हूं: 

स्व प्रथम मैं आदरणीय डॉ० छोटेलाल शर्मा, प्रोफेसर एवं अध्यक्ष भाषा 
विज्ञान विभाग वनस्थली विद्यापीठ के पथ-प्रदर्शन एवं ज्ञान की अत्यंत आभारी 
जिन्होंने इस कार्य में श्पना पूर्णो सहयोग एवं निर्देशन दिया । 


प्रोफेसर विद्यानिवास मिश्र, निदेशक क० मु० हिन्दी तथा भाषा विज्ञाब 
विद्यापीठ, आगरा विश्व विद्यालय, आ्रागरा के प्रति मैं अत्यधिक कृतज्ञ हूं जिन्होंने 
अपने बहुमूल्य सुझ दों से लाभान्वित किया । प्रकाशव के समय दो शब्द का 
आशविचन लिखकर मुझे अत्यधिक प्रेरणा दी है । 

डॉ० बी० पी० सिह वरिष्ठ आचाये एवं अध्यक्ष हिन्दी विभाग, काशी 
हिन्दू विश्वविद्यालय, काशी, के प्रति मैं विनम्र आभार प्रकट करती हूं जिन्होंने 
इस कार्य की सराहना कर मेरे उत्साह को बढ़ावा दिया है। 
० रामस्वरूप शर्मा के प्रति कृतज्ञ हूं जिन्होंने इस प्रकार के अध्ययन 


मैंडा 

की प्रेरणा दी 
कुमारी सुशीला व्यास, आचार्या ज्ञान विज्ञान महाविद्यालय, वनस्थली 
वद्याप्रीठ के प्रति मैं आभारी हूं जिन्होंने इस कार्य में मुझे हर संभव सहायता 


2 उ 


मैं डॉ० विमल, डॉ० पस्ना एवं डॉ० रवीन्द्र शर्मा के प्रति अत्यधिक कृतज्ञ 
हैं जिन्‍्होंते पुस्तक के प्रकाशन में आद्योपान्त अनेक प्रकार से सक्रिय सहयोग दिया 
है । साथ ही शोभा प'ण्डेय के सहयोग के लिए मैं घन्यवाद देती हूं । 

पृज्य अ्रम्मा एवं भाई साइव के आर्शीवाद से ही मैं पुस्तक को पुरा कर सक्ती 
हूं इसके लिए मैं उनकी अत्यधिक आभारी हूं । 

आदरणीय बड़े भाइयों-श्री हरीमोहन. श्री ललितमोहन, श्री प्रेममोहन एवं 
श्री चन्द्रमोहन का स्तेह एवं आ्रार्शीवाद बचपन से ही मेरा मादक रहा है, उन्हीं की 
प्रेरणा से मैं श्राज इस काये को पुर्ण कर सकी हूं इसके लिए मैं उनकी शअ्रत्यधिक 
ऋणी हूं । 

वास्तव में, पुस्तक के प्रकाशन का सर्वाधिक श्रय मेरे श्रद्ध य पति श्री वीरेन्द्र 
शर्मा को है जिनकी अत्यधिक प्रेरणा एवं स्नेहपूर्ण महयोग के परिणाम स्वरूप ही 
यह कार्य पूर्णता प। सका हैं। उतके इस अकथनीय सहयोग के लिए मैं हृदय से उनकी 
अत्यंत आभारी हूं । 


( हआए ) 


दोमों बच्चों-विभाष और अभिषेक को मैं हृदय से धन्यवाद देती हूँ जिन्होंने 
यथा संभव अपना कार्य स्वयं करके एवं वारम्वार पुस्तक की पूर्णता की जिज्ञासा 
जाग्रतकर कभी मझे हतोत्साहित नहीं होने दिया । 


साहित्य सम्मेलन प्रयाग, काशी नागरी प्रचारिणी सभा वाशशणासी, केन्द्रीय 
पुस्तक मंदिर वनस्बली विद्यापीठ एवं श्रन्य पुस्तकालयों से मुझे जो सहायता मिली 
है उसके लिए मै वहां के अव्यक्षों एवं कार्यकर्त्ताश्नों की कृतज्ञ हुं। इसके अतिरिक्त 
बिहार राष्ट्रभापा परिपद्‌, पटना; गीता प्रेस गोरखपुर, उत्तर प्रदेश; राष्ट्रभापा 
प्रचार समिति, पुणे; साहित्य श्रकादमी, दिल्‍ली; मानस संघ (रामवन); राजस्थानी 
शोध संस्थान चौपासनी, जोधपुर, राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिप्ठान (जयपुर, जोधपुर, 
उदयपुर, बीकानेर, कीटा, अलवर, चित्तौड़गढ़) से हस्तलिखित ग्रथ संबंधी पूर्ण 
जानकारी मिली है उत सभी का आभार मैं शब्दों में प्रकट नहीं कर सकती । 


राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिपद्‌, दिल्‍ली के प्रति मैं हृदय 
से आमारी हूं जिसने वित्तीय सहायता देकर प्रकाशन कार्य को यथा शीघ्र सुलभ 
बनाया | 

उपा पब्लिशिंग हाउस, जोधपुर की संचालिका श्रीमति उपा थानवी एवं 
श्री पुरुषोत्तम थादवी धन्यवाद के पात्र हैं जिन्होंने इसे शीघ्र प्रकाशित किया। 
राजस्थान प्रिन्टिग वक्‍स, जयपुर [के सभी अधिकारियों एवं कार्यकर्त्ताश्नों को 
मैं धन्यवाद देती हूं जिनकी तत्परता से मुद्रण कार्य शीघ्र हो सका । 


30, अर विन्द निवास 

वनस्थली विद्यापीठ डॉ० सरोज शर्मा 
चंद्रवार श्री गंगा दशहरा, 2037 वि० 

दिनांक 23,6.80 


वे ०, ७ + (७० ० "+ 


आग. 
उपया. 


क. मु. 


क्रिवि./ 
क्रि.वि 


खो. रि. 


ग्र. सं. 
गी, 
ग्‌ 


गो. गो. 


त्ति. रु. 


विशे, 


संकेत 
वालकाण्ड 
अयोध्याकाण्ड 
अरण्यकाण्ड 
किष्किन्घाकाण्ड 
सुन्दरकाण्ड 
लंकाकाण्ड 
उत्तरकाण्ड 
श्रावृत्ति 
उपवाक्य 
कन्हैयालाल माणिकलाल 
' मुशी 
क्रिया विशेषण 


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गन्तव्य 
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संवत्‌ 
एकवचन 
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स्त्रीलिंग 
प्रधान 
प्रातिपदिक 
भूल रूप 
तियंक रुप 
स्वर 
च्यंजन 
विशेषण 


सूची 


वा. वाचक 

संप संज्ञा पद बंध 
अपुर्ण क्रि. अपूर्ो क्रिया दयोतक 
सं. सकर्भक 

प्र. प्र रणार्थक 
भ्रक्‍्तू. भ्रक्तूबर 

डू, प्र... इण्डियन प्रेस 

ई. ईसवी सन्‌ 

कं. कम्पनी 

दिव. सं. दिवतीय संस्करण 
त्त. प्र. भवदीत प्रकाशन 


ना. तामिक 
ता. प्र. स. नागरी प्रवारिणो सभा 
ते. प. हा. नेशनल पब्लिशिंग हाउस 


प्र. सं... प्रथम संस्करण 

वि. विक्रम संचत 

वि. वि. विश्व विद्यालय हिन्दी 
हि. प्र. प्रकाशन 


वि. पु. मं. विनोद पुस्तक मन्दिर 
सि. प्र. प्रा. मित्र प्रकाशन प्राइवेट 


लिमि.. लिसिटेड 

सा. सं. साहित्य संस्थान 
सित. सितम्बर 

हि. ए... हिन्दुस्तानी एकादसी 
पं. पंडित 

ठाः ठाकुर 

डा डाकखाना 

झा. आचाये 

डॉ, डॉचटर 


435, 3 # ऑआं 
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चिन्ह सूची 


कोष्ठक 
स्वनग्रामात्मक लेख 
संस्वतात्मक लेख 
पदरूपात्मक लेख 
अ्घोप स्वर चिह्न 
दीघेता का ह्वास 
दीघेता की वृद्धि 
आतत युक्त व्यंजन 
पूर्ण दंत्य 

पश्चदंत्य 

शून्य प्रत्यय 

वैकल्पिक प्रयोग 
घातु 

अ्रारोहीस्वर 
अवरोहीस्वर 

समस्वर 

पदग्रामिक विकल्प 
सानुनासिक ध्वनि-चिह्न 
योग 

विकार ( सिद्ध रूप ) 


प्रथम खण्ड 
प्रथम अध्याय 
द्वितीय अध्याय 


22+%- 


.2.2 


तृत्तीय प्रध्याय 
3.] 
3.2 


द्वितीय खण्ड 


प्रथम अध्याय 
4.] 
4.2 
03 


4.3.4 
].3,2 
4,3.3 
.3.4 
4.3,5 


विषय-सूची 


दो शब्द 

अवतरण विधान +हाए 
संकेत सूची ण्र्प 
चिह्न सूची हां 
अनुक्रम रि[का 3 3 मऊ 
वेज्ञानिक्त पद-पाठ ]-50 
हरतलिखित प्रतियों का विवरण -2 
प्रतियों का तुलनात्मक अध्ययन 3-46 
'क' और 'ख' प्रत्ञियों का तुलनात्मक 

अध्ययत 3-7 
'क', ख' और “गा प्रतियों का तुलनात्मक 

अध्ययन ]7-20 
कर, ख', गा और 'ध' प्रतियों का 

तुलनात्मक अध्ययन 2[-27 
का, ख', गा, घर और “च' प्रतियों 

का तुलनात्मक अध्ययन 28-3| 
'क', ख, गा, घ', 'च और 'छ 

प्रतियों का तुलनात्मक अध्ययन 32-39 


'क', 'ख, ग', 'घ*, 'च', 'छ और 
'ज' प्रतियों का तुलनात्मक अ्रध्ययन 40-46 
प्रतियों का वंश-बुक्ष और प्रामाणिक पाठ 47-50 


प्रतियों का वंश-वृक्ष 47-48 
प्रामारिणिक-पाठ 48-50 
भाषा शास्त्रीय अध्ययन 5]--222 
ध्वनि विचार 5]-78 
स्वतिम सूची 5] 
लिपि संबंधी विशेष विवरण 5]-52 
स्वर 52 
स्वर (वितरण) 52-53 
दीर्घ स्वर 53-57 
हृस्व स्वर 57-59 
अ्रध स्वर 59-60 


अनुस्वार 60-6] 


.3.6 
.3.7 
.3.8 
4.4 
.4.] 
.4.2 
द्वितीय श्रध्याय 

2.] 
2.. 
2... 
2..2 
2..3 
2.].4 


2.व.5 
2..6 
2..7 
2..8 
2..8.4 
2.].8.2 
2..9 


2.4.] ,2 


2.2 
2.2.] 
2.2.. 
2.2..2 
2.2.2 
५3५3 
2.2.3 
2.3 
2.3.4 
2,3.2 
2,3.3 


( श्शाा ) 


अनुनासिकता.... 63 
स्वर संयोग 6-063 
अक्षर संरचना 53-64 
व्यंजन 64 
व्यंजन खण्डीय स्वनिम 64-76 
खण्डेतर स्वनिम 77-78 
पद विचार 79-4 94 
नामिक्त 79-]06 
प्रातिपदिक 79 
एक भाषिक इकाई वाले प्रातिपदिक 79-85 
मुक्त वँविध्य 85 
स्वरीभूत ढूप 85 
अवधारण के लिए प्रयुक्त कुछ संयोगा- 

त्मक रूप 86 
एकाधिक रूप 86 
लिग-विवान 86-88 
वचन-विधान 88-89 
कारकीय-सर बता 89--90 
विर्भाक्त मूलक संरचना 90-96 
चिहक्नक मूलक संरचना 96-98 
परसगंवत्‌ प्रयुक्त अन्य परसर्यीय- 

पदावली 98-00 
दो रूण्मि के योग से निर्मित 

प्रातिपदिक 00-06 
विशेषण ]06-20 
संरचनात्मक ]06 
अरूपान्तरित 06-08 
रूपान्तरित 08-42 
अर्गत 2-7 
प्रकायंगत ]]7-]9 
विशेषण-चार्ट 20 
सर्वेताम 2-32 
पुरुष वाचक 2-23 
निश्चय वाचक 323-26 


अ्निश्चय वाचक 726«-27 


2.3.4 
23.5 
2.3.6 

2» «) 
2.3.8 
2.3.,9 
2.3.]0 
2.4 

2.4.] 
2.4.].] 
2.4.] 2 
2.4..3 
2.4.],4 
2.4.2 
2.4.3 
2.4.4 
2.4.4.] 
2.4.4 2 
2,4.,4.3 
2.4.5 

हक] 

228 

3 ०५.7 
2.5.].]. 
2.2.-..]. 
2.5....2 
2.3....3 
2.5..].2 
2.5.].2 
2.57.4.2.3 
2.5..2.2 
कहे 
2.5 2.] 
2.5.2..] 
200229772: 


( हे ) 


प्रश्न वाचक 

संबंध वाचक 

निज वाचक 

आदर वाचक 

समुदाय वाचक 

नित्य संबंधी 

संयुक्त सवंनाम 

क्रिया 

धातु 

मूल 

यौभिक 

वाच्य 

प्रे रणार्थ क 

सहायक क्रिया 

कुंदन्त 

काल रचना 

कृदन्त काल 

मूलकाल 

संयुक्त काल 

संयुक्त क्रिश 

क्रिया विशेपण तथा अव्यय 
क्रियाविगेषण 

अर्थ के आधार पर 

एक पद वाले क्रियाविशेषण 
काल वाचक 

स्थान वाचक 

रीति वाचक 
क्रियाविशेषण के समान प्रयुक्तरूष 
संरचना के श्राधार पर 
मूल 

संयुक्त 

अच्यय 

सामान्य अव्यय 
समुच्चय बोधक ग्रव्यय 
विस्मय सुचक अव्यय 


27-28 
]28-29 
30 
30--34 
3] 
3 ]--32 
32 
32-]76 
32 
32--34 
]35--36 
36 
36-37 
37-]40 
40-47 
47 
]47- 53 
53-62 
]62-64 
]64-76 
76-9 4 
१76 
]76 
]76 
76-.79 
79--8| 
]8--84 
85-]87 
87 
]87 
]87-90 
90 
90 
90-93 
१93 


| जड ॥ 


2,552.2 विस्मय सूचक के समान प्रयोग 93-94 
2,5.2,॥ परसर्गों के रूप में श्रयुक्त श्रव्यय 
पदावली 94 
2.5.2.,4 पादपूरक पढावली 494 
2.5,2,5 श्रवधारण वोधक प्रयोग 94 
तृतीय श्रध्पाप घावय विचार ]95-222 
3..] वाबय 935 
3,..] विश्लेष्य पुस्तक के वाक्य 935 
3...4.] एक उपवाक्यीय वाक्य 95 
3....2 वहु उपवाक्यीय वाक्य 935 
3..]..2. द्वि उपवाक्यीय वाक्य 95-97 
3...] 2.2 न्वि उपवाक्यीय वाक्य ]97-200 
3.4,..2,3 प्रधिक उपवाक्यीय वाक्य 200-202 
3,.2 उपवावय 203 
3..2.] विश्लेष्य पुस्तक के उपवाक्य 203 
04.2:7.7 पूर्ण उपव क्य 203-2व5 
3.] .2..2 अपूर्ण उपवावय 2435 
3.,2..2. अशतः अपूर्ण उपवावय 25-26 
3.].2..2.2 पूर्णत: अपूर्ण 3पवावय 246 
3..3 वाक्यांश 26 
3..3,] निकटस्थ अवयव के विचार से 
वाक्यांश के भेद 27 
3..3..] शीर्ष विशेषक वाक्यांश 27-220 
3.4.3.,2 ग्रक्ष संबंध वाक्यांश 220-22[ 
3,.3..3 सम'वयवी वाक्यांश 22] 
3..3..4 शीर्ष विश्लेपक वाक्यांश 22] 
3.] .3..5 संगुफित क्रिया वाक्यांश 22[-222 
चतुर्थ श्रध्याय बोलीगत वेविध्य 223-23| 
4.] गीतावली में बोलीगत बेविध्य 223-230 
8.2 मूलाधार बोली 230-23] 
पंचम अध्याय उपसंहार 232-242 
सहायक ग्र थानु कप्र रि!का 243-248 
तालिकाएं 249-252 


कह» जमा» &०»+-+मत. समन 


वेज्ञानिक पद पाठ 
हस्तलिखित प्रतियों का विवरण 


.. प्रस्तुत अध्याय में तुलसीकृत गीतावली का “वैज्ञानिक पद-पाठ” निर्घा- 
रित करने का प्रयत्त किया गया है-पाठ निर्धारण के लिए जो श्रपेक्षित 
सामग्री प्राप्त हुई है उसका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है--- 

]... प्रतियां--गीतावली के पाठ सम्पादन में प्रयुक्त विभिन्न प्रतियों का 
विवरण इस प्रकार है--- 


गी. का 
आये भाषा पुस्तकालय नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी 
ग्रथकार--गोस्वामी तुलसीदास गीतावली 
लिपिकाल---809 लिपिस्थान---लवपुर 
लिपिकर्त्ता---रमाशंकर याज्ञषिक पत्र---4| 


प्रति में प्रथम पत्र नहीं है तथा 40 वां पत्र भी श्राघा ही है। इसका 
आरंधभिक अंश इस प्रकार मिला है-- 

सुष वरनि न जाई ॥ सुनि दसरथ सुत जनम लिए सब गुरजन विश्न बुलाई॥ 
वेद विहित करि क्रिया परमसुचि आनंद उर न समाई ॥ सदन वेद धुनि करत मधुर 
मुनि बहुविधि बाज बधाई ॥ पुरवासिन्ह प्रिय नाथ हेतु निज निज सम्पदा लुढाई ॥॥ 
मनि तोरन बहु केतुपतताकनि पुरी रुचिर करि छाई ॥ सागध सूत द्वार बंदीजन जहें 
तहें करत बाई ॥ सहज सिंगार किये वनिता चलीं मंगल विपुल बनाई गार्वाह 
देहि असीस मुदित चिर जियो तनय सुषदाई ! बीथिन्ह कुकुम कीच अरगजा अगर 
अवीर उड़ाई ॥ नाचहि पुर नर नारि प्रंम भर देह दसा चिसराई ॥ अमित घेनु गज 
तुरग बसन मनि जातरूप अधिकाई ॥ देत भूपष झनुरूप जाहि जोइ सकल सिद्धि छह 
आई | सुषी भये सुर संत भु-- 

अंतिम पृष्ठ--तारी देषन आए ॥। सिव विरंचि सुक नारदादि मुनि अस्तुति 
करत विमल बानी ॥ चौदह भुअन चराचर हरपित आए राम राजधानी ॥ मिले 
भरत जननी गुर परिजन चाहत परम आनंद भरे ॥ दुसह वियोग जनित दारुन दुष 
रामचरन देषत बिसरे ॥ वेद पुरान विचारि लगन सुभ महाराज श्रभिषेक कियो ॥ 
तुलसिदास जिय जानि सुअवसर भगति दाव तब मांगि लियो॥ा इतिश्री विश्वपद 
रामायरों उत्तरकाण्ड समाप्त: ॥। सुभमस्तु सव्वे जगतां-संवत ॥809॥ आपषाढ़ 


2 गीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 


श्रूदि ॥ पूर्ण पंचदश ॥ वुधवासरे इदं पुस्तक भावदास आननी ॥ “““लवपुर मण्ये ॥ 
मंगल लेखकानां च वाचकानां च मंगल ॥ मंगल सर्वेलोक “ भूमि भूपति मंगल॑-- 
विशेषताएं--पुल्तक अति जीणंशीणरविस्था में है लेकिन पठनीय है | 40वां 
इष्ठ आवा फटा हुआ है---पुष्पिका में कहों पर नली लिपिक्रार का नाम नहीं है। 
पुस्तक में ऊपर श्रवश्य चाम लिखा है । 
लिपिगत विशेषताएं--ऐ के स्थान पर झा 


गो. ख! 
हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग सं० 2078 
ग्रथ का नाम--रामगीतावली श्र थकार-गोस्वाभी तुलसीदास 
विपय--रामकाव्य संबत लेखन-8 54 
ग्र थस्थिति-- पूर्ण आकार--8 %< 5 
पौप शुक्ल ! वृहस्पतिवार पृष्ठ---3 26 


प्राप्ति साधन--श्री बालझृष्ण पाण्डेय अिसिपल कान्‍्य कृब्ज कॉलेज, लखनऊ 
लिपि सम्बन्धी विशेषत्ाएं-- 
सु दा से 
सामासिक चिह्न नहीं हैं 
छ के स्थान पर ज्ष परंतु छ भी है 
त के स्थान पर ख॒ का प्रयोग 
ए के स्थान पर ये 
“” के स्थान पर ० चिह्न का प्रयोग 
संपादन संबंधी विशेषत्ताएं--.- 
वालकाण्ड में 30वां पद अधिक है--- 
लगन मगन आंगन डोलत तुतरि वचन सू क जु बोलत 
स्‌ू नि स्‌नि हिय हरपि निरषि प्रमुदित महतारी 
भूपन सिस, भूषित तन बसन हरन दामिनि दुति 
क्षवि सू भाय स्‌ दर उपमा न वारि डारी 
कौतुक मृग विहंग घरत घावत नहिं. पावत 
लरपरत परत उठत देत तारी क्लिकारी 
विरचित मनि कनक वाजि गज रथ करि रुचिर साजि 
चढ़त चलत देपि स्‌ मन वरपहि सू र मारी 
चाहि चाहि चारु चरित उम्रग्ित आनंद सरित प्रोम 
वारि भूरि भूरि भरित पलक बीच बारी 
राम भरत लघन लाल सोभित संग वलिहारी 
इसके बाद दो पद 3] वें हैं । इस प्रकार संख्या बालकाण्ड की !0 ही है / 


वैज्ञानिक पद पाठ 


लंकाकाण्ड और उत्तरकाण्ड में पदों की संख्या वही है परंतु लंकाकाण्ड में तृतीय व 
चतुर्थ पद एक कर दिया गया है वैसे ही उत्तर काण्ड में पंचम व षष्ठ-दोनों पदों को 
एक ही नंबर 5 डाला गया है और 7 नं० का पद छठा बता दिया गया है। 
आगे चलकर भी 33 व 34 दोनों पदों का नंबर 32 डाला गया है। इस तरह पद 
38 होते हुए भी उनकी संख्या 36 है। 
गी. गे 
आय्येभाषा पुस्तकालय नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी 
गोस्वामी तुलसोदास 
लिपिकाल 856 वि० पृष्ठ संख्या -9 


बीच बीच के पद 50 लिपिकार-वेनी प्रसाद 

प्रस्तुत प्रति में चुने हुए पद शअ्रचुदित पाठ के प्रयोजन से संकलित हैं जिनमें 
भक्ति का वर्णन है--प्रति का प्रथम पद प्रति के बाहर के स्तवन से श्रारभ होता है- 

यथा- श्री गणोशाय नमः राग वसंत-वंदों रघुपति करुणानिघान, जासौं करें 
भव-भेदज्ञात । रघुदंश कुमुद सुषप्रद निसेस, पद पंकज से ब्रज श्रज महेस । तिज भक्त 
हृदय पाथोज भू ग, लावन्य वपुष अगनित अनंग। अ्रति प्रवल मोह तम मारतंड, 
अज्ञान गहन पावक प्रचंड । अति मान सिन्धु कुभज प्रदात, जत रंजन अ्र॑जन भूमि 
भार। रामादि सप्पंगण पद्चगारि, कदर्प्प नाग मृगपति मुरारि। भव जलघधि पीत 
चरणारविद, जानकीरमन भझानंदकंद, हनुमान हृदय मानस मराल, निष्काम कामधुक 
को दयाल' | त्रयलोक तिलक ग्रुत गहन राम, भज तुलसिदास विश्वाम घास ॥ राग 
विलावल-आज महामंगल' कोशिलपुर सुनि, नृप के सुत चारि भए, सदन सदन 
सोहिलो सुहावन नभ अ्ररु नगर निसान हुए, सजि सजि जात अमर किनर सुनि जानि 
समय सुभ गान ठए, नाचाहिं न अपसरा मुदित मन पुनि पुनि बरषहि सुमन चए, 
श्रति सुष बेगि गुर भूसर भूषति भीतर भवन गए, जातकर्म करि कनक बसन मन्ति 
भूपित सुरभि समूह दए, दल' रोचन फल फूल दूवंदधि जुबतिन्ह भरि भरि थार लय, 
भर्राह अवीर अरगजा छिरकईहह बंदिन्ह वांकुर विरद बय, कनक कलस चामर पताक 
घुज जंह तह देत सकल मंदिर रितय, तुलसिदास पुनि भरोइ देपियत राम कृपा चित- 
वनि चितय ।2। राजजयी श्री गावे विविध विमल वरवानी, भुवन कोटि कल्यान कत 
जो जायउ पूत कौशिला' रानी, मास पाष तिथि वार नषत ग्रह जोग लगन सुभ ठानी, 
जल थल्ल गगन प्रसन्न साधु मन दस दिसिहि हुलसानी बरसत सुमन वधाव नगर 
मेंहे हरप न जात वपानी, ज्यों हुलास रतिवास नरेसहि त्यों जवपद रजधानी ।3। 


गीतावली 


अन्य पद गीतावली गोंरखपुर-संख्या 
(4) सुभग सेज सोभित कोसल्या .7 
(5) पालने रघुपति भुलावे ४ ]23 


(6) पगन्ह कब चलिहौ चारिउ भैया .9 


4 गीतावली का भाषा शास्त्रीय श्रध्ययत 


(7) श्रांगन फिरत घुटुरवनि घाए .26 

(8) या सिसु के गुन नाम वड़ाई .]6 

(9) रघुवर वालछवि कहाँ वरनि .27 
(0) नेक, विलोकि श्री रघुवरनि .28 
(!4) राम लपन युक बोर भर्थ रिपुदमन लाल यूक वोर भये .45 
(!2) भमहामुनि चाहत जाग जयो 4.47 
(3) आजु सकल स्‌ कृत के फल पाइहीं .48 
(4) कौसिक के मप के रपवारे .60 
(5) भेरे बालक कैसे थां मग निवहद्ठिंगे .99 
(6) जब ते लें मुनि संग सिघाएं .04 
(7) सानुज भरत भवन उठि घाए .702 
(१8) द्ुलह राम सीय दुलही री .06 
(9) ज॑से ललित लपन लाल लोने .07 
(20) जानकी वर सुन्दर माई ].408 
(2) जननी वारि फेरि भुजनि पर डारी 3.09 
(22) सुभग सरासन सायक जोरे 3.2 
(23) कर सर घनु कटि रुचिर निपंग 3.4 
(24) श्री राघव गीघ गोद करि लीन्हे 3.]3 
(25) नीके के जानत राम हिय की 3.44 
(26) भोरे जान तात कछू दिन जीजे 3.45 
(27) सबरी सोइ उठी 3.7 
(28) पदप्दम गरीब निवाज के 5.29 
(29) महाराज रामपहें जाठगों 5.30 
(30) आए सचिव विभीपन के कही 5.3 

(3) बिनती सुनि प्रभु प्रमुदित भए 5.32 

(32) प्रभु विहँसि कह हनुमान सों 5.33 

(33) सचिेहु विभीषन आए हैं 5.34 

(34) चले लेन लपन हनुमान हैं 5.35 

(35) रामहि करत प्रणाम निहारिके 5.36 

(39) करुणा करकी करुणा भई 5.37 

(40) मंजुल मुर्रात मंगल मई 5.38 

(46) सव भांति विभीपन की बनी 5.39 

(42) कट्टों करिमि न विभीपषन की बने 5.40 


(43) अ्रति भाग विभीपरा के भले 5.4] 


वैज्ञानिक पद पाठ 5 


(44) गए रामसरण सबकौ भलोौ 5.42 
(45) सुजम्त सुनि हे ताथ हौं आयो सरण 5.43 
(46) दोन हित विरद पुरानति गायो 5.44 
(47) सत्य कहाँ मेरो सहज सुभाए 5.45 
(48) नाहिन भजिवे जोग वियो 5.46 
(49) सुमिरत श्री रघुवीर की वाहैं 7.3 
(50) रघुनाथ तुम्हारे चरित मनोहर 7.38 


प्रति का अन्तिम पृष्ठ इस प्रकार है--- 

काज सुर चित्रकूट मुनिवेष घरे, यक तयत॒कीन्‍्हे सुरपति सुत वधि विराध 
मुनि सोक हरे, पंचवटी पावन राघव करि सूर्पनषा कुरूव कीन्‍्हे, परदूषन संवारि 
कपट भृग गीघराज कहे गति दीन्हे, हति कवंध स्‌ रप्रीव सपा करि भेदे ताल वालि' 
मारे, बात्तर रीछ सहाइ अनुज संग पधिधु वांधि जस विस्तारे, सकल पुत्रदल सहित 
दसानन मारि श्रपिल सुर दुष टारो, परम साधु ज्िय जानि विभीपण लंकापति तिलक 
सारो, सीता अ्ररु लक्षत सग ले औरो जिते दास आए, नगर निकट विमान आये सब 
नर नारी देषव आये, शिव विरंचि स्‌ क नारदादि मुनि श्रस्तुति करत विमल वानी, 
चौदह भुवन अरु चराचर हरषित आये राम राजधानी, मिले भरत जननी गुर 
परिजन चाहत परम अवनंद भरे, दुसह वियोग जनित दाछरुण दुंप रामचरन देपत 
विसरे, वेद पुरान विचारि लगन सुभ महाराज अभिषेक किये, तुलसिदास जिय जानि 
सअवप्तर भक्तिदान वर मांग लिए ॥50॥ 


पुष्पिका--इति श्री तुलसीक्ृत गीतावली के विक्षपषद वीच-बीच के लिए हैं 
पचास-गीतावली वहुत है )। सुभ संवत 856 वैशाष हृष्ण 3 गुरवासरे नाले- 
खियाउ वेनीप्रसाद नामवा ॥शुभ।। 
लिपि संबंधी विशेषताएं--- 

सु भी है ओर स्‌ भी है 

एक के स्थान पर यक का प्रयोग है 

ख के स्थान पर प का प्रयोग परंतु कहीं-कहीं खत भी है 

स के स्थान पर कई स्थानों पर श का प्रयोग है 

इ के स्थान पर भी कहीं-कहीं य का प्रयोग है 

सामासिक चित्त नहीं हैं। 

इस पुस्तक में अवोध्याकाण्ड, किष्किन्बाकाण्ड व लेकाकाण्ड का एक ही 
पद नहीं है- उत्तरकाण्ड के दो पद हैं झेष पद बालकाण्ड, अरण्यकाण्ड व सुन्दर 
काण्ड के हैं। लिपिकार पद संख्या लिखने में भूल गया है | उसने 35 के अवन्तर39 
संख्या लिखी है। इस प्रकार कुल 47 पद ही हैं जिसे वह पच्रास कहता है । 


6 गीतावली का भापा शास्त्रीय अध्ययन 


गो. 'घ 
ग्रारयभाषा पुस्तकालय तागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी 
गीतावली रामायण ग्रथरकर्ता-तुलसीदास 
निर्माण काल लिविकाल-89] वि० 


पृष्ठ संख्या [-73, 75-83, 85-97 5 95 

यह प्रति 4 वें पृष्ठ से प्रारंभ होती है । इसमें 74 वां 84 वां पृष्ठ नहीं 
हैं। इसके प्रारंभिक पृष्ठ की प्रतिलिपि निम्न प्रकार है--- 

श्री रामचंद्राय नमः ॥ श्री गरोशायनम: ॥ अथ श्री गुशांई तुलसीदासकृत 
गीतावली रामायन लिप्यते, श्लोक ॥ निलाम्वुज स्थामल कोमलांग सीता समोरो- 
पित वाम भागं, पाणो महाशायक चार चापं नमामि राम॑ रघुवंश नाथ ॥ राग 
असावरी ॥श्राजु सुदित सुभ घरी सुहाई रूपसील गुतधाम राम नुप भवन प्रगठ भए 
आई ॥। अति पुनीत सधुमास लगन ग्रह वार जोग समुदाई ॥ हरपवत चर अचर 
भूमि-तरु तनरुह पुलक्त जनाई ॥2।। बरषहि विवुध निकर कुसुमावलि नभ दुदुभ 
वजाई ॥ कौसिल्यादि मातु मन हरपित यह सुखवर्णशव न जाई ॥3॥ सुनि दसरथ 
सुत जन्म लियो सब ग्रुरजन विप्र बोलाई ॥ वेद विहित करि कृपा परम सुचि आनद 
उर न समाई ॥4॥ शदत वेद घुनि करत मधुर मुनि वहुविधि वाज वधाई।॥। 
पुरवासिन्ह प्रिय नाथ हेतु निज-निज संपदा लुटाई ॥5॥ मतति तोरन बहु केतु 
पताकनि पुरी रुचिर कर छाई ।। मागघ सूत द्वार वदीजन जंह तंह करत बड़ाई 
॥6॥ सहज सिंगर किए बलिता चली मंगल विपुल बनाई ॥ गावें देह असीस 
मुदित चिर जियो तनय सुषदाई ॥ 


तथा अन्तिम पृष्ठ की प्रतिलिपि निम्न प्रकार है- 


करि टारयों ताल वालि तृप सारयो ॥ वानर रिक्ष सहाए अतुज संग 
सिधु वांधि जस विस्तार॒यों ॥6॥ सकल पुत्रदल सहित दसानव मारि अषिल सुर 
दुप टारयो ॥ परम साधु जिय जानि विश्नीपन लंकापुरी तिलक सारयो ॥7॥| सीता 
अरढ लछ सत संग लीन्हे औरो जिते दास आए ।| नगर निकट विमान आवत सुन्रि 
नर नारी देषन आए ॥।8॥ मिले भरत जननी गुर परिजन चाहत पर्म आनंद भरे ॥ 
दुसह वियोग जनित ससृत दुप राम चरन देपत विसरे ॥9॥ ब्रह्मादिक सुक 
नारदादि पुनि अस्तुति करत बिमल वानों ॥ चौदह सुवत चराचर हित आए राम 
राजघानी ॥0॥ देषि दिवस सुभ लगन सोधि गुर महाराज अभिषेक कियो॥ 
तुलसिदास तव जाति सुआऔौसर भक्ति दान वर माँयि लियौ ॥॥330॥38॥ इति 
श्री रामगीतावली उत्तरकाण्ड समाप्त: ॥ सिघिरस्तु सुभमस्तु ॥॥ सुभसंवत 89] ॥ 


मासोन्तमे वैसाष मासे कृष्ण पक्ष दसरचांसनिवासरे इदं पुस्तक॑ लिपित्‌ ॥ संपूर्नेम॒ 
॥सुभम्‌॥ रामायनमः ॥ है है 


वेज्ञानिक पद पाठ | 


प्रति अत्यंत जीणंशोर अवस्था में है। कुल' 95 पत्र हैं वीच के 74 और 
84 पत्र नहीं हैं | पुस्तक के 8 प्रृष्ठ से लेकर 55 पृष्ठ तक और इसक्रे अतिरिक्त 
भी कई एष्ठों पर पुस्तक का एक कोना गायव होने के कारण समी स्थानों पर 
सफेद कागज गोंद से जोडा गया है। अतः संपूर्ण पुस्तक अपूर्ण है । लिखावट साफ है 
किन्तु अनेक स्थानों पर सफेद कागज वीच-बीच में भी लगाया गया है । 

लिपि संबंधी विशेषताएं-स के स्थान पर श्व॒ का प्रयोग है 

प्रारंभिक ऐ के स्थान पर अ्र॑का प्रयोग है । 

ख के स्थान पर अ्रधिकांशत: प का प्रयोग है 

सामासिक चिह्न कहीं नहीं हैं--- 


गी. 'च' 
हन्दी संग्रहालय--हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग-संख्या !63 
नाम पुस्तवक-राम गीदावली ग्र धकरत्ता-तुलसीदास 
संवत रचना- >८ संबवत लेखन--]908 वि. 
विपय-रामायर पृष्ठ-286 पन्ना 43 
दाता-क्रय की हुई आकार-9 >< 5 (पअपूर्ण) 


यह प्रति खंडित है और अरण्यकाण्ड के 2[] वें पद से प्रारंभ होती 
है,यथा--- 

जवहि सिय सुधि सब सुरनि सुनाई । भए सुति सजग बिरह सरि पैरत थके 
थाह सी पाई | कसि तूणीर तीर घनु धर घुर धीर वीर ह्वी भाई। पंचबदी गोदहि 
प्रयाम करि कुटी दाहिनी लाई । 

ओर अन्तिम पत्र इस प्रकार है 

नगर निकट विमान आयो जब नर नारी देखन घाए । शिव विरंचि शुक 
नारदादि मुनि अस्तुति करत विमल वानी । चौदह भुञत्नन चराचर हृपित आए राम 
राजधानी । मिले भरत जननी ग्रुर परिजन चाहत परम अनंद भरे । दुसह वियोग 
जनित दारुण दुप राम चरण देपत विसरे | वेद पुराण विचारि लगन सुभ महाराज 
अभिषेक कियो । तुलसिदास जिय जानि सुअवसर भक्तिदान तब मांगि 
लियो ॥33]॥ 

इसकी पुष्पिका निम्बलिखित है-- 

इति श्रीरामगीतावल्यां उत्तरकाण्ड समाप्तं ॥] संवत 908 

लिपीतं श्री सर्वे सुपरायमधन नीवासी श्री महाराजबीराज छृपात्र 

श्री वहादुर श्री विस्वचाथ सीह जु देव के शहर रीव नामु-- 

लिपि संबंधी विधेपताएं--ख के स्थान पर ष का प्रयोग 

सामासिक चिह्त का प्रयोग नहीं है । 


8 गतीवली का भाषा शास्त्रीय श्रध्ययन 
ज़ी. छा 
गीतावली--तुलसीदास लिपिकरार व लिपिकाल नहीं हैं 


आकार । 3 ५67 पन्ना 70 


इसके प्रथम पृष्ठ की प्रतिलिपि-- 

निकसत कुमुंद विलपाई । जो सुपर सिंधु सुक्रत सीकर तें स्िव विर॑त्ति 
प्रभुताई । सो सुप अच्ध उमंग रहो दृह दिस कवन जतन कहो गाई ] जो रुवुवीर 
अरन चितक तिनकी भति प्रगट दिपाई अ्विरल अमल श्रनूष भक्ति दिढ़ तुलस्रिदास 
तहेँ पाई 2 रासजत । श्री सहेजी सुन सोहिल सव जग आ्राजु सपुत कौसिला जायो 
अचल भयो छुलराज ] चैत चाढ नौमी सविता तिथि मध्य ग्रगन ग्रत भान नपत 
जोग ग्रह लगन भले दिन मंगल मोद निघान 2 व्योम पबरन पावक जल थल दस 
दिसहूँ सुमंगल मूल सुर दूदू मी वजावहि गावहिं हपित वर्षहि फूल 3 भूपति सदत 
सोहिलो सूतर वाजे गहगहे मिसान सहज सजहि कलस ध्वज चामर ततोरन केतु वितान 
4 सींचि सुगंध रबी चौक गृह झ्रागंन गली बाजार दल फल फूल दुवदधि रोचेन 
मंगल चार 5 सुनि सन सनंदस-स्थंदन सक्रल समाज समेत लिए वोलि ग्रुर सचिव 
भूमिसुर प्रमुदित चले निकेत 6 जातक कर्म करि पूज पितर सुर दिय महि देवन दान 
तेहि औसर सूत तीनि प्रगट भए मंगल समुद्र कल्यान 7 श्रानंद मह आनंद अवध 
आनंद चधावव होइ उपमा कहों चार फल की मोहि मल ने कह कवि कोइ 8 सजि | 

इसके श्रन्तिम पृष्ठ की प्रतिलिपि--- 


पालक सीय के विहरत मृदित ट्वी भाइ नाम लवकुस राम सिय अनुहरत 

स्‌ दरताइ । देत मुनि सिलु पिलोना ले ले बरत डुराई पेल पेलत नप सिसुन के 
वालवब दे बुलाई 2 भूप भुषन वसन वाहव राज साज सजाइ वरत चरम क्ृपान सुर 
घनु चूल लेत चनाइ 3 दुपी सिय पिय विरह तुलसी सुप्री सृत सुप पाई आँच पय 
उफनात सीचत सलिल ज्यों सकुचाई कंकेई जौंलों जिग्नत रही तौलों बात मातु त्ो 
मुह भरि भरत न भूलि कही ] मानी रास श्रधिक्त जननो ते जननिह गँस ने गही 
सीय लपन रिपुदेमत राम रुष लपि स्वकी निवही 2 लोक वेद मरजाद दोष ग्रुन 
गति चित चष न त्रही तुलसी भरत समुझ राषी हिय राम सनेह सही 3 रामकली 
"बुवाथ तुम्हारी चरित मनोहर गावहि सकल अचधवासी अति उदार अचतार मनुज 
जे बरे ब्रह्म स्व आबियासी 4 प्रथम ताइका हृति सुवाहु वि मप राष्यों ट्विज 
हितकारी देषि दुपी श्रति सिला सापदस रघ्पत्ति विप्रनारि तारी 2 सब भूपसि कौ 
गरव हरुयो हरि भज्यों संग्रु-च्राप-मारी जनक सृता समेत आ्रावव घर परसराम अ्रति 
हारी 3 तात बचन तजि राज्य काज सुर चित्रकूट मुनिवेष घरयो यरेक नयन 
वे।न्हीं मुरपतति सुत वधि विराध रिपि सोक हरयों 4 पंचवटी प्रावत करि सूपनपा 


वैज्ञानिक पद पाठ 9 


कुरूप कीन्‍्ही पर दूषन संघारि कपट मृग गीघराज कहे गति दीन्ही 4 हति कवंघ 
सुग्रीव सपा करि भेदे ता-- 
लिपि संबंधी विशेषताएं--- 
ऐ के स्थान पर अं का प्रयोग है 
ख के स्थान पर ष का प्रयोग है 
प्रथम व अन्तिम पद खंडित है शेष पूरों है । लिखावट बहुत स्पष्ट है, 
सामासिक चिह्न नहीं हैं । 
किष्किन्धा काण्ड सें एक पद है--“भूषत बसन विलोकत सिय के” जबकि 
अ्रन्य प्रतियों में दो पद हैं । 
काण्ड के अन्त की पुष्पिका इस प्रकार है--- 
“इति श्री रामगीतावली वालकाण्ड प्रथम सोपान:” 
/इत्ति श्री रामगीतावली अयोध्या द्वितीय सांगयेव:” 
“इत्ति श्री रामगीतावली तृतीय कांड सांगयेव:' 
“इति श्री रामगीतावली किष्किन्धा सांगयेव:”” 
लंका काण्ड और उत्तर काण्ड में पुष्पिका का यह अंश भी नहीं है । 
गी ज' 
तागरी प्रचारिणी सभा वाराणसी 
गोस्वामी तुलसीदास कृत गीतावली 
लिपिकाल »< लिपिकार » 
पृष्ठ 3]6 पनत्न संख्या 58 
प्रति अ्रत्यंत जीण शीर्ण अवस्था में है, खण्डित तथा कटी-फटी है । इसमें 
93 से 98, '2 से !5 तथा 29 से 32 के बीच के पत्र नहीं हैं। स्पर्शमात्र 
से पत्र बिखरने लगते हैं । प्रथम पद का प्रारंभिक भाग नहीं है, यधा-- 
गावहि देहि असीस मुदित सन जिवहिं ततय सुषदाई || वीथिन कुकुम 
कीच अरगजा अगर अवीर उड़ाई ॥ अमित घेनु गज तुरग वसन मति जातरूप 
अधिकाई ॥ देत भूप अनूप जाहि जोई सकल सिंधु ग्रह आई ॥ सुपी भये सुर संत 
भूप सुर पल गत मन मलिनाई ॥| सर्वे सुमन विगसत रवि निकसत कुमुद विपिन 
विलषाई || जो सुष सिंधु सुक्रत सीकर तें सिव विरंचि प्रसुताई )] सोइ सष अवध 
उमगि रह्मयो दस दिसि कोटि जवन कहां गाई ॥| जे रघुवीर चरन चितक विनकी 
यति प्रगट दिपाई ॥ 
और अन्तिम पद की प्रतिलिपि निस्त प्रकार है जो खंडित है-- 
रघुनाथ तुम्हारे चरित मनोहर ग्रावत सकल अ्रवधवासी ॥ अ्रति उदार 
अवतार मनुज वपु धरे घारि उड़ी स्वर अविनासा ॥ प्रथम ताडुका हृति सुबाहु 


0 गीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 


बधि मप राषिउ द्विज हितकारी ॥ देषि दुषि अति सिला सापवस रघुपति विप्रनारि 
तारी ॥ सब भूपन को गर्व हरुयोी हरि भजिव संभु चाप भारी॥ जनक सुता 
समेत आावत ग्रह परसराम अति मदहारी ॥ तात वचन तजि रामकाज सुचि 
चित्रकुट मुनिविष धरो ॥ .येक नयन कीन्हौं सुरपति सुत बधि विराध रिपि 
शोक हरो ॥ 
संपादन संबंधी विशेषताएं--अरण्य काण्ड (9 पद) 'हिरन हनि फिरे रघुकुल 
मति से प्रारंभ है-किष्किन्धा काण्ड में “भूषन वसन बिलोकत सिय के” पद के 
पश्चात्‌ एक अतिरिक्त पद है जो इस प्रकार है-- 
करि सुग्रीव सों मिताई हनुमात बिच श्रगिनि साष दे हम तुम दोनों चारी । 
पूछि दसा हति वालिराज दे गति सरदारी । लछिमन कोप राम प्र पाले 
किप्किन्धा पहुँचाई | यह सुनि तवहि राम पति आयो चरन गहे तब आई । 
तुलसी हरि सुप्रीव पाप वादिका जे कि औसर नाहीं । 
इसके पश्चात्‌ 'प्रभु कपि नायक बोलि' कह्मों है! पद है-- 
इसी प्रकार सुन्दरकाण्ड में ।6 और 7 वें पद के मध्य एक अतिरिक्त पद 
है जो श्रन्य किसी प्रति में नहीं है-- 
रघुपति पहँ मारुतसुत आयो 
उठे कपि मासु देषि आतुर ह्वो श्रेम पुलकि जल छायो । 
श्रानंद भरि हनुमान पानि जुग जोरि चरत सिर नायो | 
श्री रघुवीर उठाइ कह गहि प्र स सहित उर लाण्यो । 
पूछी कुसल' ज'नकी को प्रभु हियो श्रघिक पछितायों । 
तुलपती जाइ कह्यो जानकी सोई सोई कहि कपि गायो । 
सुन्दरकाण्ड में 22 वें पद का अभाव है 
लिपि संबंधी विशेषताएं - ऐ के स्थान पर अ्रै का प्रयोग है 
ऋ के स्थान पर रि का श्रयोग है 
छ औ भर की बनावट भिन्‍न है | 
प्र॒रण्यकाण्ड के बाद पुष्पिका इस प्रकार है “इति तुलसीदास कृते रामायन 
गीतावली अरनकांड तीसरो सोवभान संपुनस्मापता” बालकाण्ड के पश्चात्‌ केवल 
यह लिखा है “इति श्रीराम गीतावली श्री गुस”ई तुलसीदास जी के प्रथमो बालकाण्ड 
संपुरनस्मापता” । सुन्दरकाण्ड के पश्चात्‌ यह जिखा है “संपुरनस्मापता'” 


गी  झ 
ग्र्थ भीतावली ग्रथकार तुलसीदास 
रचनाकाल एवं लिपिकाल नहीं हैं-- 
पत्र 6 पद्चा कुल' 9 पद 


प्रति खण्डित है -इपके प्रथम पृष्ठ की प्रतिलिपि इप्त प्रकार है-- 


बेज्ञानिक पद पाठ | । 





मे ४० तन डा भा पपद्परिदित नदी शंय ऋंद्वावरी हे आज विश «० अधज कीम नम घ्री 
खो गग्युशायवम: झथ राममातावला राद अझतावरा आजु सदन सु रा 





2 «मी गले धाम राम कक; चर १7 >- आई व द्ति *+ एनीत आज डक मास 
सुहइ । छूप साल गमुत्र धाम राम नूप भवन प्रमट रकय आई अति पुनात म ] 


(48 | 








््नकनग तल अनइज दधकिनओ अऑभोफििलऋ समदठा ज्5 बज 5 जज दइ+-->5 भू मंतर जी -> ताज पुलक * "> 
लगन ब्रह्न वार जोग्र समुदाई ॥ हरसवंत चर अचर भूमितर तनरुह पुलक जनाई ॥ 
दुख नियत फर्क सनक: पक म द्् जय बियर बजाई (० >> 
बराहू वतव निकर कुसमत नन्न दुं दु भा बजाइ कौोसिक 

आंगन लरतम कक <4-4>। ललमजे '>जनकमन्‍नके,. व 

अन्तिम ए्रप्ठ की प्रतिलिपि निम्न प्रकार 8755 











ठदुलसी कहि जे लुनिहूँ गई बषनि हैं राम कामरिपु चाप चढ़ायो। मुनिद्धि पुलकि 
आनंद नयर नभ निरणि सिस्तान बजायों। जिंहि पिनाक घनुष सबहि विपाद बढायों। 
कुल पदों की संख्या इस प्रकार है-- गीता प्रेस गोरखपुर 
. आजु सूृदित सुमपरी सुहई नव 
2. प्रगन्ति कब चतिह चारों भया 3-9 
3 सभग सेज सोभित कौसिल्या 4-7 
4. झागंन फिरत घुट्ुुरुआ धायो "26 
हि 








जब नें राम लपन चितए री 4.78 





7. सुन सपी भूपति भली कीयो री 3-79 
8. अनकल नहिं सूलपानि हैं :80 
9, राम कार्नारपु चाप चढायो 3-93 


लिपि संबंधी विशेषताएँ--< के स्थान पर रु का प्रयोग तथा 
आ के स्थान पर अ का प्रयोग 


विशेष--इस प्रति में केवल बालकांड के 9 पर्दों (, 9, 


ने 3 


, 26, 76, 78, 


79, 50, और 93 ) का अव्ययन है और वे भी पूरे नहीं हैं 
2 चमक न लिपि पेकार लिपि पेकाल तथा ्ः प्स्यान किस षय ५2 
सभा पद अब्र हू | लापकार, लापकान तथा लिफपिस्यान किसी विषय की जान- 


& 3. कक #-- >-#-म 


कारी नहीं हैं । मात्रा ज्ञान गी कम हैं। लिखावट अन्‍्पष्ट है, अतः सभी प्रकार से 


आम... प्रतियों ७ ०७ 


&्‌ र्स्स घझ््न्प के साय इतका अब्ययनद कर किया जा सकता 
अपुरा हाने के कारसण अन्य ब्ादंवा के साथ इसका अब्ययन नहा किया जा सकता । 


५ 


गोद 

संड्या 484 आर गीतावली, रचथिता तुलसीदास (राजापुर बांदा) कामद 
देसी, पत्र 324, आकार 9579< 6 इंच, पंक्ति (प्रतिपृष्ठ) 39 परिमार (शअलुष्दुप) 
प9485, रूप प्राचीन, पत्च, लिपि-वनानरी लिपिक्लाल संव० 7797-]740 ई०, प्राप्ति 
स्थान-महाराजा पुस्तकालय, प्रतापमढ (अठब ) 

प्रारच्घिक पृष्ठ 

श्री मसपोशायनम: । श्री जानकी बललभो विजयते | नीलाम्दुज स्थामल कोम- 
लॉग । सीता समारोपित वामभाग । पाणो महासे एक चाढ चाप । नमामि दाम 





लय 25 आज सदित विज जल ५ अमन कमल ७ बचना व व्दृनन कम 
रतवंश नाथ ॥88। राग करना वर्या। आऊु सुद्ित सुभव री सुद्वाइ। रुप सांल मुन 


कि 


2 गीतावली का भापा शास्त्रीय अ्रध्ययद 


धाम राम नृप भवन प्रगट भें झ्राई॥ अति पुनीत मधुमास लगन ग्रह वार जोग समु- 
दाई | हरप वंत चर अ्रचर भूमि तरु तनरुह पुलक जनाई ॥ वरषहि विवुध निकर 
कुसुमावलि नभ दुदुभी बजाई। कौसिल्यादि मातु मन हरषित यह वरनि न जाई। 
सुनि दसरय सुत जनम लियौ सब गरुरुनन विप्र बोलाईं। वेद विहित करि छृथा परम 
सुचि आचंद उर न समाई ॥। 

अन्तिम प्रृष्ठ 

इति श्री राम सिता वल्प स्वामी तुलसीदास कृत भाषा सम्पूर्ण समाप्त । 
शुभमस्तु ॥ संवत्त 797 मिती जेष्ठ सुवादि तृतीया। वार सनिश्चर को पोधी 
लिखा प्रतापगढ़ । दोहा । लिपित॑ सिवनी प्राननाथ सुकथ जथा मति देषि। सुद्ध 
असुद्ध विचारि चित पंडित पढिहहिं विशेष ॥ 

विपय--राम की कथा विविध रागों में वर्णन ।। 

गीठ' 

संख्या 484 यस-गीतावली रचयिता-गो० तुलसीदास, कागज देसी, 
श्राकार 826 पत्र 70, पंक्ति (प्रतिपृष्ठ) 50, परमाण (अनष्ट्रप) 2250, 
पूर्ण रूप प्राचीन, पद्य, लिपि-तागरी, लिपिकाल संव- 89॥ प्राप्ति स्थान पं, संकठा- 
प्रसाद अ्रवस्थी, ग्राम कटरा, तहसील विसवां डाकधर कटरा, जिला सीतापुर (अवध) 
आ्रादि अन्त 484 आर के समान--- 


पुष्पिका--इति श्री गीतावली तुलसीकृत सातोकाण्ड समाप्तं संवत 89] 
कुमारवदी “लिषतं मुन्नू पांडे मेड़की वाले । 


वैज्ञानिक पद पाठ 


3 


प्रतियों का तुलनात्मक अध्ययन एवं पाठ निर्धारण 


प्रस्तुत अध्याय में प्राप्त हस्तलिल्लित प्रतियों का तुलनात्मक अव्ययन किया 
गया है और उसके झ्राघार पर सर्वाधिक प्रामाणिक पाठ का निर्घारण किया गया 
है जिससे मूल प्रति के समीप पहुंचा जा सके-- 


4.2 


प्रतियों का तुलनात्मक अध्ययन-- 


].2.] 'क' और 'ख' हस्तलिखित प्रतियों का तुलनात्मक अध्ययन 'भ अससानताएं 





काण्ड-पद-पंक्ति 


..]0 
.4.] 
4.6.8 
.8[.] 
.96.] 
.05.2 
].]07.3 
2.6.2 


2"2.2 


2.3.2 
253 74.4 
2.20.2 
2.26.2 
2.27.7 
2.32.2 
2.32.4 


2.4 5. 2--3 


लकी 
प्क्ल 


सर्वे 

गाव 

जनायो, सुनायो त्रादि 
पिकवैनीं 

जैमाल 

छवि सिगार सोभा इक ठौरी 
देषि तिअनि के 

मुख मयंक छवि 


अजहुं अवनि विदरत दरार मिस 


करों वयारि विलंबिय विदपतर 
कोटि अनंग 

तैसिग्र 

रूप पारावार 

सुतिय-फंग हैं-तक तीनों पंक्तियां 


निफन निराए बिनु 
पूरा पद है 
पूरा पद है 


4 


शख 


सवइ 

गावहि 

जनाए, सुहाए 

विधुवयनी 

जयुमाल 

क्षवि सिंगार उपमा सोउ थोरी 
देष वैयनि के 

मुख पंकज क्षवि 

अवनि त विहरति दार 


वचन सुनति 
करौं वाउ मगर वैंठि विटपतर 
सत अ्रनंग 
वेसिश्र 


रूप के न पारावार 

तीनों पंक्तियां नहीं हैं 

नीके न निरए बिनु 
वरपि““'““तरिगे तक दो 
पंक्तियां नहीं हैं 

लोने * ० ४* सरघर है-तक 
चार पंक्तियां नहीं हैं 


३4 


गीतावली की भाषा शास्त्रीय ग्रध्ययत 








है 


7 


काण्ड-पद-पंक्ति कक ख 
2,45,2-3 विसाल भुजवर है विसिष कंजकर हैं 
2.46.6 वर वयर 
2.48.] सानो षेलत फागु सुद मदन वीर मानों फागुन मुदित पेलैे 
मदन वीर 
2.7.3 मेरो जीवन जानिगम्र असोई मेरो पुनि जीवन जानिय 
जैसो अहि. जिय जंसे 
2.86.3 चितवत"*““आए-पंक्ति है पंक्ति नहीं है 
3.5.] अरुत कंज वरत चरन अरुण वरण चरन 
5.3.4 पूरा पद है अ्मिय'“” जालु-तक पंक्ति 
नहीं है 
5.5.4 सूजनहिं सूजन सनभुख होइ. सुजन सुन सुष होई 
5.22,4 मरकट मकक्‍्कंट 
5,28,3 कुबरे की लात कूबर की लात 
5.36.3 क्षेम कुसल कुसल क्षेम॒ 
5.37.2 श्रापु काढ़ि साढ़ी लई आपु काढ़ि मिसु साढि लई 
6.4.] पुरा पद है पद की प्रथम पंक्ति नहीं है 
6.9.9 पूरा पद है अन्तिम पक्ति नहीं है 
6.22.4 हित सहित राम हित राम 
7.3.2 निरमल निम्मेल' 
7.8.5 सुहो सुहव 
7.2.3 अरुण वरण पद पंकज अरुण चररणा पंकज 
7.22.] राजाघिराजा, समाजा शाजाधिराज, समाज 
4,22.3 छ्रिके ल्लिरकाह 
7.22.4 


पहिरे पट भूषण सरस रंग 


आ-समानताएं 


भूषण पट सुमन सरिस सुरंग 


०99 +नन नरम 4-3० -+5-++++++ 3 


काण्ड-पद-पंक्ति 


ड कक ; 


४ ख 7 


जा दा आय 55 पक ६223 मम नल एटा हू लक पदक से की पर कक 


.5.] 


अवध वधावने घर घर 


अवध बधावने घर घर 


वेज्ञानिक पद पाठ ]5 








काण्ड-पद-पंक्ति व्का खा 
.50 3 ञ्रहैँ ञ्रै हैं 
.84.] ओऔसर ओसर 
.05.4 इत “*** हिलोरी-तक दो पंक्ति दोनों पंक्तियों का ग्रभाव है 
का अभाव है 
2.4.] ञ्रौन आन 
2.43.2.3 ग्राठ पैक्तियां नहीं हैं आठ पैक्तियां नहीं हैं 
2.65.] ओऔघध ओऔध 
3.5.] राघो राघो 
5,4.4 पढे पठे 
5.9.3 सूमिरन सुमिरन 
5.0.] चैन तैत 
7.4.,3 अ्नामै न्‍ अनामै 
7.8.] जे जश्न 
7.28.2 सर्वंविद सर्वेधिद 


हस्तलिखित प्रतियाँ गी० 'क' तथा गी० 'ख' में प्राप्त असमानताञ्रों पर 
निम्न शीर्षकों में विचार किया जा सकता है-- 


(!) स्वर परिवतंत और स्वर संधि--उपयु क्त प्रतियों में यत्र-तत्र स्व॒र 
संबंधी परिवर्तेत मिलते हैं-- 

(अर) ऐ“»अइ, अ्रय; यथा-सबे >>सबद (..0); गावे>गावहि (.4.); 
बेनी>>बयनी (.8.); जेमाल“४जयमाल (.96.); वेर“८वयर 
(2.46.6); छिरक ““ छिरकाह (7.22.3) 

(गआ) ओ“:ए; यथा-जनायों, सुहायो >”जनाएं, सुहाएं (.6.8) 

(इ) ऑऔं०-ऐ; यथा-समौ“” सम (6.4.2) 


& 


(ई) ओ८“अब; यथा-सुहो:-सुहव (7.8.5 | 


उपयु क्त असमानताओों का अध्ययन जब समानताओों के संदर्भ में करते हैँ 
तो ये क्षेत्रीय रंजन के अतिरिक्त कुछ नहीं रह जाती हैं क्योंकि दोनों हस्तलिखित 
प्रतियों में अं है-प्रेही, सुनिश्ने, पठ, अनाम, जैश्नं सदश अनेक शब्दों की सर्वाधिक 
आवृत्ति है। दोनों प्रतियों में औध' का लेखन अवध' के स्थान पर, औसर' और 
'राधो' का लेखन अवसर! और 'राघव' के स्थान पर मिलता है। इससे भावात्मक 
गठन पर कोई असर नहीं पड़ता, परिनिष्ठित ब्रज में इसका सामान्य प्रचलन है। 


6 गीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 


ये रूप-वैविध्य के अन्तर्गत आते हैं । यही बात (आ); (इ) भौर (ई) के लिए 
भी समान रूप से ठीक है । 

(2) एक पदग्राम्त अथवा वाक्य के स्थान पर भिन्न पद ग्राम अथवा वाक्य- 
एक ही अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए दोनों प्रवियों में भिन्न-भिन्न पद श्रथवा वाक्य 
के प्रयोग मिले हैं; यथा--पिकवबती “22 विधुवयनी (.8.); तिशअ्रनि£“८बैश्रनि 
(.07.3 ); सुष मयंक 22 मुख पंकज (2.6.2 ) ; कोटि भ्रनंग >2सत अनग (2.7.); 
त॑सिश्न“वैसिश्र (2.20,.2); छवि विगार सोभा इक ठौरी“:क्षवि सिगार उपमा 
सोउ थोरी (.05.2); अजहुं अ्रवनि विदरत दरार मिस““गश्रवनि न विहरति दार 
वचन सुनि (2.2.2); करों बयारि विलंविय विठपतर “”करौं वाउ मंग बैंठि 
ब्िटपतर (2.3.2); रूप पारावार”“”रूप के ने पाराव'र 2.26.2); निफन 
मिराए विनु “2 नीके न निरए बिनु (2.32.2); विसाल भुजवर८:विसिष कंजकर 
(2.45 2); मानो पेलत फाग्रु मुद मदन वीर०“मानों फाग्रुन सुदित पेलें मदन वीर 
(2.48.); मेरो जीवन जानिग्न भ्रसोइ जिग्नै>०मेरों पुति जीवन जानिय जिय 
जैसे (2.7.3); सुजनहि सुजन सनमुप होइ>:सृजन सुतर सुष होई (5.5.4); 
आपु काढ़ि साढ़ी लई-“आपु काढ़ि मिस साढ़ि लई (5.37.2); छेम कुसल“<कुसल 


क्षेम (5.36.3); पहिरे पट भूषण सरस रग:“भूपरणा पट समय सरिस सुरंग 
(7.22.4 ) 


इन वैपम्यों के निम्न क रण संभव हैं-- 
() क्षेत्रीय प्रभाव जैसे-तियनि”: वैग्यनि, तैसिश्न ““वैसिद्र आदि में है 
(2) पढने की अशक्ता अथवा अ्रर्थ सामीप्य-यथा-पिकवैनी 2८ विधुवयवैनी, 
कोटि... सतं, मयंक छवि०: पकज छवि आदि में है-- 
(3) लिपिकार की प्रवृत्ति यम के प्रयोग की ओर दीख पड़ती है जिसके कारण- 
स्वर, वाक्यांश आदि परिवतेन हो गए हैं । 

(3) लोर--कुछ स्थानों पर गी० 'ख' में कुछ शब्द व पंक्तियां छूट गई है 
यथा-सुतिय"**““फंग हैं-तक तीनों पंक्तियां नहीं हैं। (2.27); वरपि""“““तरिगे- 
तक पूरी पंक्ति नहीं है (2.32.4); चितवत"“““आए-्तक पुरी पंक्ति नहीं है 
(2.86.3); अमिय"“"““जालु तक पूरी पंक्ति नहीं है (5.3.) सुचु"४ह 7 
बुझायो-तक पक्ति नहींहै (6.4. ! ); परी "४ हनुमान-तक पंक्ति नहीं हैं-(6.9.9) 
हित सहित राम “ हितरास (6.22.)); श्ररुण वरण पद पंकज'““अ्ररुण 


7 


चरण पकज (7.2.3) जैसे प्रयोग मिले हैं--- 


, इस लोप की प्रवृत्ति का कारण लिपिकर्ता के प्रमाद अथवा किसो सांस्कृतिक 
श्रादर्श का सकेतक है। 


हस्तलिखित प्रति क' और 'ख' में निम्न रूपों में साम्य है-- 
(कर) य के स्थान पर अ-यथा-भैआ, मँझ, जुन्हैआ, लुटैग्ना 
(शा) ईकारान्त ब० व० याँ के स्थान पर आँ-यथा-पैंज निश्राँ, नथुनिओआऔँ 


वैज्ञानिक पद पाठ 


(इ ) सामान्य ब० व० न के स्थान पर रह-यथा-तैन नह 
(ई) आकाराच्त वि० रु० में ए-यथा-प्राणपिआरे 
(3) ए के स्थान पर अ्र-यथा-श्रसो-- 


निष्कर्ष --उपयु क्त दोनों प्रतियों में प्राप्त साम्य और वैषम्प के आधार पर 
यह निष्कर्ष निकलता है कि दोनों प्रतियाँ एक कुल की नहीं हैं श्रीर गी० 'ख” प्रति 
गी० 'क' प्रति की प्रतिलिपि नहीं है क्योंकि 'ख' प्रति में वालकाण्ड के 30 और 
3] वे पद के मध्य एक अतिरिक्त पद है जो 'क' प्रति में नहीं है संभव है 'ख” प्रति 
की आादशे प्रति कोई और हो और उससे उसकी प्रतिलिपि हुई हो । श्रतः 'क' एवं 
ख! प्रतियां अलग अलग कुल की प्रतियां लगती है । 


.2.,2, “का; 'ख' और “ग' हस्तलिखित प्रतियों का तुलनात्मक प्रध्यपव 











श्र-श्रसमाचताएं 
काण्ड पद पंक्ति गी का गी खा गी गा 

4.3.3 जात करम जात करम जात कम 

.3.4 डूब दधि रोचन. दूव दि रोचन दूव॑ दधि 

.4. गावें गावहि गावें 

.4. जायो जाया जायउ 

.45.]. इक ओर इक ओर यूक बोर 

].45.] भरत भरत भर्थे 

.47.] चहत महामुनि चह॒त महामुति महामुनि चाहत 

.48.] सुकृत फल सुकृत फल सुकृत के फल 

.60.2 सुकर सुकर स्वृकर 

.06.2 इतनोड, लक्यो इतनोइ, लक्यों आजु_ यतनो लषि पै जो 
आजु 

4.08.0 कह गाई कह गाई श्रूति गाई 

.09.] झुजनि पर जननी पुजन्ति पर जननी जननि वारि फेरि 
वारि फेरि डारी बांरि फेरि डारी भुजनि पर डारी 

3.3.4 राधो राघो श्री राघव 


3.3, . श्रों (लीनहों,  ओों (लीन्‍्हों, दीन्हों) ए(लीन्‍्हे, दीन्‍्हे) 
दीन्हों) 


8 


काण्ड पद पंक्ति 


3.5.] 
5.29., 
> 34,] 
5.35.3 


5.355 
3.36.2 
5.38.2 
5.40.] 
5.40.] 
5.42.2 
5.43,] 
3.43 3 


5.46.2 
7.43.2 


4.38.4 
7.38.4 
7.38.2 
7.38.4 
7.38.8 


काण्ड पद पंक्ति 


35.29.3 


3.39.6 


गो प्त 


गीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 





गीशख' गी गे 





दियों हों, जियों हों दियो हां, जिया हों. दिए हैं, जिए हैं 


आदि 


भगतनि को हित 
कोटि 

सोड 

भयो 

ओर वचों 

कक्‍्बोंन 

चारयों 

निब्ह्यो 

सुनि श्रवन हीं ताय 
प्रनतपाल,करुणा- 
भिधु सेवित 

कोन 

सेल ते धंसि जनु 
जुग 


शआादि आदि 
मेरे मोरे 
पदपदुम प्दपच्य 
आइ हैँ आय हैं 


भगतनि को हित कोटि भक्तन को सतकोटदि 


सोड तव 
भयो भये 
औ्रोर तें वोरतें 
क््योंन किमिन 
चारयों चारिउ 
निवद्यो निवहै 


सुनि श्रवन हों नाथ. सुनि हे नांथ हीं 
प्रनतपाल, कबव्णापिधु प्रततपालक करुणा- 
सेवित यतन होवक 

कौन कवन 

सैल तें, वंसि जनु जुग सयल तें घंसी जिमि 


गावहि सकल गावत शकल 
ब्रह्म श्रज ब्रह्म स्व 
सापवस श्रापवस 

एक नयन कोीन्‍्हों येक नयन कीन्‍्हे 
लक्षमण लक्षन 


आ० समानताएं 


६०७०-3..--++-++प.४७ ४» +प ७४५७७.» ५७५५५» «५» 3०, 


श्र 
£]॥ गी ड़ 





गो ] ख्‌ न्‍ ्ग गी ४. ग है 





दोनों पंक्तियाँ नहीं दोनों पंक्तियाँ नहीं हैं दौनों पंक्तियाँ नहीं हैं 


४॥ /0॥: 


से 


असे असे 


वैज्ञानिक पद पाठ 9 


निम्नलिखित प्रतियाँ गी का, गी खा और गी “गः में प्राप्त बैविध्यों पर 
निम्त शीर्षकों में विचार किया जा सकता हैं 


(१) स्वर परिवर्तत और स्वर संधि--उपयु क्त तीचों प्रतियों में यत्र-तत्र स्वर 
संबंधी परिवर्तत मिलते हैं--यथा करम ०:करम “2 कर्म (.3.3); इक”: इक ““ यक 
(.45, );-- ८४एक“<येक (7.38.4); आहइहैं::आहइहैं2श्राय हैं (5.34. 
दियो हों: दियौ हों-८दिए हैं (3.4 ); भयो ०“: भयो““ भए (5.36.2 ); ओर ०८ 
ओर”“<:वोर (.45.] तथा 5.38.2); सैल>“सेल >> सयल (7.]3.2 ); कौंत 2: 
कौंन “2 कवन (5.46.2); राधो“< राघो “: श्री राघव (3.3.]); चारयो “: चारयो 
““चारिउड (5.40.]); भरत““भरत““भर्थ (.45.); सुकर”“सुकर““स्वकर 
(.60.2); भगतनि““भगतनि:“भक्तत (5.35.3); पदुम””पदुम>४प्त्च 
(5.29.] );---2: सापवस”< श्रापवस (7.38.2); दुव““दुव ““दुवें (.3.4) 


उपयुक्त स्वर वैविध्य से निप्कपे यह निकलता है कि जहां पर गी 'का व 
गी 'ख' में इ। ए; ओ; ऐ; औ; स्वर हैं उनके स्थान पर गी 'ग' से ऋ्रमशः य; ये; वो; 
अय; भ्रव; या आव के प्रयोग मिले हैं लेकिन इन असमानताओं के सवंध में एक 
निश्चित नियम नहीं बताया जा सकता क्‍योंकि गी 'ख' में जहां “ओ” का प्रयोग अ्रव 
के स्थात पर मिला है यथा राघो, जायो ब्रादि में वहां उसमें 'सुहो' के स्थान पर 
'सुहव, का लेखन भी मिला है । 

इसी प्रकार गी. “ग' में जहां ओर के स्थान पर “अब' का प्रयोग है वहां उस 
में श्रौरो, आयो आ्रादि का लेखन भी औरउ, झ्रायउ के स्थान पर मिला है अतः ये 
असमानताएं लिपिकार की लेखनशैली अथवा क्षेत्रीय आदत के फलस्वरूप संभव हैं 
क्योंकि कन्नें के अनुसार “प्रतिलिपिक शब्दों की प्रतिलिपि करते हैं न कि वर्णो की!” 
(देखिए भारतीय पाठालोचन की भूमिका पुष्ठ 24) 

गी 'ग! में करम, दूव आदि के स्थान पर कर्म, दुर्वे आदि का लेखन है इसका 
कारण स्वर भक्ति का लोप हो सकता है लेकिन भरत” के स्थान पर 'भर्थ' का लेखन 
भष्ट पाठ प्रतीत होता है | इसी प्रति में “इ! के स्थान पर 'य! और ओ' के स्थान 
पर वो” पाठ मिलता है जो पूर्वी भाषाओं के प्रभाव का परिरणाम है । 


(2) एक पदग्राम, वाद्य के स्थान पर भिन्न पदग्रास, वाक्य 
आलोच्य प्रतियां गी 'क', गी ख' एवं गी ग' में पदग्राम अथवा वाक्य संबंधी 
परिवतेत इस प्रकार हैं-- 


चहत महामुनि “2 चहत महामुन्ति -“महामुनि चाहत (.47.] ); सुकृत फल 
“-सुकृत फल ““सुकृत के फल (.48.); लहयो आजु ०: लहयो आजु०“लपि प॑ जो 
(.06.2); कह22 कह“: श्रूति (.]08.0); भुजनि पर जननी वारि फेरि डारी 


20 गीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 


“2 भुजनि पर जननी वारि फेरि डारी०2जननी वारि फेरि भुजनि पर डारी (4.0 
9.7); हित कोटि>2 हित कोटि“४सत कोटि (5.35.3 ); सुनि श्रवन हीं नाथ”: 
सुत्ति श्रवन हों नाथ ““सुनि हे नाथ हों (5.43.); प्रततपाल करुणार्सिधु सेवित£“८ 
प्रशतपांल करुणासिधु सेवित““प्रततपालक करुणायतन शेवक (5.43.3); धंसि 
जनु जुग 72 धसि जनु जुग““घंसी जिमि (7.3.2);---:2गावहिं सकल““गावत 
शकल (7.38.); -->“अज“<स्वे (7.38.); लछिमन“:लक्षमण “:लक्षन 
(7.38.8); 

एक शब्द के स्थान पर प्रतिस्थानी रखना, अथवा क्रम-भंग के प्रयोग लिपि- 
कार के दृष्टि-दोप श्रथवा असावधानी के कारण हो सकते हैं, अथवा यम के प्रयोग 
के कारण कहीं कहीं व्यतिक्रम है । 

निण्कर्ष-- उपयु क्त तीनों प्रतियों के तुलनात्मक अध्ययन के पश्चात्‌ यह कहा 
जा सकता है कि 'क' और “ग' प्रतियों का कुल एक है यद्यपि 'ग प्रति 'क' प्रति की 
पूर्ण प्रतिलिपि नहीं है। इसमें किसी विशेष भावना (संभमवतः नियमित पाठ के 
प्रयोजन) से चुने हुए पचास पदों को ही लिया गया है लेकिन ये प्रति 'क' प्रति से 


अधिक मिलती है इसमें 'ख' को असावधानियां नहीं मिली हैं अतः 'क' शझौर गा! 
प्रतियां एक कुल की हैं । 


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७ &४ ४ रह 
४ ॥॥2५0|४ (॥२ 
४।३॥४४... िल 
29॥08 
48% /2/2|0 >8५ 2 
9 >(७ 8०४ 
22९)2/४ 
>७ ४४७ ((200802 08/20& 
24% 
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ज्ञानिक पद पाठ 


वे: 


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20४३) 203/% 
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32] ४७७ 82) ॥20५ ॥2॥8 
$28 ह॥2 ५ ५ 


है 3॥72॥४७ [॥28 

2] 2208 ३॥२ 
2०५ #४ 3॥५ मिले 
३ 208५ है २०१४ 


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>38 3.3 ।३)३)॥३)2 5)206 
8]8।॥॥ 

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४४४] ४02) 
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है १४४९७ [जे 3०४ 
8%8॥983 ....४] ४; 
]983,/%]|0 

किक ४७ 3]% फिछे 
५ 20४६ है ेर॥8 

3०2] 809 

239 2) /३॥23)3)2 )802)8 

305 

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॥2)2008॥% क४७2)2>22 4फ स्‍॥02]8 प+ हि 24. टम 2 ५, ध्दा 


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४३) ४४ 809: 


गीतावली का भाषा शास्त्रीय श्रध्ययत्र 


24 


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॥७४-॥४४|४ ॥७४॥५४ कधत 
3-2) ४५४ धव 
4#-॥8७ 4४8 6 
८ 8 ६४. धो७ 2४ 20% 


कमी आस फनी असल मन जल न आकलन आय न >34+ 5५४5८ 0३50 74+ ५४ एप 


0002009/3--2% 


वैज्ञानिक पद पाठ 25 


हस्तलिखित प्रतियां 'क', ख', ग', 'धघ में प्राप्त वैविध्यों पर निम्न शीर्प को 
में विचार किया जा सकता है । 


(।) स्वर परिवर्तत और स्वर संधि--उपयु क्त चारों प्रतियों में यत्र-तत्र 
स्व॒रसम्बन्धी परिवतेत मिले हैं उन्तमें “ग' प्रति के उदाहरण बहुत कम हैं क्योंकि इस 
प्रति में प्रतिलिपिकार द्वारा केवल पचास पद बीच-बीच के लिए गए हैं और जहाँ 
जहाँ “'घ' प्रति में प्रसमानताएँ हैं वे पद “ग प्रति में नहीं मिले अत: इनकी संख्या 
अति स्यून है-- यथा--सर्वै>2सबइ>2सर्ब॑ (..0); गावैं००गावहिं”“गा्वें ०: 
गावें (.4.); जै जे जै जैति-:जय जय जय जयति“<जै जै जे जैति (.38.3); 
औन, मैन ““ अ्रयत मयन ““अन मैन (7.3.); फूर्लाह फुलावहि 2£ फुर्लाह झुल्ावहि ०: 
भूलें भूलावें (7,8.5); उजिश्नारे, दिद्ना2“उजियार, दिश्वा “2 उजियारे, विश्ला 
(.68.-]]) सुझन मुझन”“सुबत सुवत”““सुअन भुश्रत (.83); जाइके, 
ग्रधाइ के ०० जाइके, अधाइक “2 जाए के, अधघाए के (.70); श्राइ->आ्ाइ““आआाए 
(5.3.]); लाय>लाय“४लाए (6.5.); करि आई“: करि झाई“०:करि आए 
(7.3.9); तुम्हारे “2 तुम्हा रे”: तुम्हारो (7.38.); ग्रगनित “2 अ्रगनित 2० भ्रग्तित 
(2.5.4); मरम निसिचर८“मरम तिसिचर““म्म निष्चर (6.3.-3 ) 


प्राप्त बैविध्यों के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि जहाँ “कं प्रति में 
ऐ तथा मध्य में आ; इनय स्वरों का लेखन है 'ख” प्रति में उन स्थानों पर क्रमशः 
अइ; मध्य में य; व स्वर हैं और “घ' प्रति में क्रशः वहाँ ऐ, मध्य में अर; ए स्वरों 
का प्रयोग है। पूर्वे अध्ययन के श्राघार पर “ग' प्रति में भी क्रमशः “क' प्रति के इ के 
स्थान पर य; ऐ के स्थान पर भ्रय; औ के स्थान पर अव का लेखन मिलता है । 


इन स्वर परिवतंतों के कारण पदों के भावात्मक गठन और भ्र्थ व्यवस्था 
पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता है। ये परिवर्तत तो लिपिकार की प्रादत के 
अनुसार हो सकते हैं इसके श्रतिरिक्त लिपिकार की लेखन शैली व उसकी क्षेत्रीय 
प्रवृत्ति आ्ादि कारण भी इसमें सहायक हो सकते है क्योंकि ज्राह्मी लिपि की भी तो 
श्रनेक शाल्ाएँ हैं और जो प्रतिलिपि जहाँ हुई है वह उनसे प्रभावित हुए बिना बच 
नहीं सकी है। घ॒' प्रति में सर्वत्र भ्रल्प, निश्चर, आक्षति, वर्नत, गुविनी, पसे 
झ्रादि अनेक इस प्रकार के शब्दों का लेखन अलप, निसिचर, श्राकरपति, 
वरनत, ग्रुढविनी, परम आदि के स्थानों पर सिला है--इस अवृत्ति का का रख स्वर 
भक्ति का लोप हो सकता है जिसे उच्चारण की क्षित्रवा भी कहा जा सकता है और 
जो क्षेत्रीय प्रवृत्ति प्रतीत होती है । 

(2) एक पदग्नाम, वाक्य के स्थान पर भिन्न पद ग्राम, वाद्य अथवा लोप 


हस्तलिखित प्रतियाँ का खा झौर में निम्नलिखित असमानताएँ 
मिलती हैं-- 


26 गीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 


अनरसे हैं भोर००अनरसे हैं भोर >> अनरसे भोर (.2.] ); सिसु करि सब 
सुमुख सोआइहौं>2 सिसु करि सब सुमुख सोझाइहों>2सब सुझ्न सुचित सुप सवाई 
हो (.2.]); छोटिश्रि“:छोटिग्रेट:छोटों सी (.44.]); श्रटनि श्ारोहँँ०: 
श्रटनि आरोहैं->अटनि अवरोहँ (.62.4); प्रारा पियारे०० प्राण पियारे”८प्रानहु 
तें प्यारे (.68.2); पेषतों सो पेषन”“पेषनों सो पेषन““पेपल को पेपत 
( .73.] ); के ए“:के ए“'कीये (.78.2); मुदित““मुदित “2: प्रमुदित 
(4.0.); मुरागी““मुरारी ““असुरारी (2.4.5); मोको““मोको“<मोकहें 
(2.42. ); हिय >: हिय >: हुद (2.84.3 ); तौनौं>० तौलों>2 तौलगि (5.4. ); 
नीच तें नीच“2 नीच तें नीच“४मीच तें नीच (5.5.3); सरसावति>०“ सरवसति ०: 
सरवसति (7.7.5): हँसनि"“हलराइ .हों, दोनों पंक्तियां हैं: दोनों पक्तियां हैं०: 
दोनों पंक्तियां नहीं हैं (.2); रिपिवर'“'अलिंगरिनी तक शआ्राठ पंक्तियां नहीं हैं”: 
आठो पक्तियां नहीं हैं“>आठौ पक्तियाँ हैं (2.43); कपि"““छायो-तक प्रथम दो 
पक्तियां हैं“: दोनों पंक्तियां हैं: दोनों पंक्तिया नहीं हैं (5.5.) 

पूर्व प्रतियों की तुलना में गी. “बः में प्राप्त अ्समानताओं पर निम्न रूपों में 
विचार किया जा सक्ता है-- 


लिपिजन्य विकृति--'क! एवं ख” प्रति के 'पेपनों सो पेषन” के स्थान पर 
गी० “घ'* में 'पेपन को पेपन! पाठ मिला है यथा--“पेपन को पेपन चले हैं पुर नर 
नारि” (.73.]) अर्थात्‌, नगर के नर नारी पेपन को पेपत-- अ्रलौकिक रुश्य को 
देखने के लिए चले हैं-पाठ अधिक श्रेष्ठ है अपेक्षाकृत पेपन (तमाशा) सा 
देखने के-- 

गी. 'क व ख' के नीच के स्थान पर गी. 'घ' में 'मीच' शब्द का प्रयोग है 
यथा “मीच तें नीच लगी श्रमरता” (5.5.3) भावार्थ है कि हनुमानजी को अपनी 
अमरता मृत्यु से भी बुरी लगी--गीता प्रेस गोरखपुर की कृति में भी भावार्थ यही 
लिखा है यद्यपि उस में भी 'नीच' शब्द प्रयुक्त है। लिपि भ्रम के कारण सब प्रतियों 
में 'भीच' के स्थात पर 'नीच हो गया लगता है--अश्रत: 'घः प्रति का पाठ 'मीच” ही 
अधिक उपयुक्त है । 

पर्याय--क' व ख' प्रति में प्राप्त छोटिश्; प्राण पियारे; कैये; मुदित; 
मुरारी; मोको; हिय; तौनौं और श्रारोहैं के स्थान पर “ध' प्रति में क्रशः छोटी सी 
(छोटी सी घनुहियाँ .44.); प्रानहुँ तें प्यारे (तुलसी के प्रानहुँ ते प्यारे 
.68.]2 ); कीये “ कीये (कीये सदा वसहु इन्ह नैनन्हि को ये नैंन जाहु जित ये री 
.78.2 ); प्रमुदित (प्रमुदित मन आरती करें माता .0,); असुरारी (फिरि 
फिर आवन कह्यो असुररी 2.4.5); मोकहें (मोकहँ विधुवदन बिलोकन दीजै- 
2.2.] ); हृद (मेरोइ हृद कठोर करिवे कहाँ बिधु कहूँ कुलिश लब्यो (2.84.3); 


वेज्ञानिक पद पाठ 27 


तो लगि (तौ लगि मातु आपु नीके रहिवो 5 4 ); अवरोहै (लोग अटनि अवरोह 
] 62.4) पाठ मिलते है-कहता न होगा कि ये सभी पर्याय ह अतः दोनों हा 
पाठ सभव है । 

स्थानविपयेय - गी 'क' मे प्र प्त 'सरसावति' के स्थान पर गी० 'ख एवं 
घ' में 'सरवसति' पाठ मिलता है यथा-(पीतन बसन कटि कसे सरवसति 7 7*5) 
भावार्थ है-- कटि मे कसा हुआ पीत बसन सुशोभित हो रहा है । सरवसत्ति' शब्द 
का अर्थ यहाँ सगत नही लग रहा है भ्रतः प्रस्तुत पाठ 'क' प्रति का 'सरसावत्ति' ही 
उचित है-अनुम।न है-स्थानविपर्यय से सब के स्थान में 'वर्सा हो गया है जो 
प्रतिलिपिकार की भूल के कारण समव है । 

लोप -'घ प्रति मे यत्र-तत्र शब्दों व वाक्यों का लोप हो गया है यथा- 
]-]2*-] से है! का लोप, हँसनि"*४* हलराइहो तक दो पक्तियों का लाप "2] 
में कि *"**** छायो तक प्रथम दो पक्तियो का 5"5*3 में लोप मिला है-ऐसे 
लोप लिपिकार के प्रमाद के कारण समव है, अथवा उसने जानवृककर उन स्थलों 
को छोड़ दिया है, प्रतिलिपि मे स्थान नहीं दिया--कहना कठिन है । 

समानताएँ---हस्तलिखित प्रतियाँ 'क', ख, ग, घर से तिम्त रूपो में 
समानताएँ मिली हे-- 

(अ) य के स्थान में अ-ण्था मैआ, सैश्ना- 

(आ) ईकारान्त ब० व०-याँ के स्थान में, ऑ-पैजनिआरँ "* “** 

(8) ऐ के स्थ'न में श्र -यथा-अ न, अ्रहै"*'*** 

(ई) सभी प्रतियों में 5293 की दो पक्तियों का लोप "“* 

लिषक्षएें--यद्यपि सभी प्रतियों मे कुछ-कुछ समानताएँ व ग्रसमानताएँ मिली 
है जिनका कोई विशेष कारण प्रतीत नही होता लेकिन 'घ प्रति मे 2 43 वें पद मे 
द्वितीय व तृतीय अतरा (श्राठ पक्तियों) अधिक मिली हैं जो अन्य पूर्व प्रतियो मे 
नही है उत प्रतियो मे केवल प्रथम व चतुर्थ अतरा ही मिला है। गीता प्रेस गोरखपुर 
एकादश सस्करण की प्रति मे भी “घ' प्रति के समान ही 6 पक्तिया श्रर्थात्‌ चारौ 
अतरा मिले है, फिर भी इस अतर को छोडकर ये 'का प्रति “ग प्रति सेसाम्य 
रखती है। अतः यह कहा जा सकता है कि यह प्रति “क' से मिलती है 
यद्यपि इसकी कुछ अपनी विशेषताएँ है झ्रतः ये एक ही झ्रादर्श की प्रतियाँ हो सकती 
हैं और एक दूसरे की पूर्ण प्रतिलिपि नही हैं । 














्ि ९३७ ९5 एप्प 8206 ९७. 88६4, 

ड्ि छिक ॥०॥६ हे /8॥8 5 [8६४ 

कु (३४३, २ (2।ह+ड # 588 ६४५४ “्- ]'8६'/ 

5 *३६ 485९ रा #् कु ८५'9 
7 

हे (न ४४७ - पेड 23. 7%"9 

है ४४४०४ >|२ है 80७५४ ॥५५ -.. है 0४५७ ४» है £७२४ ॥५७ 75६५ 

ि 3] ४॥६॥5] 28/]५ न ड]20॥0) 2%॥]8 दफा ५ 

ध 0६ ६ न +9/8 ०) ६'८॥'६ 

22% (२ 22५ ॥॥५ (४४ -. ४४५४ ॥।५ ॥॥४ 22५४ ॥॥५ ॥॥४२१ ८'टा'६ 

कि ॥8 ८ 30% 88 ४६ 

है है -- £३ श्प्ड ८६ 

हक हि ( 2 ८8, ४२)४ 20 20% 


93)2/0908-48 


28 


४४888 ४४३॥)2॥२२ 3%. [2]8 200]/8४३४ /७, >]8 (8, ५) 


(७, (४, 79 ट' 


कि 


) 





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| 


शडः 
८ 


॥| 


क्रॉ-- समा 


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क्पर पाठ 


क्राण्ड पद पंवित क्र 


अन्तन्‍न्‍्क 


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5.9.) 


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(६7 8९३| 


दु 


श्ः 

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+ 

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द्ःः 


| मंतिया र 


| नह्तों 


| पंक्तिय 


 दोने 


हि 


38 
९ 


भर 
। 


| 


हर 


पट 


छाया ते 


[ 


गा 


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| 


मं, 


मिद्ाई 


बाए 


भर 
किया 
बच 


$र 


बंदर 


हि. र्छि मर 


रे दे पड 


| दग प्र4 


ता! 


घ और वां में प्राप्त श्रममा 


30 गीतावली का भापा शास्त्रीय अध्ययन 


दोउ>:दोउ>2--““दोउ ““द्वौ (3.4.2 ) 

गीघ“ट“गीघ-ट>-“<गीघ >“ गृद्घ (3..4 ) 

वेप>:वेप०2-- 2“ वेप “>> भैष (3.]2.3) 

जीअ्रत “2 जियतहि ०: --- ०: जीअत 2“ जिश्रतहि (5.4.2) 

इतो 2“ इते ०: --““ एतो ““ इते (6.4. ) 

--2: तुम्हारे “: तुम्हारे “2 तुम्हारो -“ तीहारो (7.38. - 

औरो “४ भ्ोरेहुट: औरो >> औरो “० औरो (7.38-8 ) 

रज परमानु “० रजपरमानु८:-- ““ रजपरमानु “: तरपरवान (7.35.4 ) 

निज“४निज>:--“:४ निज 2: निसि (6.)7.2 ) 

--““४अ्रज 22 स्वे“>अज ““ प्रमु (7.38.] ) 

हुतो जो सकल>”“हुतो जो सकल”“2--““हुतो जो सकल“: हुतो सकल 

(3.2 2) 

ऊपर “च' प्रति में यत्र-तत्र स्वर संबंधी परिवर्तत मिले हैं लेकिन इस प्रसंग 
में कोई निश्चित व्यवस्था प्रतीत नहों होती ऐसे वविध्य तो क्षेत्रीय प्रवृत्ति अथवा 
लेखन शैली के कारण संभव हैं । 

एक-दो स्थान फर “च प्रति में लिपिश्रम या स्थान विपयेय के कारण कुछ 
परिवर्तत हो गए हैं, यथा-- 


पूर्वे प्रतियों के 'रज परमानु' के स्थान पर इस प्रति में तर परवान पाठ है 
यथा - “जतमुन रज गिरि गति, सकुचत निज गुन गिरि तर परवान है” (5. 35.4) 


यहाँ 'परमानतु और 'परवान', का अर्थ समान है 'रज' के स्थान विपयेय से 
(जर श्रौर 'ज' में त' का भ्रम होते के कारण “तर प्रयोग हो गया है--संदर्भ के 
अनुसार 'रज परमानु' पाठ उचित ही लगता है, 'तर परवान' की अपेक्षा-- 


पूर्व प्रतियों के “निज के स्थान पर इस प्रति में 'निसि! प्रयोग है यथा 
“निसि वासरनि वरप पुरवेगो विधि, मेरे तहाँ करम कृत क्वेहैँं” (6.7.2 ) 


यहाँ वासरनि वरष' के साथ “निज! की अपेक्षा 'निसि! का प्रयोग सार्थक 
है । संभव है पूर्व प्रतियों की मूल प्रति में लिपिश्रम से “निज' प्रयोग हो गया होगा और 
वही बाद की प्रति में चला श्रा रहा होगा। इस में प्रतिलिपिकार ने त्रटि सुधार 
कर लिया होगा । अतः “निसि” पाठ हो गया है अतः यही उपयुक्त पाठ है पु 


गी. ख' के अज' के स्थान पर 'ग' प्रति में 'स्वै! पाठ व 'घ' प्रति में अज' 
पाठ मिलता है | “च' प्रति में उसके स्थान पर प्रभु का प्रयोग है । 'क' प्रति में पृष्ठ 
फटा होने के कारण यह पंक्ति नहीं मिली है | गीताप्रेस गोरखपुर की प्रति में भी 
'अज' है यथा--“अतति उदार अवतार मनुज बपु बरे” 


वैज्ञानिक पद पाठ डा 


ब्रह्म अज अवितनासी (7.38 ॥) 

अज', स्व; 'प्रम'--तीनों पर्याय हैं सभी ईश्वर के आथे में प्रयुक्त हैं अत्तः 
संभव प्रयोग है-- 

अन्य प्रतियों के 'हुनों जो सकल जय साखी” के स्थाव पर “च प्रति में हुतो 
सकल जग साखी' (3.2.2) प्रयोग मिला है। यहाँ 'जो का कोई अर्थ भी नहीं 
है, शायद सुधार कर लिया गया होगा । 

निष्कर्ष --च' प्रति खडित है और 247 वें पद अर्थात्‌ गी० गो० वाली 
प्रति के अरण्य काण्ड के ६ वे पद से प्रारम्भ है | इस प्रति के अच्तिम पद की संझ्या 
334 है जबकि पअन्य प्रतियों में 330 पद हैं ग्रौर बढ़ा हुआ पद भी अरण्य काण्ड के 
]] वें पद के पूर्व ही है अन्य प्रतियों के अनुसार (बा० ]0+अयो० 89 + शर० 
]5--20) अरण्य काण्ड के । के पद की संख्या 20 होनी चाहिए, निश्चित है 
कि बालकाण्ड अथवा अयोध्याकाण्ड में एक पद की वृद्धि हुई है। किसी भी प्रति 
(य! प्रति को छोड़कर) मे अ्रयोप्याकाण्ड के पदों की सख्या असमान नहीं है । 
'ख्' प्रति में बा० मे 30 वा पद अच्य प्रतियों से अधिक है (यच्यपि इसमें 30 के बाद 
के दो पदों को 3] नवर ही डालकर बानकाण्ड मे / पद ही किए गए हैं) भतः 
ये संभावना हो सकती है कि “च' प्रति और 'ख' प्रति एक ही कुल की प्रतिलिपि हों 
और यहाँ प्रतिलिपिकार ने उसे अलग-प्रलग नंवर देकर बालकाण्ड में ][ पद कर 
दिए हों । यदि ऐसा है तो ये प्रति 'ख' प्रति के कुल की मानी जाएगी और इस 
प्रकार 'ख' और “च' प्रतियाँ एक कुल की कही जाएंगी । 


गीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 


32 


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गीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 


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वैज्ञानिक पद पाठ 


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35 


गीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 


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वैज्ञानिक पद पाठ 37 


हस्तलिखित प्रतियां क', ख' गा तर 'च' और छः में प्राप्त वैविध्पों पर 
निम्न शीर्पकों में विचार किया जा सकता है-- 
(!) स्वर परिवर्तत और स्वर सघि--पूर्व प्रतियाँ 'क' 'ल' गा 'ध और 
च' की तुलना में छः प्रति में प्राप्त स्वर परिवर्तत व स्वर संधि इस प्रकार हैं-- 
(प्र) भर ग्रथवा अय के स्थान पर श्र का प्रयोग यथा-जैमाल (.96.); 
वेंस (2.20.); पै (2.43.); वले (7.78.5); समे (7.20.); किसले 
(7.2.3); 
(आ) ओ भ्रथवा श्रव के स्थान पर आ्रौ” का प्रयोग यथा-बढ़ौ (.2.0); 
झतार (4.47.2); जौ (.2.9 
(३) इ अथवा ए के स्थान पर यु का प्रयोग यथा-भ्राय (7.28.); येक- 
टक (.25.5); थेक (.88.5) 
(६) ओ अ्रथवा श्री के स्थाव पर 'वो' अ्यवा वा! का प्रयोग यथा-वोर 
(.45); वार (2.5.); 
(उ) जोइ अ्सोइ तथा दोउ के स्थान पर ज्वइ (2,62.3); अ्स्वइ 
(2.7.3) तथा हो (3.2.4 ) का प्रयोग 
(ऊ) कोड के स्थान पर क्यों (5.40.3 तथा 7.8.5) का प्रयोग 
(ए) अगनित आचरज, गिरमुनी, कुचुमितर आदि के स्थान पर अख्ित 
(2.5.4); झ्ाचर्ज (.58.2); निगु णी (5.42.2): कुस्मित (7.2.3) आदि 
का प्रयोग । 
यद्यपे इस प्रति की पुष्विका से लिपिकार, लिपिकाल एवं लिपि स्थान में से 
किसी की भी सचना नहीं मिलती है फिर भी प्राप्त स्वर परिवतंनों के श्राधार पर 
यह कहा जा सकता है कि इस प्रति पर पूर्वी हिन्दी की बोलिणों की स्पष्ट फभलक है 
जैसे अ्रवधी के ही अन्तर्गत एक सीमित क्षेत्र जहाँ 'बैसवराड़ो बोली बोली जाती है वहाँ 
पर 'इ' अब्रथवा ए' के स्थान पर 'य और औझो' या झौ' के स्थान पर वो या वा 
का उच्चारण मिलता है। कोउ' के स्थान पर क्‍्यौं तथा ज्वइ श्रेस्वइ जैसे प्रयोग भी 
पूर्वी बोलियों के परिणामस्वरूप 
अय' के स्थान पर ञ के उच्चारण में एकरूणता नहीं हैं ज॑से-इसी प्रति में 
गाव के स्थान में गार्वाह (.4.); एके एक के स्थान में 'यिकहि येक' (.85.5) 
आदि प्रयोग भी विद्यमान हैं । 
अग्नित, आचर्ज॑, नि्यु णी आदि प्रयोग स्वर भक्ति के लोप का परिणाम है। 
(2) एक पदग्राम अथवा वाक्य के स्थान पर भिन्न पदग्राम अथवा वाक्य -- 
'ऋलत राम पालते सोहँ (.24 ) में अन्य प्रतियों के 'रूलत' के स्थान 
पर छः प्रति में हुलसत' प्रयोग है । यहां 'मूलत' पाठ उचित लगता है क्योंकि 


38 गीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 


पालने का संवध “ऋलते' से हुलसने' की अपेक्षा अधिक लगता है और सोहैं से 
और अधिक । 

पूर्व प्रतियों के 'सुपदसि' के स्थान में इस प्रत्ति में 'सुद्रिस' प्रयोग है यथा 
कंजदलनि पर मनहँ मौम दस बे श्रचल सुद्विस बनाई (.08.2 ) अर्थात्‌ मानों 
कंज दलों पर दस मगल ग्रह निश्चल होकर अपनी सभा बना कर बैठे हैं सदर्ति का 
श्र्थ सभा है लेक्नि द्विम का अर्थ 'डिशा है जो यहां संगत प्रतीत नहीं होता श्रतः 
सुसदसि पाठ हो उचित प्रतीत होता है । 

का व घ ग्रति में “निफन', 'ख! प्रति में 'नीकेन' तथा इस प्रति में “निफ्ल? 
प्रयोग मिला है वधा 'जोते विनु वए विन्‌ू निफल निराए विन (2 32.2) श्रर्थात्‌ 
“'सुकृत रूप खेत में सुख रूप धान बिता बोए, जोते और अ्रच्छो तरह तिराए हीफूल 
फल' गए! यहां 'नीके” और 'निफन! पर्याय हैं जिनका त्रर्थ है अच्छी तरह से लेकिन 
“निफल का अथ है “व्यर्थ! जो यहां संगत नहीं लगता अतः पूवे प्रतियों में प्राप्त 'निफन' 
ही अनुक्ल श्र्थ प्रतीत होता है । 

क' व घ प्रति में असत अजीरत को”, 'ख' प्रति में 'अमीसन अ्जीरन को' 
तथा “छ॑ प्रति में 'प्रासन अजीरन को” मिला है यथा आसत श्रजीरन को समुक्ति 
तिलक तज्यों पिपिन गवनु शले भूखे को सुनाजु सो” (2.33.2) अ्र्थात्‌ 'राम ने 
अजीर्ण के भोजन के समान तिलक त्याग कर भूखे के लिए नाज के समान वन-गमन 
स्वीकार किया' यहां दूपरी पंक्ति में 'सुनाजु” आया है श्रत: पूर्व पंक्ति में प्राप्त 'असन' 
ही भ्रविक उपयुक्त प्रतीत होदा है 'अमीसन' अथवा झसन' नहीं । 

पूर्व प्रतियों के “निरषति” के स्थान में इस प्रति में 'राषति? प्रयोग मिलता है 
यथा जननी निरषति बान धनुहियाँ वार-वार उर नैतनि लावति प्रभु जी की ललित 
पनहिपाँ! (2,52.]) यहां 'रापति' भी हो सकता है लेकिन अर्थ श्री भावुकता को 
देखते हुए 'निरषति' अपेक्षाकृत उपयुक्त प्रतीत होता है । 

अन्य प्रतियों के 'सीपर के स्थान पर 'छः प्रति में 'सिर पर” प्रयोग मिलता 
है यथा 'लायति सांगि विभीषन ही १र सीपर आपु भर हैं! (6 -5.4) अर्थात्‌ ,विभी- 
पन के हृदय पर शक्ति लगने ही वाली थी कि उसकी रक्षा हेतु आप ढाल (सीपर) 
बन गए यहां 'सिर पर” का कुछ औचित्य प्रतीत नहीं होता- शक्ति (सांग) का 
संबंध प्रत्यक्ष रूप से सीपर (ढाल) से लगता है झतः 'सीपरः ही उचित प्रतीत 
होता है । 

“गिरि कानन जेहेँ साखामृग हों रुनि अनुज संघाती' (6.7.3) में 'संघाती' 
के स्थान पर इस प्रति में 'सती' प्रयोग है-- अर्थ व छुन्द की इ्ंष्टि में 'संघाती' पाठ 
अधिक उचित प्रतीत होता है 'सतो' नहीं । 


(3) पर्याय --पूर्व प्रतियों के 'अगमी'; रंगभूमि वीछे वीछे'; 'पत को त मोह; 


वैज्ञानिक पद पाठ 39 


तिश्ननि'; नचहि'; 'पल बच विसिषन वांची; मेरो जीवन जानिय असोइ; अरुन 
कंज वरत चरन सोक हरन; अतिहिें; वुझायों; दई हाफ हनुम'ना और स्वें के 
स्थानों पर इस प्रति में आगम' ( ]7.] ); “रंगमुवन' (] 73.4); 'बाँछि वाँछि' 
(.84 3); 'प्रन कीन मोहि' (.86.5); 'वैश्ननि! ([] 07.3'; “नट॒हि 
(2.47 ]2); पल बचन विसिष नें बांची” (2.62.2); 'मोरे पुनि जीवन जानिये 
अर्वइ जिय जैसो अहि' (2.7.3); 'चरत सोक हरन अरुत कंज बरत” (3.5.]); 
अतिहिय' (5.9.]); समुकायों (6.4.); हहा कहा हनुमान! (6.9,9) ; 
तथा 'स्बै! (7.38.) पाठ मिले हैं । 

कहना ने होगा कि सभी प्रणेग एक दुसरे के पर्याय है जो लिपिश्रव अथवा 
स्थान विपर्यय के कारण हुए लगते हैं अत: एक के स्थान में दूसरे का प्रयोग 
संभव है । 

4) लोप--'ध्रति मे' अ्वसि राम राजीव विलोचन “([( 80) के पश्चात्‌ 

पंक्तियां चहीं है । 


सुन्दर भेखनि (35.2) तक एक पंक्ति लुप्त हैं। नगर रचना'"* 
2००७ १०००३४७०० विधि बृद (्‌ 7.23 2 तथ् मपरी ० रन्‍्०क9० न ७5 द्व द्द [ 7 23.4) तक 
दो पंक्तियां लुप्त हैं । 

मे लोप लिपिकार के प्रमाद के कारण हुए लगते हैं । 

निष्कर्ष --इक अति की लिखावट बहुत स्पष्ठ व प्रति सुपाठय है। अनुमान 
होता है कि ये प्रति !900 के बाद की है। अ्रत्य प्रतियों की तुलता में इस प्रति में 
अस्मानताग्रों के होते हुए भी ये अपनी पूर्व प्रतियों से ही मिलती है अतः यह कहा 
जा सकता है कि इस प्रति का न्ञोत क' प्रति या उस्ती के वंश की कोई प्रति 
है जिससे इसकी प्रतिलिपि हुई है अतः यह उसी कुल की प्रति है अन्य किसी 
की नहीं । 


गीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 


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वैज्ञानिक पद पाठ 





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गीतावली का भाषा शास्त्रीय प्रध्ययन 


42 


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औ09०७४-१७ 


44 गीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 


हस्त लिखित प्रतियां का; खा; गा; घ; 'चा छ और “जा में प्राप्त 
वैविध्यों पर निम्न रूपों में विचार किया जा सकता है-- 

() स्वर परिवर्तत और स्वर संधि 

पूर्व प्रतियां 'क' ख; गा; 'घ; चा और 'छ' की तुलना में “ज' प्रति में 
निम्न स्वर परिवतंव मिलते हैं 

(अ) गावें, जिवौ के स्थांव में गावहि (.4.); जिवहि (..7) 
का प्रयोग 

(आर) इक के स्थान में येक (.45.]) का लेखन 

(इ) आकर्ष्यों भंज्यो के स्थान में ग्राकपिव (.90.7); भंजिव (7.38.3) 
का लेखन 

(ई)ग्रैसो के स्थान में अंसे (2.60.4): (3.6.4) का लेखन 

(उ) पावौं, लावों आदि के ओऔं के स्थान पर पाऊ', लाऊ (अंत में 
ऊ) (6.8) का प्रयोग 

ऊपर को सभी असमानताए प्रतिलिपिकार की लेखन शैली ग्रथवा क्षेत्रीय 
प्रवृत्ति के श्नुरूप लगती है । 

(2) एक्क पदग्राम श्रथवा वाक्य के स्थान पर पित्त पदनच्राम श्रथवा वाक्‍्य--- 

“हेरत हृदय हरत, नहिं फेरत चारू बिलोचत कोने” (2.23.3) अ्रन्य 
प्रतियों के 'फेरत” के स्थान पर 'ज' प्रति में 'हेरता! का लेखन है-प्रर्थात्‌ भगवान 
देखते ही हृदय हर लेते है श्लौर मनोहर नेन्न कोने नही फेरते- यहां 'फेरत' अर्थ ही 
संगत लगता है इस प्रति का 'हेरत” नहीं-- 

“आली री। प्थिक जे एहि पथ परों सिधाए” (2.39.) में पूर्व प्रतियों 
के 'परो' के स्थान में इस प्रति मे 'प्रम' शब्द है--अ्र्थात्‌ 'जो पथिक परों (पर्सो) 
इस मार्ग से गए थे की श्रपेक्षा जो पथिक इस परम (श्रेष्ठ) मार्ग से गए थे! 
सावर्थ निकलता है जो यहां संभव हो सकता है । हो सकता है इस प्रति की मूल 
प्रति में 'परम' शठद रहा होगा-- 

“सुक सां गह॒वर हिये कहै सारो” (2.66.व) में अन्य प्रतियों के 'सारो' के 
स्थान में इस प्रति में 'सारे' शब्द मिलता है-नचू कि इस पद में शुक और सारो 
(सारिका) का वार्तालाप है झ्रतः 'ध्ारो' का लेखतख उचित हैं--संभव है भूल से 
सारो' के स्थान में 'सारे' हो गया हो । 

“बड़े समाज लाज-भाजन भयो, बड़ो काज बिनु छलतो” (5.3.3 ) में 
'सम्ताज' के स्थान पर इस प्रति ये 'साज' शब्द भिलता है--अर्थात्‌ इस वड़े समाज में 
में व्यर्थ ही लज्जा का पात्र हुआ--'भावार्थ की हृष्ठि से 'समाज' शब्द उचित लगता 
है--प्ंभव है भूल से लिपिकार ने 'साज' लिख दिया हो-- 


वैज्ञानिक पद पा 45 


/लिए ढोल चले संग लोग लागि” (5.6.5) में लिए! के स्थान में इस 
प्रति में दिएः का लेखन है--लोग ढोल लेकर साथ में चल रहे हैं-- भ्रतः 'लिए? 
शब्द उपयुक्त लगता है 'दिए' की श्रपेक्षा-- 


जा दिन बंध्यो सिंधु त्रिजटा सुनि तू संञ्रन ञ्ञानि मोहि सुनहैँं” (5.50.) 
में 'सुनि! के स्थान में इस प्रति में 'सो' पाठ मिलता है। सीताजी कहती है जिस 
दिन समुद्र बंध गया” यह सुनकर तू जल्दी से आकर मुझ सुनाएगी--इसके स्थान 
पर 'जिस दिन समुद्र वंधा' (सो) वह तू मुझे सुनाएगी-दंनों ही प्रर्थ संभव हैं-हो 
सकता है “सुनि” के स्थात पर “सो” पाठ इस प्रति की मृल प्रति में रहा हो- 

“ग्रति उदर भ्रवतार मनुज वषु घरे ब्रह्म श्रज अविनासी” (7.38.) 
है रघुवाथ श्राप परम उदार अवत्तार रूप से मनुष्य देह धारण किए हुए झ्जन्मा, 
प्रविनासी ब्रह्म ही है में अन्य प्रतियों के ब्रह्म अज अविनाशी के स्थान पर इस 
प्रति में “धारि उड़ी स्वर प्रविनासी” पाठ मिलता है जिसका कुछ ओ्रोचित्य 
समझ में नहीं श्राता। संभव है मूल प्रति में ये अस्पष्ठ लिखा हो और सभी 
प्रतिलिपिकारों ते अपने अपने अनुमात से मिन्न-भिन्न पाठ कर लिए हों क्योंकि 

अ्र्य प्रतियों में मो अ्रज के स्थान पर स्व; 'प्रभु; और अज' तीनो ही पाठ 
मिलते हैं। अर्थ संगटना की दृष्टि से ब्रह्म अज भ्रवितासी' लेखन उचित हैं । 

(3) पर्याय-पूर्व प्रतियों के 'भूप के बड़ मार्ग! अथवा “भूपति के बड़े ; भाग 
घकघकी'; 'सुप्ररध'; 'प्रदक्षिता; का्ढ़ि साढ़ी लई' तामहँ; “काम सतकोदि मद 
'खुन ; भोलिन्ह के स्थान पर इस प्रति में क्रमश: बड़ी भ्रूप को भाग! (.29.]) ; 
तक घक' (2.8.); अरध' (3.7.5)5 पर दक्षिवा “(3.47.8); “काढ़ि 
मिसु साढ़ि लई' (537.2); 'जामहु (6.2.); 'सहस कोटित्ह मदन! (7.57) 
'रमण' (7.6.]); ओलिन्ह' (7.22.2) जैछे प्रयोग मिलते हैं । सप्ती प्रयोग 
एक दूसरे के पर्याय हैं श्रत: एक के स्थात्त पर दूसरे का श्रयोग संभव है। स्थान 
विपर्यय अथवा यम के प्रयोग के कारण प्रतिलिपिकार ऐसा कर सकता है । 


(4) लोप -पूर्व प्रतियों के 'कवहुं तो देखति' तथा “गए हैं निधि! के 
स्थान पर “जः प्रति में 'कबहुँ देखति (2.83.2); गए निधि! (4..3) का 
प्रयोग है । संभव है प्रतलिपिकार ने जान वुककर 'तो' और 'है को छोड़ दिया हो 
क्योंकि उनसे अर्थ सघटना पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता । 


लिष्कर्ष -ये प्रति खंडित है, बीच बीच में कटी हुईं है इसके प्रथम व अंतिम 
पत्र का कुछ भाग तथा 93 से 99 ;:!2 से 5 और ।29 प्ै32 तक पत्र गायव 
हैं। प्रवस्था भी भ्रति जी शीर्ण है। लिपिकाल एवं लिपि स्थान भी नहीं लिखा 


46 गीतावली का भापषां शास्त्रीय अध्ययन 


गया है। केवल इसकी पुष्ठिपका में लिपिकार का नाम 'सेपुर नस्पापता” लिखा हुआ 
मिलता है । 


ग्रन्य प्रतियों से जो इस्तकी असमानताए' हैं उसके श्राघार पर भी कोई एक 
निश्चित निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता लेकिन प्रति में किष्किन्धा काण्ड के प्रथम 
व द्वितीय पद के सध्य और सुन्दर काण्ड के 6 व 7 वे पद के मध्य एक एक 
प्रतिरिक्त पद है जो अन्य प्रतियों में नहीं है इससे अनुमान निकलता है कि इस प्रति 
का स्रोत कोई अन्य प्रति रही होगी जिससे इसकी प्रतिलिपि हुई है तथा 'क'; ख' 
गा; 'घ व छ! किसी भी प्रति से या उनकी मूल प्रत्ति से इसकी प्रतिलिपि 


नहीं हुई । 


वैज्ञादिक पद पाठ 47 


प्रतियों का वंशवृक्ष और प्रामाणिक पाठ 


3. प्रतियों का बंझवक्ष -गीतावली की ग्राठ हस्तलिखित प्रतियों की अन्त- 
रग परीक्षा करते के पश्चात ये तथ्य सामने आते हैं । 

का; ग। घ॒ और “छ' प्रतियों का कुल एक है ब्र्थात्‌ एक ही आदणश को 
चार प्रतियाँ हैं जो अलग-अलग प्रतिलिपिकारों की विशेषताओं के कारण अपना 
स्वतंत्र अस्तित्व रखती है और एक दूसरे को प्ृर्ण प्रतिलिपि नहीं 

ख' और 'च' प्रतियाँ किसी दूसरे आदर्श की दो प्रतियां हैं जिनमें परसपर 
पर्याप्त समाचताएं है फिर भ्ली एक दसरे की प्रतिलिपि नहीं है । 

प्रति का आदर्श कोई अत्य तीसरी ही प्रति है जो पूर्व प्रतियों से अलग 

अपना अस्तित्व रखती है। ति खंडित व अपू्ों होने के कारण अध्ययन का 
विपय नहीं हो सकती-इस प्रकार सब प्रतियों का वंशवृक्ष इस तरह तब किया 
जा सकता है ४-- 


सा] 











मा स्‍ ! 
या ] | 
पक गा प्च्चा प्द्ा ग्द्ध 5 ध्च्‌ँ भ्ज्‌ा 


संपादन कार्य में व्यवहृत उपयुक्त प्रतियों के श्रतिरिक्त नागरी प्रचारिणी 
सभा की खोज रिपोर्ट में प्राप्त गीतावली की अन्‍्यान्य प्रतियाँ तिम्न लिखित हैं- 
() (प्र) खो० रि० 926-28, पृष्ठ 726-27, संख्या 484 आर 
महाराजा पुस्तकालय, प्रतापगढ़ (ञ्रवध) की संव० 4797 की प्रति-इसकी पुष्पिका 
विषरण में दी जा चुकी है यह प्रति 'क' प्रद्ति से बहुत मिलती है 
(व) स्ो० रि० 926-28, पृष्ठ 726-27, संख्या 484 एस-पं 
संकठा प्रसाद अवस्थी, ग्राम-कटरा, जिला-सीतापुर (अवध) सं० 89व की प्रति-यह 
प्रति 484 झार की प्रति से विल्कुल मिलती है । 
(2) खो० रि० सन्‌ 929-3] ई० पृष्ठ 632, संख्या 325 एस 2 ठाकुर 
सुमेर सिह मीठवा-डाकघर फिरोजाबाद, जिला आगरा, की संवत्‌ 907 की प्रत्ति 
(3) स्लो० रि० 904 ग्र. सं. 90 महाराजा बनारस का पुस्तकालय, 
रामनगर (वाराणसी) की संवत्‌ 959 की प्रति 
(4) खो० रि० 920-22 ग्र ० सं० 98 आई-श्री वेजनाथ हलवाई 
पुराना बाजार असनी (फर्तेहपुर) की संव० 88 की प्रति- 
(5) खो० रि० 97-9 अर. सं. 96 ई० भारती भवन, इलाहाबाद की 
संव० 3823 की प्रति- 


48 गीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 


(6) खो० रि० 923-25 (6 प्रतियां) 

(अ) ग्र० सं० 432 के पं० भगवान दीन मिश्र वेच्च, बहराइच की संव० 
89] की प्रति- 

(व) ग्र ० सं० 432 एल पं० शिवसहाय उलरा डा०-मुसाफ्रि खाना 
(सुलतानपुर ) की प्रति- 

(स) ग्र० सं० 432 एम-ठा० विश्वनाथ सिंह, रईस, जगनेर डॉ० तिरसुडी 
(सुलतानपुर) की प्रति- 

(द) ग्रं. सं. 432 एन. ठा० इन्द्रजीत सिंह अटोडर, डा० बौड़ी (बहराइच) 
की संव० 902 की प्रति- 

(प) ग्र'. सं. 432 ओ-रामसुन्दर मिश्र-क्टपरी डा० भ्रकोना (वहराइच) 
की प्रति --- 

[त) ग्र. सं. 432 पी-भिनगानरेश का पुस्तकालय, भिनगा (वहराइच) 
की संद० ]840 की प्रति- 

(7) खो० रि० 94] ग्र.स. 500 ख॒ (प्रग्न) पं. जयानद मिश्र-वालूजी 

का फरस रामघाट, वाराणसी की संव० 860 की प्रति- 

लेकिन इतसे भी उक्त निर्णव के परिवर्तेत के सशक्त कारण नहीं मिलते हैं, 
हाँ, वंजवृक्ष की लम्बाई अवश्य बढ़ जाती है ॥ 
3.2 प्रामाणिक पाठ -- 

संपादन कार में व्यवहृत उपयु क्त सभी प्रतियों के सूक्ष्म अ्रव्ययन के पश्चात्‌ 
यह निष्कर्प निकलता है कि 'क! प्रति का पाठ सर्वाधिक प्रामाणिक है | खो० रि० 
]926-28 की 484 आर तथा 484 एस-दोनों प्रतियाँ 'क! प्रति के नजदीक हैं 
यद्यपि दोनों प्रतियाँ खंडित हैं। खो० रिं० 3929-3] की 325 एस 2 प्रति 'च 
प्रति के पास की प्रति है यद्यपि उसकी पूर्णातया प्रतिलिपि नहीं है । खो० रि० की 
अन्य प्रतियाँ अध्ययन हेतु चुनी गई (“क' से “क! तक की ) प्रतियों की समकालीन अ्रथवा 
वाद की प्रतियाँ हैं और करीब करीब सभी खंडित प्रतियाँ हैं अतः उनको अध्ययन में 
स्थान नहीं दिया गया है। 'क' प्रति को अध्ययन का आधार मानने का कारण यह 
है कि एक तो इसका पाठ अन्य प्रतियों की तुलना में सर्वाधिक प्रामाणिक है दूसरे 
बह प्रति अपने पूर्व को प्रत्ति के नजद्दी क की प्रति है जो तुलसीदास जी के समय के 
कुछ दिन वाद की ही प्रति है । 

वाद की प्रतियाँ प्रतिलिपिकारों के प्रमाद, क्षेत्रीय प्रवृत्ति एवं लेखन्शली 
जादि अनेक कारणों से विकृत होती गई हैं अत्त:ः सव कारणों को देखते हुए का 
प्रत्ति को मूल प्रति के नजदीक की मानकर अध्ययन का आधार बनाया गया है । 
श्रच्य प्रतियों में प्राप्त और स्वीकृत पाठ-- . 

अध्ययनोपरांत क' प्रति को सर्वाधिक ग्रामारिक माना गया है परन्तु तीन 


वैज्ञानिक पद पाठ 


49 


स्थलों पर 'घ झौर 'चः प्रति के पाठों को सर्वाधिक प्रामारिए मानकर अध्ययन सें 
स्वीकार किया गया है, जो इस प्रकार है-- 


() 'ध! प्रति 
(2 
(3) 


धर प्रति--'मीच तें नीच? 
न” प्रति--'निसिः 6.7 गे 


'पेपन को पेपन! . 73.] 
77: 


्च 
भ 


गीतावली के प्रकाशित संस्करणों पं गीता प्रेस गोरखपुर की भावार्थ सहित 
गीतावली अपेक्षाकृत ध्रामाशिक मानी जाती है ।'इसकी तुलेना (क'. हस्तलिखित प्रति 


से करने पर कुछ असमानताएँ मिलती हैं जो(इस प्रकार हैं--- 


हस्तलिखित प्रति 'का और गो० गो० को प्रकाशित गोतावली का तुलनात्मक 


अध्ययन 





काण्ड पद पंदित 





क्वप्रति 


* 





गी० गो० की प्रति 





.8 9 पंक्ति के ग्रंत में स्वेत्र-प्रा, यथा पंक्ति के अंत में सर्वत्र-्या यथा 
मेआ्रा भैग्या आदि कैया, मैया झ्रादि 

.3.] आनंद कंदा, चारु चंदा-आ आनंद कंद, चारु चंद-अर 

.34. पंक्ति के अंत में स्वंत्र ञ्राँ यथा पंक्ति के अंत में सर्वंन्न याँ यथा 
कनिरओआ, पैंजनिओ्आाँ ग्रादि कनियाँ, पैंजनियाँ आदि 

। 50.3. अऔहन्ण का सर्वत्र प्रयोग ऐहैं-सर्वेत्र ऐ का प्रयोग 

.83 सुप्रन, मुआ्नन-मध्य में-झ् सुवन, भुवन मध्य में-व 

.05.4 इत ” हिलोरी तक दो पंक्तियां दोनों पक्तियां हैं । 
नहीं हैं 

2.26.2 रूप पारावार रूप के न पारावार 

2,43,2-3 रिपिवर"“अलिंगिनी तक आझाठ आठ पंक्तियां हैं 
पंक्तियां नहीं हैं 

2.60. असो ऐसे 

2.64.] झौध अवध 

3.5.2 निरवतति भेरव॒न्ति 

5.4,4 पढ़े पठए 

5.9.].3 कहो, सुमिरन करति कहु, सुमिरति करति 

5.4.2 तुप्न तुब 

5.28.3 कुवरे की लात कवर की लात 

5.29.,3 नाहित "वाज के तक दो  दोतवों पक्तियां हैं 


पंक्तियां नहीं हैं 


50 गीतावली का भापा शास्त्रीय अध्ययन 

5.48 सुप्नत, मुश्नन-स्वत्रन्ध सुवन, भुवन आदि में सर्वेत्र-व॒ 

6.8 अंतिम पंक्तियों में-ऊं यथा पाऊं- सववंत्र-श्ों यथा पावौं, लावों 
लाऊं 

6 [.4 धन्य भरत, घन्य भरत घनि भरत, धनि भरत 

7 8.5 वरनि हार वरननि हार 

7.[. सिहाई सिहोई 

7.22.] राजाधिराजा, समाजा-्त्रा राजाधिराज, समाज-प्र 

7.22.2 झोलिन्ह भोलिन्ह 


संपूर्ण पुस्तक में ख के स्थान मे 
प का प्रयोग है । पूणे पुस्तक में 
सामासिक चिह्न (>>) का 
प्रभाव है। अनेक स्थानों में छ 


संपूर्ण पुस्तक में ख का प्रयोग 
है सामासिक चिह्नों का अत्य- 
धिक प्रयोग है सवन्न छ का 
प्रयोग है । 


के स्थान में क्ष का प्रयोग है। 


इस प्रकार हस्तलिखित प्रति 'क' और गी० गो० की मुद्रित गीतावली में 
उपयु क्त असमानताएं हैं। गी० यो० में प्राप्त असमानताञ्रों के स्थान पर “क! प्रति 
में पाई जाने वाली समानताओं को रख देने से गी० गो० की मुद्रित प्रति का 
हस्तलिखित प्रति बन जाती है जो हमारे अध्ययन का आधार है । इस प्रकार गीता 
प्रेत गोरखपुर संव० 2023 एकादश संस्‌करख की गीतावली में 'क'” प्रति में प्राप्त 
समानताओं को रखकर हमने इस पुस्तक को अपने भाषा वैज्ञानिक अध्ययन का 
आधार बनाया है 


आवश्यक निर्देश--मुल प्रति में सत्र ख' के स्थाव पर प! का लेखन है 


परच्तु पढ़ने की सुविधा की हृष्टि से प्रस्तुत अध्ययन में ख' का ही प्रयोग किया 
गया है। 


झाणा शास्त्रीय अध्ययन 
ध्वत्ति विचार 


गीतावली मध्यकालीन ब्रजभापा की रचता हैं । इस अप्रध्याय में उसके 
खण्डीय एवं खण्डेतर स्व॒न्िमों पर संक्षिप्त विचार किया गया है । खण्डेतर स्वनिमों 
के विवरण में किसी प्रकार की यान्त्रिक सहायता नहीं ली जा सकी है क्योंकि इसका 
इत्थमित्थं रूप अब जन बोलियों में नहीं मिलता है । स्वतात्मक, सस्वनात्मक 
तथा संयुक्त ध्वनियों के स्तर पर जो वैविध्य मिला है उसका यथास्थान सकेत कर 
दिया गया है | 
.] स्वतिम सूची--आलोच्य पुस्तक में 40 स्वर, 26 व्यंजन, 2 प्र्धस्वर, 
अनुस्वार, अनुनासिक त्तथा शब्दसंधिक हैं । 
स्व॒र--] ई, इ, ए, ऐ, झ्र, भरा, ऊ, उ, शो, औ । 
व्यंजन-- प, फ, व, भ, त, घ, द, घ, 2, 5, ड, ढ, क, ख, ग, घ, च, छ, 
ज, झे, स, है, २, ल, म, न । 
श्र्धस्वर--। य, व । 
अनुस्वार--।-7। 
अनुनासिक--। । 
विभाजक -शब्दान्त । + । ; वाक्यान्त । ॥ । 
सुरसररिययाँ--ये दो प्रकार की है : 
(क) अच्त्य-आरोही । $ ॥, अवरोही । | ॥, तथा सम | -+ । 
(ख) अन्त्येतर-बलवर्घक । व । 
सुरसरणि परिवरतंक--मोड ।मभा, प्लुति | प। तथा अतिरिक्त ध्वनि- 
वर्धक ।घ! 
].2 लिपि संबंधी विशेष विवरण -- 
प्रालोच्य पुस्तक में ।ऋ। स्वर का प्रयोग आदि स्थान में मिलता है लेकिन 
कई स्थानों पर ।ऋ। के स्थान में ।रि। ध्वति का भी प्रयोग मिला है-- 
यथा--ऋषि .52.( रिपि 7.29.] 
ऋतु 2.44.2 रितु 7.9.2 
साथ ही (कहा के मात्रा रूप | (| का प्रयोग सर्वेत्र मिला है यथा-- 
सुकृत 2.9.3 9 ग्ृहु-0.7,3 


52 गीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययने 


क्ष।, ।त्र। और ।ज्ञा--पश्र।लोच्य ग्रन्थ में तागरी वर्णोमाला में प्रयुक्त होने 
वाले ।क्ष।, ।न्र और ।ज्ञा तीनों संयुक्त व्यंजनों का प्रयोग मिला है। ।त्रा का प्रयोग 
अत्तेक स्थलों पर आदि, मध्य झोर अन्त (संयुक्त व्यंजत रूप) में मिला है-- 


यथा-त्रासहारी .25.6 सत्र सूदत 7.34.3 चित्र ,3व.5 
क्ष। और ।ज्ञा के प्रयोग शअ्रत्यल्प हैं यथा--काकपक्ष .54,] थज्ञो- 
पत्रीत 7.6,5 

मुक्तवितरण रूप-- 


प्रस्तुत ग्रन्थ में कई व्यंजन मुक्त वितरण रूप में मिले हैं जिनका विवरण 
इस प्रकार है-- 


()) न:“खु-- 

ब्राह्मन .]7.2 ब्राह्मरा .2.8 

दिनमन्ति 4.73.5 दिनमणि 7.7.2 
(2) ल“र-- 

पीले 2.30.] पीरे .42.,2 
(3) ब”४ब-- 

दिव्य 6.9.4 दिव्य ,67.,3 
(4) स”“श--आदि, मध्य, अन्त तीवों स्थितियों में है-- 

सोभा .55.3 शोभा 5.5.6 

किसोर 2.5.4 किशोर .73.4 

केस 7.7 4 केश 33.3 
(5) ग्य”४ज्ञ-- 

जगयोपच्ीत .]08.6 यज्ञोपवीत 7.6.5 
(6) च्छ“<क्ष-- 

काकपच्छ] .60.2 काकपक्ष .54,] 
(7) ₹:८४९-- 

परव (कुटी) 3.3.] पर्न (साल) 3.7. 
(8 ) र२८८,--- 

बरत 6.2.] ब्रत .67.2 
:3 स्वर ॥ 


स्वर दो प्रकार के है : दीघ तथा हस्ब । सभी स्वर शब्द की प्राथमिक, 
माध्यमिक एवं अंतिम स्थिति में मिलते हैं जिनका वितरण इस प्रकार है -- 


.3.] स्व॒र-- प्राथमिक स्थिति माध्यसिक स्थिति श्नन्तिम स्थिति 
ई 5; ईस .2,22 कपीस 5.3.3 भाई ,55.] 
इू : इक .45.] हलराइहों .2.3. रजाइ 5.34.3 


ध्वनि विचार 53 


ए : एक .45.4 तेज .80.5 धाए .26.] 
ऐ : ऐन 5.2.3 सेल .84.4 छोटिएऐ ]44.] 
भा : असीस .69.] बसन 4.55.2 हरुआ 7.2.8 
झा : आस 5.45,5 सोआइहों 7.3]] . फगुआ 7.22,7 
ऊ : ऊपर 3 4.2 कूप 2.3.3 दोऊ .99.4 
उ : उमा .5.6 परवाउज .2.3 राउ ,46.3 
झ्रो : झट 4.32.7 कोकिल 3..2 अपनो 2.85.] 
श्रौ : औगुन 2.76.2 कौतुक 7.32.] छुओ व.2-3 
.3,2 दीर्घ स्वर “ 


।ई।, 0॥, ।ऐ।, ।ग्रा।, ।ऊ।, ।प्रो,, तथा ।श्रौ। दीर्घ स्व॒र हैं । इनकी दीघंता 
में ध्वन्यात्मक परिस्थितिजन्य (छुन्दाग्रह अथवा तुक के कारण) संस्वनात्मक 
बविध्य मिलता है जिसे दीघे ( , ), दीघंतर (  ) और दीघंतम ( : ) कहा जा 
सकता है। इनका स्वनग्रामिक विवरण एवं वैविध्यों का उदाहरण सहित वर्रन 
इस प्रकार है । 

.3.2.] दीर्ध॑ता पर श्राधारित संस्वन -- 
॥ई। 5उच्चतर उच्च अग्र अवृत्तमुखी स्वर -- 


5 [ई], [ई], [ई:] 
न [ई ]--है। से पूर्व तथा पदात्त में प्रयुक्त होने पर दीर्घता में स्वल्प हास 
मिलता है-ययथा 
[घ॒ञ्र रई ]-घधरी है 92.] 
[जूअन्‌अवचूई]-जतनी 39.3 
# [ई] -दीघ स्वर अथवा दीघंताधारित अक्षर से पूर्व प्रयुक्त होने पर पूर्ण 
दीर्घता में कुछ कमी हो जाती है लेकिन [ई_] के समान नहीं-- 
[प्‌ञअप्‌ ई हू जञा|पपीहा 3.7.4 
[ग्‌झर्‌ईंब ई|>गरीबी 2.4.4 
से [६: |--यह दीर्घतम संस्वत है । क्वस्व स्व॒रों या उनसे रचित अक्षरों से 
पुवे इसका प्रयोग मित्रा है यथा-- 
[व उलञस्‌ ई: स]-तुलसीस .87.4 


$4 गौतावली की भाषा शास्त्रीय अध्ययन 


[र्‌ श्रा जू ईः व | --राजीवचै न 2.48.5 
[ए। ८ उच्चतर भध्य अ्रग्न अवृत्तमुखी स्वर -- 
5 [ए], [ए], [एः] 
लए |“पदात्त में प्रयुक्त होने पर दीर्घता में कुछ कमी हो जाती है-- 
यथा--[व्‌ प्र ड्‌ ए ]-बड़े .8.], 
[नृज ए]-नए 46.5 
5 [ए |-दीघ् स्वर अथवा दीघंस्वर युक्त अक्षर से पूर्व आने पर दीघंता कुछ 
कम हो जाती है--यथा--- 
[ए' क्‌ झ्नौ|-एकौ 3.2.], 
[म्‌ ए र ओ]-मेरो 3.6. 
ल्‍ [ए:|--इसकी स्थिति हस्व स्वरों अथवा उनसे निर्मित अक्षरों से पूर्व देखी 
गई है-यथा-- 
[व्‌ ए: 3]-तेउ .46.5, 
[खू एः त ]-खेत-.95.3 
ऐ। - निम्नतर मध्य, अग्र अवृत्तमुखी स्वरु- 
रे ऐ।, ऐ], ऐ:- 
नए ]-पदान्‍्त में तथा ।है। से पूर्व इसका प्रयोग मिला है- 
यथा-तंह्व, ऐ, ह्‌ ऐ।-ह्व है-6. 7.], 
कि अ्रस्‌ भ्रकू ऐ |-कसके-.44.2 
८5 ऐ]-दीघेस्वर अथवा उस पर आधारित श्रक्षर से पूर्व इसका प्रयोग 
मिला है- 
यया-नत्र स्‌ ऐ ल्‌ ई]-असैली-5.6.2 
[क्‌ ऐ लू आ स[-कैलास-6.3.2 
उ८ऐः]-हस्त्र स्व॒रों अबवा इनसे रचित बक्षरों से पूर्व इस संस्वन का प्रयोग 
मिला है । 
यथा-नच्‌ ऐ: ल|-चैल-7.6.5, 
प्‌ ऐ: जू अन्‌ ई]-पैजनी-.3 2.2 
।आ।--निम्न मध्य श्रवृत्तमुखी स्वर-- 
र [प्रा.], [आ'], [आः] 


ध्वनि विचार 55 


5 भा ]--इसका पदात्त में प्रयोग होने से दी्धेता में कुछ कमी हो 
जाती है-- 


यथा--[ कू अ थ्‌ आ ]--कथा--.86.2, 
[दुअ यू आ ]- दया --5.7.3 
मे [भा ]-दीघंस्व॒रों अ्रथवा दीर्घाक्षरों से पूर्षे इसका प्रयोग 
मिला है-- 
यधा--[ आरा लू ई]--अ्रालो -.0.3, 
[आर र॒आ त्‌ इ]--आराति--5.43 .5 
+ [ग्रा:]-यह दीर्घतम स्थिति है। हस्व स्वरों अथवा उत्तते रचित 
अक्षरों से पूर्व इसका प्रयोग है-- 
यथा--[ग्‌ झआः व्‌ अ त्‌ | गावत--!.54.4 
[भ्‌ आः गे |--भाग --5.4[. | 
।3।-5च्चतर पश्च वृत्तमुखी स्व॒र-- 
ले [ऊु,], [कं], [ऊः]- 
र [ऊ ]->पदान्त में प्रयुक्त होने पर दीघेता में हास हो जाता है-- 
यथा--[ बु अट्‌ आ उ ]--बढाऊ 2.36., 
[क्‌ श्रल्‌ ए ऊ ]--कलेऊ 2.54.3 
ज्| [ऊ ]-दीधेस्व॒रों से पूर्व इसका प्रयोग मिलता है-- 
यथा--[ प्‌ ऊं ज्‌ ई]--प्रणी--7.3.4; 
[ब्‌ ऊ झू ई]-बूकी--2.5.3 
+[ऊ]-+हुस्‍्व स्वरों से रचित अक्षरों से पूर्व इसकी स्थिति देखी 
गई है हब 
पथा--[प्‌ ऊः प [--पूप-- .3 2.6, 
[र्‌ ऊः प |--छूप--7.8. 
श्रो।--उच्चतर मध्य, पश्च, वृत्तमुखी स्वर -- 
5 [ओो ], [ओो ], [शोः|-- 
र [ओ ]- इसका प्रयोग [है] से पूर्व तथा पवान्त में मिलता है 


36 गीतावली का भाषा शास्त्रीय प्रध्येयन 


यथा--[ क्‌ इ यू ओो ] - कियो है 7.40., 
[म्‌झ्न यूओ ] --भयो .98.2 
+- [झो |- दीर्घस्वर अथवा दीघंताधारित श्रक्षर से पूर्व इसके 


प्रयोग की स्थिति है यथा-- 


+ [दुओ ऊ] ->दोऊ .99.4, [सूओ ह आ व्‌ श्र नु ओ | -- 
सोहावनों ,3. 
लत [गो |] -हस्व स्वर था उनसे निर्धथित अक्षरों से पू्वे इसकी 
प्रयोग स्थिति है 
यवा--[म्‌ श्रो: र] भोर .99.2, 
[मृ झओ: द] --मोद 5.40.4 
।औ।--निम्ततर मध्य वृत्तमुखी स्वर-- 
न [झौ], [औ ], [औौः] 
उ् [झ्ौ |] -का प्रयोग पदान्‍्त में मिला है --यथा-- 
[मझ्चा नू औ ]- मानौ--2.50.,6, 
[आव्‌झऔ ]-अआ्रवौ--2.87.] 
प्र [ओर |--दीघंस्व॒रों से पूर्व इसकी प्रयोग स्थिति है - यथा-- 
[प्‌ ञ्रौ द्‌ आए ]|--पौढ़ाए--- 2 2.2 ; 
[प्‌ भरत झौ आ |- पतौभ्रा--] . 6 7-2 
ने [ श्री: |--ह॒स्वस्वर या उनसे रचित अक्षरों से पूर्व इध्के प्रयोग 
की स्थिति है -- यथा--- 
[चू औ. क ]--चौक-- 6 23.2 
[ओआः र]|--और---6- [ - 8 
.3.2.2 नासिक्यीकरण जन्य संस्वन -- 


निम्नतर मध्य शअ्रग्र अवृत्त मुखी ।ए। तथा निम्नतर मध्य पश्च वृत्तमुखी ।औौ। 
सानुनासिक । । उच्चारण में श्रपती स्थिति से कुछ ऊपर उठे हुए प्रतीत होते हैं 


जिन्हें [ऐ] तया [ औ] रूप में लिखा जा सकता है--यथा-- 
[प्‌ अदढआ व फएऐँ* |--संढ़ाव --3-9,3; 
[द्‌ ए खू औं* |--देखौं--3-9-4 


ध्वनि विचार 57 


4,3.2.3 संस्थ॒वात्मक नातिक्यीकरण -- 
दो नासिक्य व्यंजनों के मध्य प्रयुक्त होने पर दीर्घस्वरों के साथ क्षीण रूप 


में सानुनासिक घ्वनि सुनाई देती है जो स्व॒र के दाद के उच्चारण पर छाई रहती 


है-अथा--[म्‌ झा व्‌ ई]--मानी-7.37.2; 

[व्‌ आ नू झा ]-- नाना-2.47.7 

पदान्त नासिक्य व्यंजन के पश्चात्‌ आने बाले दीघे स्वर में भी संस्वनात्मक 
नासिक्यीकरणु का श्राभास मिलता है--बथा-- 


दि आआनू ई ]--दानी-] .4.6; 


# [९ ७ (२ 


विआन्‌ई]--बानी-].4.] 
यह सानुनातसिक ध्वनि नासिक्य दी स्वरों के पूर्व भी सुनाई देती है- 


# 


यथा--] स्‌ व्‌ झ्रा मू ई]--सुवामी---5-23 ,3 
:3.3 ह्ृत्व स्वर-- 
आालोच्य पुस्तक में कूस्व स्व॒र तीन हैं--३॥, ।प्र।, ।3।--जिनकी संस्वनात्मक 
विविधता के दो प्रमुख आधार हैं : दीबंता तथा वोषत्व | दीर्घता दो प्रकार की 
है--सामान्य दीघेता तथा हसित दीर्घता--सामान्य दीर्घता के लिए चिह्न विशेष 
का प्रयोग नहीं है। हृतित दीर्घता को [६ ],[ञ], [उ ]--इस प्रकार लिखा गया 
है। धोपत्व के श्राधार पर की छस्व स्वरों के दो रूप मिले हैं: धोप एवं अधोप-- 
धोष स्वरो के लिए कोई चिह्न नही है परन्तु जहाँ किसी परिम्थिति विज्ञेप के कारण 
उनका अधोपीकृत रूप मिला हैं उसके लिए [ . ] चिह्न छा प्रयोग है। 
].3.3.] हृस्च स्वरों का संस्वनात्मक विचरण--- 
।६-- निम्नतर उच्च, अग्र, अव॒त्तमुखी स्वर-- 
++[इ], [६], [६] 
उन [इ]-अपनी स्वाभाविक्र दीघंतासे युक्त है--पद के आदि में अथवा 
पद के आदि अक्षर के आधार के रूप में व्यंजन से पूर्द इसका 
प्रयोग मिलता है-- 
[इ क्‌|-इक-.05.2: 
[है इ त ]-हिंत--2-84.5 


58 गीतावली का भापा शास्त्रीय अध्ययन 


न [इ ]--इसका प्रयोग प्रायः पद के सध्य में दीर्घाक्षर से पूर्व तथा सघोष 
व्यंजन के पश्चात्‌ होता है-- 
[ब्‌इ स्‌ आ ल]-बिसाल-3.2.5; 
[गू आ र्‌ इ |--गरारि-7.22.9 
न [इ,)-अधोप व्यंजन-पश्चात्‌ पदान्त में इसके प्रयोग की स्थिति है-- 
[ग्‌ भ्रत्‌ इ ]|--गति-].86.3; 
[ह ञ्नत्‌ इ]--हति-3.8.] 
ग्र।-मध्य अवृत्तमुखी स्वर-- 
+झ], [अं], [भर ]- 
८ [ञ्र]-स्वाभाविक दीर्घता से युक्त इस संस्वन का प्रयोग पद के 
आरम्भ में तथा पद के मध्य में मिला है- 
[अ्रव्‌श्नस्‌ इ]-अवसि-2.77. 
[घ्‌ श्र र|-घर-2.73.3 
[भर ]--इस संस्वन का प्रयोग पद के मध्य में दीर्घाक्षर से पूर्व 
मिला है- 
[व्‌ अह आ व्‌ औ]-बहावौ-6.8.3; 
[झाग्‌झ म्‌ई]-.7.] 
ज्+ [अ|-श्रधोप व्यंजन के पश्चात्‌ पदान्त में प्रयुक्त है- 
[लू आ त्‌ श्र ]-लात-5.26.[; 
[व्‌ झा प्‌ झ ]-ताप-.47. 
।उ।-निम्नतर उच्च, पश्च वृ-त्तमुखी स्वर- 
ज[ठ], [उ,], [उ] 
>[उ]-स्वाभाविक दीघंतायुकत इस संस्वन का प्रयोग पद के आदि में 
अथवा पद के आदि अक्षर के आघार के रुप में व्यंजन से पूर्व 
मिला है-यथा- 
[उ त्‌ [-उत्त-2.8 6.2; 
[क्‌ उठ ई|-कुटी-2.79.] 


ध्वनि विचार 


59 


ज[उ ]-ह॒म्वत दीघंता वाला यह संध्वत्त उच्चाराम्त में सवोब व्यंजन 
के पश्चात्‌ तथा पद मध्य में दीर्घाक्षर से पूर्व मिला है- 


[ज्‌ अनू उ ]-जनु-.66.4; 
[फू आग उ ]-फागु-2.47.9 
ः>[उ]-अघोप व्यंजन के बाद पदास्त सें प्रयुक्त हैं- 
[म्‌ झा त्‌ उ]-मातु-2.62.]; 
[प्‌ इ व्‌ उ ]-पितु-2.26.] 
.3.4 श्र्धस्वर 


या, ।वा को अ्रर्धस्वर माना गया है । कुछ लोग इन्हें स्वाघीन 


श्रूति के रूप में मानते हैं, व अ्क्षर--निर्माण में असमर्थ । 


विभिन्‍न 


त 


स्व॒रों के मध्य ।य।, )॥व। के विभिन्‍त संयोग आलोच्य प्रन्धथ में मिले हैं जिनमें ।य। के 
24 संयोग एवं ।व। के 7 संयोग हैं । ।कऊ। और |झौ। के साथ कोई संयोग नहीं है 
अनुनासिक स्व॒रों के साथ भी ।य।, ।व। के क्रशः 3 और 8 संयोग हैं जिनकी सूची 
ग्लग से दी गई है । निरनुतासिक स्वरों के मध्य ।य। और ।व। के संघोगों को तालिका 


द्वारा भी प्रस्तुत किया गया है-- 
.3.4.] विरनुनासिक स्व॒रों के साथ ।या और ।व। के संयोग-- 


य 
श्रय अयन .63.5 या मृगया 
प्रयी विजयी 6,.6 ञ्यू मयूर 
अ्ये. लये 6.5.] अयो. पदयों 
आय. लायक. 2.3.] आया देवमाया 
ग्रायु आयु 7.25.2 आये गाये 
आयो वंधायो . 6.2.] द्द्य लाइय 
इया पंगिया .44.4 च्ट्यू पियूप 
झ्ये लिये 30000 । झ्ये तीकिये 
इयो. हियो 3.4. इयौ जियो 
इय सीय 7.26.4 यू पीयूष 
एयी. कैकेयी  2..4 एयू केयूर 
ऐया मैया 2.66.4 औ्ोय लोयत 

व्‌ 

श्र्व अवलोकत 3.2.3 श्र्वा तवावों 
भ्रवि रवित प7.4 अवबी उपवीत 


३ 


अब अन्हवेहै. .99.2 झव ताव 


.39.3 
5.2.4 
3.6.2 
2..4 
6.23.5 
2.74.4 
.7.2 
4.85.4 
7.48.6 
2.44.3 
7.46.5 
4.96.2 


,69.8 
4.73.4 
5 


50 


गीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 


आ्रावे झुलावे .23.] इ््व सिव 3.4.3 
इबा. दिवायो 4.7.3 इंबो... जियौ ..7 
ईव. जीव 2.40.4 उबव भुबत 5.22.3 
उवा भुवालु .42.4 एव. सेवक 6.5.2 
एवि सेवित 2.50.3 एबी. देवी १.5.4 


ग्रोव. जौवति 5.7.3 
.3.4.2 सानुनासिक स्वरों के साथ ।या, ।वा के संयोग- 


य्‌ 
आय. पाँय .43.] आयें पाये .57.3 
इयाँ धनुहियाँ .44.| 

ब 

गँव. भेवर 7.3.3 अवबा गेंबाई 6.6.4 
अरबों... पठवां 6.].3 आँव पाँवड़े 3.7.5 
आये पढ़ावे 3.9.3 आवों आबवोंगी 2.6.] 
रईबवं सीच॑ .48.| उ्च कुवर .73.2 


.3,.5--श्रनुस्वार-स्वरों से अलग उच्चरित होने वाला नासिक्य तत्व है 


जिसके लिए प्रस्तुत ग्रत्थ में । --। चिह्न का प्रयोग है इसके प्रयोग की स्थितियाँ इस 
प्रकार है--- 


वर्गान्‍्त के नासिक्य व्यंजनों के लिए अनुस्वार-चिस्ह का प्रयोग -- 

क्‌ वर्ग से पूर्व कंकन .2.3 पंख .52.4 
च वर्ग से पूव चचरीक .08,8  मंजुल 2.44.] 
८ वर्य से पूर्व घ्‌ठा .2.3 खंड 3.8.4 
ते वर्ग से पूर्व संतोष 2.77.2 सुच्दर 7.6.3 
प वर्ग से पूर्व खेभनि .9.3 अबक 3.7.3 


इसके अतिरिक्त ।सा, ।त्रा और ।ह। के पूर्व भी अनुस्वार का प्रयोग 


मिला हैं- 


रजहंस 5.40.3, मंत्री 2.56.2, सिहासन 2.80.3 
श्रकारण अनुस्वार-बिन्ह्‌ का प्रयोध-- 
कहीं-कहां पर बिना किसी श्राग्रह के अनुस्वार-चिह्न का प्रयोग मिला है- 


चर्धावंन ].2.8 भंई .6,]4 
सुखदांई ,55.4 गोसांई 2.78,3 
छांई 2:5]:2 


यथपि अनुस्वार और अवुनासिकता दोनों के मध्य व्यत्तिरेकी स्थितियां मिली 


है-यधा-हँसि 5.44.4 और हस 7.6.2 में-परन्तु फिर भी सपुरण प्रस्थ में 


ध्वनि विचार 6 


अ्नुवासिकता के स्थान पर अनुस्वार चिह्न का प्रयोग तथा भ्रनुस्वार के स्वान में 
अनुतासिक विह्ल का प्रयोग बड़ी स्वतत्त्रता कै साथ मिला है -- 


स्‍,5.8 


अनुनासिकता के स्थान पर अनुस्वार चिन्ह का प्रयोग-- 


करके 5.22.8 नींद .5.3 
उनींदे 4:2:2 मेंट 6.22.6 
सींचिवे 5.49.2 

अनुस्वार के स्थान पर पअ्नुनासिक दिन्हु का प्रयोग - 
आनंद .4.5 पेंडार 8.2.2 
गंभीर ].08.5 वबिलेंवे 2.24.4 
सिगार 2.29.4 

अनुवासिकता -- 


स्वर घ्वनियों के साथ उच्चरित अचुतासिक तत्व है जिसके लिए पुत्तक में 


। । चिक्त का प्रयोग है तीचे सानुनासिक स्वरों की प्राथमिक माध्यमिक ज्षौर 
अतच्तिम स्थितियाँ प्रस्तुत की गई है । केवल प्राथमिक स्थिति में | ।ई॥, ।इं।, ।एँ।, 
।ऐ।, ।उ।, ।प्रो।, और ।थ्औं। के रूप नहीं मिले है- 


.3.7 


प्थमिक स्थिति माध्यमिक स्थिति अन्तिम स्थिति 


रा सीवब 5.43.] रूरी ].3.4 
डे विगार ).05.2 घरई 7.22.6 
ए्‌ँ जे इय 2.52.3 याते 2.57.3 
ऐ' पँत 2.32.4 ढेर! 5.27.3 
न ऑकोर 7.3.3 कुअरोटा .62.] हैँ 5.38.4 
ञ्राँ आँक .85. फाई .08.9 चौतनियाँ .34.4 
उँ मुह 7.37.] दाऊ !.84.4 
ऊँ ऊँचे 2.4. मू दरी 5.3.] तिहू .9.4 
झा कोन 2.4.] एकसो 6.2.4 
श्रौ बौडी .72.3 पावाों 4.89.8 
स्वर संपोग- 


गीतावली में दो से लेकर दीन स्वरों तक के संधोग एक साथ मिले हैं | दा 


स्व॒रों के निरतुतासिक संयोग प्राथमिक स्थिति में 2, माध्यमिक स्थिति में 40 और 
ग्रन्तिम स्थिति में 27 हैं। दो स्व॒रों के नासिक्य स्वर संयोग केवल माध्यमिक स्थिति 
में 3 और अन्तिम स्थिति में 0 है तीन स्वरों के संयोग 5 निरनुनासिक तथा 
। अनुनासिक हैं । इन स्वर संयोगों के अतिरिक्त 7 दो स्वरों के तंगोग (6 निरनु« 
नासिक व एक अनुनासिक) और हैं जो स्व॒तन्त्र शब्दों की रचता करते हैँ । इस 


62 


गीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 


प्रकार सम्पूर्ण पुस्तक में कुल 65 प्रकार के स्व्रर 
तालिका सहित निम्न प्रकार हैं । 
.3.7. द्वो स्वरों का संयोग-- 


निरलुतासिक 

प्रथथमिक स्थिति 
आाइ झाइटहे 

साध्यसिक र्थिति 
अइ भद्दया 
आउ. राउर 
च्व्ए्‌ घारिए 
उम्मरा. भृत्राल 
एड सेइपत 
झ्रस्तिस स्थिति- 
लहइ सं 
अउ आयउ 
आइ .. पाइ 
आउ .. गाउ 
आए चोराए 
इड्यो. हमरिओ 
उच्चा फगुआ 
उई कनसुई 
एड तेइ 
एउ उकठेउ 
ऐए  जेए 
ओओई सोई 
ओऔोऊ. पोऊ 
ओऔदज्या पतौम्मा 

खनुनातिक 

साध्यसिक एल्यति 
आउं जाउँगी 
एड जेंइय 

अन्तिम स्थिति 
अरे घर 


35.34.] 


3.45.4 
2.47.9 
3:3522 
7.4.] 
].5.4 


].45..4 
2.47.8 
5.6.3 
3.45.5 
.56.5 
2.34.4 
7.22.7 
.70.5 
.45.7 
2.46.3 
7.48.] 
4.86.2. 
2.6.3 

4.67.2 


5.30.] 
2.52.3 


4,22.6 


आइ 
झ्श्रा 
उन 
उए 
ओइ 


ञ्रई 
खञ्रए 

आई 
ञ्राऊ 


ही 


ड्ड्एु 
उश्र 
उइ 


उच्ौ 


एई 
एुऊ 


ओइ 
ओउ 
ओए 


(८॥| 


हु 


जी 


खआाउज 


गाइही 
जिग्नायो 
मुअन 
सुएहु 
रोइवों 
भई 
ग छ्‌ 
वधाई 
काऊ 
चलिए 
ग्स्श्र 
गरूइ 
छुत्नो 
तेसेई 
कलेऊ 
समोइ्‌ 
दोउ 
घोए 


कुआ्नरोटा 


46 
ग। 


पोग मिले हैं । जिनका विवरण 


.2.3 


.2.4 
2.56.3 
य..] 
2.97. 
2.83.3 


2.34.] 
2.66.5 
.]03.] 
2.36.4 
2.64.3 
4.2.]8 
7.32.5 
.2.3 
.42.] 
2.34.3 
35 प 
.04.3 
2.6.2 


.62.] 


.34"6 


ध्वनि विचार 63 


झाई पाई 2.27.3 आई... भाई .9.2 
आउ. पाँउ 5.35.2 आउँ. ठाऊँ 5.45.2 
झाएँ गवाएँ 2.39.5 इश्बाँ | पहुचियाँ .3.3 
एड. लेऊँ 2.54.3 ओउ.. होड़ 2.63.2 
.3,7.2 तीन स्व॒रों का संयोग- | 
निरनुनासिक 


इग्माउ पिश्वाउ 2.57.4 इग्रोए पिश्नाए 6,22.3 
उआई ग्रूआई ].6.3 ओआइ  सोझ्राइहो .2"] 
गओइए सोइए :20,] 

अनुनासिक 
इग्माई वरिश्रांई 3.6.2 

.3.7.3 स्वतन्त्र स्वर संयोग- 


निरनुनासिक 
आह 2.58.] आई 2.9.4 
आउ 2.57.3 श्राए .26.2 
एुई .74. एउठ .68.4 
अनुन/(सिक 
आई 7.3.9 


.3.8-श्रक्षेर- संरचता- 

प्रस्तुत ग्रन्थ में प्रयुक्त आाक्षरिक संरचना में एक से लेकर पांच अक्षरों का 
प्रयोग मिलता है। शब्दान्त के ॥गब्र। का लोप समस्त अध्ययन में स्वीकार क्रिया 
गया है। स्वर के लिए स तथा व्यंजन के लिए व संकेत है-कुछ उदाहरण 
निम्नलिखित हैं- 


एकाक्षर 
स ए .78.2 
व्‌ स्‌ ये 2.42.4 
स च न आज 2.49.] 
व्‌ सं व 5 द्नि 2.50.] 
व व स्‌ ; क्‍यों 2.72.3 
चर स व थ ग्रह .42., 2 
द्वक्षर 
स्‌ स्‌ ः आए .402.4 
स स॒ व आउज .2.43 


व स :ः स |] नए - 3,3,5 


64 गीतावली का भाषा शास्त्रीय प्रध्ययन 


बस व स्‌ जायो 6.2.] 
स्व स्‌ ब अपर .23,4 
सब व सर ; ञंक्‌ ,28,4 
व व स व हे ष्याह्‌ ],04.,4 
व व से स ; ल्याए ,02,3 
व स वव स चवक 2,47,] 
व सच सं व पु पवत ,55,4 
स॒च्र बव स॒ इ्च्द्र ].25.2 
सच व सं व्‌ अंचल 7,8.4 
व व सद स्‌ ग्यानी ).6.0 
व सतचव व स व्‌ हु कंदुक 6.3.,2 
व व सचब सं व्‌ ६ व्यलीक .36.] 
व ये से व बब से ५ प्रसंग [:95.7 
त्रुयक्षर 
सच स्‌ स प्रोढाए ].26.6 
वस व स से है पठाई 2.40.4 
वस व स॒व स ४... पिनाकु .92.3 
सच स॒वबसव ग आविवाद ..4 
स्व वस व से सर: अँगनाई .30,4 
सेव ससव व सर; अधाउँंगो. 5.30.3 
व॒स वस व सर कुसु भि 7.9.4 
व स वृस व सब ४ पारावत्त 47.9.2 
वस वब सब त् व ४ चित्रकूट 2.50.] 
चतुराक्षर 
व सब सेव सस : विचारिए. .86.3 
त्र्स व ससव स 4 वच्चाइहें 5.5[.4 
पसत वसवस वव स : आवहिंगे 5.0.] 
व स वसवश्नस व स : पछिताइहै. 5.5.2 
वब स वृसवस व सब: कृपानिधाव .38.] 
पंचाक्षर 


वे से वेसबवस वसव सव व स : दिखरावहिगे 5.0.] 
],4 ब्यंजन- 
.4-] व्यंजन खण्डोय स्वनिम-(विवरण) 

आलोच्य पुस्तक में प्रयुक्त व्यंजनों की प्राथमिक, माध्यमिक और श्रन्तिम 


ध्वनि विचार 


65 


स्थितियों का वितरण नीचे दिया गया है| इस अध्ययन में अ्रन्तिम शञ्मा का लोप 
स्वीकार करके शब्दों को व्यंजनांत माना गया है और साथ ही संयुक्त या दी्घ व्यजनों 
में ।ग्र। की उपस्थिति मानकर स्वरांत | व्यंजनांत णब्दों में हलन्त का चिह्न नहों 
लगाया गया है | ।णा।, ।ड़ा और ।ढ़ा प्राथमिक स्थिति में नहीं मिले हैं और ।ढ। 
अंतिम स्थिति में नहीं मिला है । 
.4,  ,[-- 


पब्यंज्ञत 
का 
खा 
गे 
घ। 
च। 
छा 
ज। 
के 
दा 
|ठ। 
ड़ 
ढ़ 
ड़) 
(ह। 
णा 
ता 
था 
[दा 
घा 
न 
पा 
फ! 
व 
भा 
स्‌ 
या 
व 


प्राथमिक 

केनक 3.5.2 
ख़ग 3.5.,4 
गीत 4.2.5 
घाट ].42.3 
त्ताप ].68.8 
छोर ].73 4 
जप 7.2.23 
भाष 7.4.5 
ठेके 5.49.4 
ठाद ].77.3 
डार 2.47.]5 
ढारति 5.9.2 
तीर 2.44.2 
थार .2.9 
दमक 7.8.3 
धार 6.82.] 
त्त्य 7.24.] 
पिक - 2.45.4 
फनिक 2.68.4 
घात 2.4.2 
भरत ].42.] 


मीत .22.]2 
यूथ 2.48.2 
व्यलीक .36.] 


माध्यमिक 
कोकिल 
आखत 
पगार 
वघनहा 
आाचरज 
उछाह 
अनिन 
निरफर 
हाटक 
कोठरी 
उड्डगन 
सुढर 
तड़ित 
बढ़ायों 
प्रणाम 
पितर 
प्थिक 
उदर 
वबधिक 
जनक 
दीपक 
निफनत 
कुवेर 
सुभट 
कमठ 
मयूर 
सुवच 


2.48.3 
5.६6.6 
5.32.3 
5] 22 
.58.2 
]4.]4 
2.79.2 
2.49.3 
7.2.]] 
४0280 260 
7:6.2 
.76.3 
75774 
.9 3.3 
057 
.4.5 
थ््ट्ब्‌ 
है 0 हि 0 । 
2.86.4 
].80.2 
.88.4 
20020 ४ 
5.28.4 
5.43.2 
5.22.8 
6.2.4 
.9.] 


अंतिम 
कठक 
पाख 
पग 
अघ 
मारीच 
रीछ 
समाज 
भांम 
त्तट 
सोरठ 
घमण्ड 
जड़ 
गढ़ 
कल्याण 
तात 
हाथ 
मोद 
साध 
मसात 
पाप 
जब 
सन 
सोम 
भय 
द्व्‌ 


ँ 


5.46,4 
3.4.2 
2.3,2 
6.2.2 
6.].2 
7.38,6 
3.०2 :3 
7.2"7 
5.22.]] 
47.9.4 
.46"4 


.88.3 
5,22.]] 
7.48.6 
3.7.2 
.72,3 
.70.2 
5.3[.2 
2,84.2 
5.46.7 
],2.3 
.2.9 
2.45.4 
].68.40 
5.]5.4 
4.3.4 


66 गीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 


रा राम .24.] विराट 2.50 5 हर ..4 
ल। लाज .922 तिलक .0.4 कोल 3.7 7 
बा पड़ंंब्रि !.255 तुपार 7.6.2.. पीयूष. 2-44.3 
ता सेज .7.] संसार .25.6 पारस .67.3 
हु ह्व्ति ]5.4 बहोर 5.29.2 समृह 6.6.3 


.4,.2 संस्वनात्मक बैविध्य के मुख्य आधार- 

. तनाव व अष्मीकरण-प्ललोच्य पुस्तक में तनाव की तीन श्रेणियों 
मिलती हैं। प्रवम श्रेणी सबसे अधिक तनाव युक्त व्यंजनों की है जिनमें पद के 
प्रारम्भ में प्रयुक्त व्यंजन, द्वित्व व्यंजन, संयुक्त व्यंजनों के प्रथर्मांश व्यंजन तथा 
पदान्त में प्रयुक्त व्यंजनों को रखा जा सकता है। दूसरी श्रेणी में संयुक्त व्यजनों के 
दिवतीयांश व्यंजन आ्राते हैं जो पहले से कम तनाव युक्त हैं। तीसरी श्रेणी में स्वर 
मध्यवर्ती स्पर्श व्यंजन, सघोप स्पर्श व सघोष स्पर्श संघर्षी ।ज। आते हैं जो अन्य प्रयोग- 
स्थितियों की अपेक्षा बहुत शिथिल होते हैं । ।बा, ।॥भ!। तथा ।फा के स्वर मध्यवर्ती 

उच्चारण में शैथिल्य के साथ ऊष्मीकरण तथा घर्पण का तत्व मिल 
जाता है। दो दीघंस्वरों के बीच में प्रयुक्त स्पर्श अधिक तनाव युक्त होते हैं इसमें भी 
निम्न स्वरों की अपेक्षा उच्च स्वरों के बीच में व्यंजन का उच्चारण अधिक तनाव 
युक्त होता है तथा दीर्घस्त्रर मध्यवर्ती व्यंजन की श्रपेक्षा हस्व और दीघे व्यंजन के 
बीच तनाव कम होता है । इस प्रकार तताव शैथिल्य उच्चारण-गति की तीब्रता, 
मंदता, इधर-उधर के स्वरों की प्रकति तथा पद में व्यंजन की स्थिति पर निर्भर करते 
हैं। दो ह॒स्त्र स्वरों के वीच प्रयुक्त होने पर स्पर्शों का तनाव स्वाभाविक दीघेता वाले 
हस्त स्वरों के वीच प्रयुक्त स्व॒रों की अपेक्षा अधिक होता है) अन्त्य स्व स्वरों से 
पूर्व प्रयुक्त स्पर्श तया स्पर्ज-संघर्पी व्यंजन अन्यच्र स्व॒र-्मध्यवर्ती व्यंजन की अपेक्षा 
पग्रधिक तनाव युक्त होते हैं अघोप स्पर्श तथा स्पर्श-संघर्षी व्यंजनों का उन्मोंचन 
तीच्रता के साथ अच्त॒य स्वर में मिल जाता है । उच्चारण जितनी तीब्रता से किया 
जाता है ऊष्मीकरण तथा घर्पण की मात्रा उतनी ही बढ़ जाती है । 
2. सहाप्राए व्यंजन- 
प्रस्तुत अध्ययन में महाप्राण व्यंजनों को एक अलग वर में रखा गया है । 
अलग-अलग महाप्राण व्यंजनों का वितरण अलग-अलग प्रकार का है- 
].4.-3 व्यंजन स्वतनिम तथा उनके संत्वन 
स्पर्श - 
[प।-द्वयोष्ठ य अघोष अल्पप्राण स्पर्श 
[प्‌।; पि" ] 
[प]-स्वाम/विक उन्मोचन एवं स्क्रोट से युक्त यह स्वनग्राम पद के 
आरम्भ में मिला है 


ध्वनि विचार 67 


प्‌ श्ररञन्‌अक्‌उद ई]-परनकुटी- 2.79, ; 
[प्‌ ञ्रत्‌ इ]-पति 5.3.3 
स्प्‌  ]-पन्त्य स्थिति में प्रयुक्त होने पर उच्चारण में उच्मोचत का 
आभास नहीं होता-यथा- 
जूझ पर ]-जप-7.2-23; 
[चआ प्‌" ]-चाप-7.38.3 
।फ-दवयोष्ठ्य अधघोष महाप्राण स्तशे- 
नफ]; [एु] 
न[फ ]-पद के आरम्म में इसका प्रयोग है । 
[फू आ गू उ[-फागु-2.48-, 
[फू श्र ल ]-फल-2-49.5 
#[फ्‌]-स्वर मध्यवर्ती होते पर इसमें महाप्राण की मात्रा कुछ कम हो 
जाती है। श्रोष्ठ पूर्णतया बंद नहीं होते परिणाम स्वरूप कुछ 
घर्षणु सुताई देता है- 
[न्‌ इ फू ञ्र न]+निफत-2-32-2 
।ब।-दवयोष्ठ्य सघोप अल्पप्राणण स्पशे- 
न[ब्‌], [व.] 
स्[ ब्‌ ]-इसका प्रयोग पुस्तक में पद के आरम्भ में तथा संयुक्त व्यंजन रूप 
में ।म। के पश्चात्‌ मिला है-जहाँ ये अपने स्वाभाविक रूप में 
रहता है भ्ौर श्रोष्ठ रढ़ता से स्पर्श करते हैं-- 
[ब्‌ इम्‌ आ त]-विमान-7.9.5, 
[व्‌ इम्‌ ब्‌ अ]-प्रतिविम्व--27-5 
नव, ]-स्वर मध्यवर्ती होने पर इसमें कुछ ऊष्मीकरण तथा धर्षणा की 
सात्रा आ जाती है- 
[क अब, ह ऊँ]-कबवहें-2-52:4, 
[व्‌ अर श्र व अ स ]-बरबस-5.2-2 
।भा-दृवयोष्ठूय सघोष महाप्राण स्पर्श- 
ज[भ], [से] ु 
पा भू]-पद के आरम्भ में इसका प्रयोग है जहाँ इसका महाप्राशत्व 
सघोष और हठ होता है- 
[भूञ भूआझर्‌इ[-भभरिं-5-6.6, 
[भू ऊ ख[-भुख-5-6-6 
न[भ ]-अन्य स्थितियों में इसका महात्राखत्व शिधिल रहता हुग्ना 
अघोषवत्‌ सा हो जाता है तथा स्पर्श भी (रो न होते के कारण 


68 गीतावली का भाषा शास्त्रीय अ्रध्ययर्म 


ऊष्मीकरण व धपेण सुनाई देता है- 
[लू आ भ. [>लाभ-.-50-], 
[स झ्रौभ आ] सोभा :55-3 
त्‌।-जिह वानोकोय, दन्त्य, श्रघोष अल्पप्राण स्पर्श-उन्मोचन महाप्राण 
रंजित है -- 

न[त,]; [त,]; [त,] 

[त्‌ ]-स्वाभाविक रूप में बोलने पर इसका प्रयोग मिलता है। इसके 
उच्चारण में जिह वा की नोक ऊपर के दाँतों की नोक का स्पर्श 
करती है-- 

[त्‌ ई र]-तीर-.52.6, 
[प्‌ ऊ न |-वून-2-25.2 

लत ]-यह ।त। का अग्रदन्तीय संस्वत है । इसके उच्चारण में जिह वा 
ऊपर के दाँतों की तोक का इस प्रकार स्पर्श करती है कि कुछ 
भाग उससे आगे भी निकल जाता है तथा जिह वा दाँतों के पृष्ठ 
भाग को पुर्णात: आवृत्त नहीं करती । स्वर-मध्यवर्ती ।त। द्वित्व 
में इसका प्रयोग मिलता है-बथा- 

[म्‌ झ्न तू तृ अ्|-मत्त--63-3 

_[ति ]-यह्‌ ।त। का पश्चदंत्य संस्वन है । इसके उच्चारण में जीभ को 
नोक दाँंतो के पृष्ठ भाग को पूर्णतः आवृत्त कर लेती है इसकी 
प्रयोग स्थितियाँ ये हैं- 

[प्‌ भाँ त्‌ इ]-पाँति-7-3-5, 


(क्‌ आा न त्‌ ३)-काँति-6-5.2 
।थ।-जिह वानोकीय दन्त्य अ्रघोष महाप्राण स्पशे- 
र[थ्‌ |-इसका एक ही संस्वन सिला है- 
० [थ्‌ |-स्वाभाविक रूप से बोलने पर इसका प्रयोग मिला है 
[थ्‌ श्रो र]|-थार-.73.6, 
[प्‌ श्र थू इ क |>प्थिक-2-] 6.] 
।द्‌।-जिह वानोकीय दन्त्य सघोप अल्पप्राण स्पश-।त। के समान ही इसका 
भी सस्वनात्मक वर्सान व वेविध्य है- 
+[द्‌, [द |, [द] 
न[ द्‌ |-स्वाभाविक स्थिति से इश्नका प्रयोग मिला है- 
[द्‌ ओ न्‌ आ ]-दोना-3-7.5, 
[द इ न ]-दिन-3,] 5.] 


ध्वनि विचार 69 


>[द्‌ ]-अग्रदन्तीय संस्वन है। ।ध। के संयुक्त होने पर इसका प्रयोग 
हुआ है- 
[स्‌ इद घ्‌ अ्र|-सिद्‌ घ-2.49.6 
ऊ[द, [यह पश्चदन्त्य संस्वन है। पुस्तक में इसका प्रयोग इस रूप में 
मिला है- 
[कूञ्रत द, उ क]|-कंदुक-6.3.2 
घा-सधोप जिह वानोकीय दन्‍्त्य महाप्राण स्पश- 
र्[घ |-इसका एक ही संस्वन है- 
र[घ ]-स्वाभाविक स्थिति में इसका प्रयोग मिला है- 
[घ्‌ अर न्‌ उ]-घनु-.53.2, 
[गरध झ र|-अधर-].34.3 
ट[-जिह वानो झोय परश्चवर्त्य्थ अ्रधोष पश्रल्पप्राण स्पर्श-इसका उन्मोचस 
महाप्राण रजित है । 


हद ॥ [5.7 
न[5 ]-सामान्य सस्वव हैं। पद के आदि में इसका प्रयोग भिल्रा है-- 
यथा-- 


[ट्‌ ए क]-टेक-5.49-4, 
[ट्‌ ऊटूय्‌ओ]-टूटयो-.93.-2 

+ [ट]-यह पश्चीभूत संस्वन है। इसके उच्चारण में जीभ की नोक 
ऊपर की ओर मुड़ती है और मूर्घा के अग्र भाग का स्पश करती है 
इसका अयोग अनु वासिक स्वरों और खा। के वाद मिला है- 


2 


बि झट इ-बांटि-.44., 
कि प्ननट्आ क]-कंटक-2.5«2 
ढ-जिह वानोकीय पश्चवत्स्थें अ्रघोष महाप्राण स्पर्श- 
दि] [ठ,] 
स्ठ]-सामान्य संस्वतत है। पद के आदि, मध्य, अन्त में इसका प्रयोग 
है-यथा- 
[द्‌ श्रौ र]-गौर-6.4.3, 
[कूञ्रदूइ त]-कठित-2., 57.3, 
[स्‌ झो रु अर 5]-सो रठ-7-9-4 


40. गीतावली का भापा शास्त्रीय अध्ययन 


जल [ठ]-नाविक्य स्व॒रों के साथ इसका प्रयोग मिला है | ये पश्चीभूत 
संस्वन है-यथा- 
की 
गिझ्ाठइ]-गांठि-]-88.3 
।ड_-जिह वानोकीय सधोप ग्रल्पप्राण स्पर्श- 
॑[ड, ड़] 
[| ड्‌|-पद के आदि में, मध्य में दिवत्व रूप में; तथा अच्त में संयुक्त 
रूप में ।णा के बाद इसका प्रयोग है- 
[ड_ श्रा र]-डार-2.47.5, 
[उड़ डअग्‌श्रन]-उड्डगनत-7.6.2 
[बू अम्‌शभ्रन्‌डझ]-घमंड-].46.4 
5 [ड़ |-यह उत्त्षिप्त स्पर्श है । ।डा के साथ पुरक वितरण में श्राता है। 
पद के आदि में इसका प्रयोग नही है-- 
[ब्‌ श्रड्‌इ त]-तड़ित-7.7.4 
[ज्‌ञ्रड़ |-जड़-.88.3 
ढू।--जिह वानोकीय सघोप महाप्राणु स्पर्श- 
>[ढ]; [ढ़] 
८ [ढ्‌ ]|--यह सामान्य संस्वन है इसका प्रयोग पद के प्रारम्भ और मध्य 
में मिला है-- 
[ढ आार्‌अत्‌ इ|-ढारति-5.9.2, 
[स्‌ उढ़झ र]-सुढर-.76-3 
>+ढ़ि।--यह ।ढ। का उत्तक्षिप्त संस्वन है ।ढ॥ के साथ पूरक वितरण में 
आ्राया है--पद के मध्य और अन्त में इसका प्रयोग मिला है-- 
[गू श्र ढ़ |-गढ़-5.2 2. [., 
वि ञभ्नढूआय्‌ ओ]- बढ़ायो-6- 4-3 
क्‌।-जिह वापश्च कणप्ठ्य अधोप अल्पप्राण स्पशे--स्फोट कुछ महाप्राण 
रंजित है । 
सनक, [क] 
ल्‍ कि[यह सामान्य संस्वतत है--पद के आरम्भ में प्रयुक्त होता है- 
बथा--- 
कि आ र्‌ भो][-कारो-2 67.2, 
कि अटय क]-कठक-5.4 6 «4 


ध्वनि विचार 7 


& [क |-पदास्त में अ्रबोप स्वरों के पूर्व इसका प्रयोग होता है जहां 
महाप्राण॒त्व की मात्रा कुछ बढ़ जाती है-- 


बीज 


[आ के ]-आंक- .85.] 
हि, आ टू ब्र क]-हाटक- .25,2 ये 2 20५ 8 
श्ला ० 
।ख्‌।-जिद्नवापश्च कंठय ग्रधोप महाप्राण ८ 9 
[ख]-इसका एक ही संस्वन है । [6 के आदि, ,सधश्य और अन्त में 
इसका प्रयोग मिला है-- पर 
[खूग्म रु ओ|-खरो-5.33.3) # ._ हि 2) 
> ६ हैं 
[र॒श्नख अव्‌ आ र्‌ ए])-रखवोरे-3.3.3, . 227 
[प्‌ आ ख |>पाख-]-4.2 न 23 उरम ट 
।ग-जिह्नवापश्च कंटय सघोप अल्पप्राण स्पर्ण- 
“[ग ]-इसका एक ही संस्वन है जिसका प्रयोग पद के आदि, मध्य 
ओऔर अन्त में मिला है- 
[ग अ न ई|-गतो-5.5-42, 
[अ्गओआ ध्‌ उ|-अ्रगाधु-6-.-5, 
[म्‌ थ्रा ग |>भाग-5-4].[ 
।त्।-जिह्ववापश्च कंठ्य सधोप महाप्राण स्पर्श- 
+[घ |-एक ही संस्वन है जिसका प्रयोग पद के आदि, मध्य और अन्त 
नें मिला है । 
[घ आ ट]-घाट--4 2.3, 
[वृझ्घ अन्‌अह आ|-बघनहा-! .3.3 
[श्र घ-अघ-6.272 
स्पर्श संछर्ष$- 
च'-जिह्ल॒वाग्र तालब्य अघोपष अत्पप्राण, स्पर्श संघर्पी- 


ऊ[च],[च] 

ऊ[च]-यह ।च। का सामान्य संस्वन है-पद के आदि, अन्त में इसका 
प्रयोग मिला है- 
[च्‌ अ प्‌ |-चाप--68.8 , 
[म्‌ श्ला र्‌ई च ]-मारीच-6.--2 


के 


%0९०.70 * ७०३ / १ ! 


+ 
क्र ५ डे 


| च]-इसका प्रयोग ।छा के पूर्व संयुक्त रूप में मिला हैं जहाँ पर यह 
स्पशे-ध्वनि के रूप में उच्चरित हुआ हैं- 


72 गीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 


[र्‌ञझ्म चू छू अ क |-रच्छक- .22.6 

।छ|-जिह्ठग्र तालव्य अघोष महाप्राण स्पर्श संवर्षी- 

_[छ |-इसका एक ही संस्वन है जिसका प्रयोग पद के आदि, मध्य 

शोर अन्त में भिला है- 
[छ ओ र२]-छोर-] .73.4, 
[उछ आ ह ]->उछाह-.4.4, 
[र ई छ|-रीछ-7.38-6 

।ज्‌।-जिह्नवाग्न तालव्य सघोप अल्पप्राण रुगशे संधर्षी- 


+[ज_], [ज] 
[ज_ |-सामान्य रूप में इसका प्रयोग मिला है- 
[ज श्र १]-जप-7.2.23, 
[ञ्रज्‌ इ न]-अ्रजिन-2.79.2 
[स अ्मआ ज]-समाज-5.5.3 


“+[ज]-दी्थ होने पर इसका प्रयोग मिला है जहाँ प्रथमांश स्पर्श-घ्वनि 
रूप में उच्चरित हुआ है- 
[स्‌ञ्र लू श्रज_ जू अ]-सलज्ज-].89.5 

कर -जिह्नवाग्न तालव्य सघोष महाप्राण स्पशे संबर्पी- 

[भा] “इसका एक ही संस्वत है जिसका सामान्य रुपेण प्रयोग 
हुआ है-! 
[भू झ प]कप-7.4 5, 
[न्‌इरुअ भू भर र]-निरभर-2.49.3, 


भि आ भ]-भाँक-7.2.]7 
ऊष्म व्यंजन ; 
।सा-जिह्वाग्रीय पश्च-दन्त्य ऊष्म-इसका प्रयोग पद के झादि. मध्य अन्त 
स्वत्र मिला है- 

[स॒एज]-सेज-.7., 

[सृअभ्रनू सू आ र]-संस्तार-.25.6, 

[पूआ रुआअ स|->पारस-] .67-3, 
ह।--कंठद्वा रीय संधर्षी ध्वनि है इसके दो संस्वन मिले हैं -- 


[हि], [हि ] 


ध्वनि विचार हु 73 


> [ह_]-यह अ्रघोप स्वनग्राम है जो पद के ग्रन्त में मिला है- 
[उ छ झा ह]-उछाह-.2.24, 
[स्‌ भ्रम ऊ ह]->समूह-6-6.3 
च्ट हि ]यह सघोप स्वनग्राम है जो पद के आदि में या स्वर मध्य- 


चर्ती होने पर होता है-- 
ह इ त]- हिंत-.5,4, 
न 


[व्‌ भ्रह श्रो र[--बहोर-5.29 ,2 
> 


तासिक्य व्यंजन - 
।म्‌। - दृवयोष्ठय नाधिक्य-पद के आदि, मध्य, अन्त में प्रयुक्त होता है-- 
[म्‌ ई त|-मीत-.22.2, 
[कू भ्रम अ 5] --कमठ-5,22, 8, 
[सझो म]--सोन-.68.0 
न्‌)--दंत्य चासिक्य-इसके चार संस्वनात्मक वैविध्य हैं- 
नतन्‌],, सखि, लि), [४] 
रे [न |-इसका प्रयोग पद के आरम्भ में, स्वर मध्यवर्ती होते पर, 
स्वर के पश्चात व दीघे होने पर पाया गया है- 
[न झ य|-वय-7,24,, 
[मृझ त्‌ उ]+-मचू-,66., 
[म्‌झसू्‌झआ त]--मस्तात-2.8 4.2, 
[प्‌ रुझ स्‌ ज न्‌ न अ]-पअ्रसल्त--4«2 
+ [ ण [--इसका प्रयोग मूर्थन्य व्यंजनों के पूर्व मिला है- 
[घ झें णु ट्‌ आ]-घंटा- -2«3, 
[म्‌ झ ण ड़ झ न |-- मंडव-.22- 
रू [व ]-ततालब्य स्पर्श संघर्षियों के पूर्व इसका प्रयोग मिला है- 
[चुआझं बच अ र्‌ई क]-चंचरीक-.08.8, 
[क्‌ भ्र॑ जब जु अ ]|-कंज-! 25.4 
पतन [ ड़ [--कंठूय स्पर्श व्यंजनों के पूर्व इसका प्रयोग है- 
[अडूकउस]-कअ्ष कुस-7.25.3, 
[ज्‌ अर ड् घ्‌ जझञा|--जंघा-.73.3 
पाशिवक-- 
लू।--ढत्य सघोप झ्ल्पग्राण पाश्विक- 


74 


गीतावली का भाषा शास्त्रीय भ्रध्ययन 


न्नब, [व- 


++ [ल्‌]-सामान्य रूप से इसका प्रयोग है- 
[लू झा ज]--लाज-.9 2.2, 
[गृ अ लू ई]--गली-] .2«5 
लत ल] --इसके उच्चारण में जिह वा अग्रोभूत होती है साथ ही धोपत्व 


की मात्रा कुछ कम हो जाती है। पद के श्रन्‍न्त में ओर दीर्घ रूप में 
इसका प्रयोग है- 
[क्‌थ्रो ल ]-कोल-3-7.7, 
[पृगञ्मलू लू झ व|->पल्लव-3.0,2 
लुण्ठित--- 
।२ ।--जिह वानोकीय पश्चदन्त्य सघोष अ्रल्पप्राण लुण्ठित-पद के आ्रादि मध्य 
और अन्त सर्वत्र प्रयुक्त है । 
[र्‌॒आ थ]--रथ-3-8,, 
[म्‌ श्रर्‌अ क्‌ श्र ट]--मरकट--5,22.4, 
[क्‌ भर र]|--कर-3.9 . 
].4,],4 व्यंजन संयोग- 
श्रालोच्य पुस्तक में दो से लेकर तीन व्यंजनों के संयोग मिले हैं दो व्यंजनों 
के संयोग प्राथमिक स्थिति में 28 व माध्यमिक स्थिति में 63 हैं । (शब्दान्त 
संयुक्त व्यंजनों में ।श्र। मिश्रित है--इस आधार पर) अन्तिम स्थिति में 
कोई व्यंजन संयोग नहीं है। ।फा और ।ढा का संयोग किसी स्थिति में नहीं 
हैं। तीन व्यंजन-संयोगों की संख्या कुल 8 है। इस प्रकार कुल व्यंजन संयोग 
99 हैं जिनका वर्णन तालिका सहित निम्न प्रकार से किया गया है। 
दो व्यंजनों का संयोग 
प्राथमिक स्थिति- इस स्थिति में व्यंजन संयोग का क्रम व्यंजन +-।य।, ।र 
और ।व। है- 


- व्यंजन न ।य।--प्राथमिक्र स्थिति में ।य। के साथ नमिम्त संयोग मिले हैं- 


क्कय क्यों 4.08,7 खूकय ख्याल ,55.6 


गूकय ग्यानी .6.0 ज्‌+य ज्यों 5.46.2 
त्क्य त्यों ].4.3 द्ऊंय दूयुति 2.23. 
वब्कंय ध्यान 2.6.3 न्‌ऊय न्यारी ].25.4 
प्‌्केय प्यारे .36.2 ब्‌्+य ब्याह .]05,.2 


लू+य ल्याइ .90.0 वृकय व्यवहार 7.34.5 
जूत्टप्केय श्याम ““ स्थाम ].23.2, .26.7 


ध्वति विचार 


75 

2. व्यंजन -- र- 

क्‌-+-र ऋोध .25.6 ग्‌+र ग्राम 2.5,3 

त्‌ृ+र त्रासहारी .25.6 द्‌+र द्रोही 2.8.3 

पू+र प्रेम .8.5 बू+र ब्रत .67.2 

भू+र अआ्ाजत .25.3 श>“स+र श्वन”>स्रवन .25.4, .38.3 
3... व्यंजन + ।वा- 

क्‌+व वे है 6.]7.2 चून-व च्वैहेँ 6.7.2 

ज्‌कव ज्वर .68.4 द्‌+व द्विज ).25.4 

घकव ध्वहाौ 2.62.] सूकव स्वयंवरु .75.] 

हकव ह॒वहै .95.] 

साध्यमिक स्थिति 

इस स्थिति में व्यंजन संयोग का क्रम इस प्रकार है- 

. व्यंजन -+धय- * 
क्‌ू+य तक्‍यो 2.68.3 ख+य राख्यो 7.3.5 
गृू+य जम्योपवीत .08.6 घृर--य लांघ्यो 5.6.2 
चू+-य बच्चो 7.3.2 जू+य सृज्यो 7.3[.5 
भूफय सुभूयों 5.2.5 टुकंय दूटयो .98.] 
ठुकय उठयो 2.50.4 सूकय कारुण्य 2.62.3 
ड्कय उड़यो 2.] .4 त्‌+य नृत्य .2.4 
थू+य सथ्यो 6..5 दुकय जदयपि .6.2 
घकय मध्य .2.2 नू+य पुन्य .9.4 
प्‌ू+य सौंप्यो 6.09.5.. बूर्क्य दिव्य ॥,84.3 
भूकय॑ अलक्य 2,32.,2 म्‌ू+य जनस्यों 6.)4.2 
र्‌ऊय हर॒यो 7.38.3 लू+य कल्यान 7.32. 
प्‌ू+य भाष्यो 5.46.4 सू+य बस्यों 7.0.2 
ह+य कहयो 4.2.] 

2. व्यंजन +॥२- 
ककर पराक्रम 5.5.3 गू+र ग्रग्न 6..9 
जू+र बचत .08.7 त्‌ू+र सन्रुसुदत 7.34.3 
दु+र चद्धमहि. 2.4.3 घृ+र. षडल्नि .25.5 
पू+र विप्र ] 4.5 सू+र सुत्रवारी 525.4 
सू+र< आखम... 7.33. 

3, व्यंजन -+- व 
दु-व. भरूवाज 2.68.3 घृ+व मारघ्वज 7.6.3 


46 गीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 


सूकव॑ विस्व .86.4 


4. व्यंजन + ।ह- 
न्‌+ह चिह॒न .25.3 म्‌+ह तुम्हहि 2.2.4 
लूऊह मल्हाइ्‌ 20.2 | 

5. हरी स- 


ह+म ब्रह्म 7.38.] 
6. व्यंजन न-॥त।, ।ना, ॥6।), ॥ठ।, ।ब।, ।प्‌।, ।स।- 
क+त सुक्तामाल .08.6 प्‌+त तृप्ति 5.49.3 


स्‌क्त अस्तुत्ति 7.38.9 रृकन पर्तसाल 37. 
प्‌न-ट हद्घ्टि .]2.2 प्‌ू+ठ वसिष्ठ. .6.0 
रृकंब॑. गर्व 7.2.]8 चुकप उत्पति 2.7.4 


त्‌्क+स श्रीवत्स 3.26 3 
“व, स्वर्गीय (अह्पष्राण + महाप्राण)- 
च्‌+छ रच्छ्क ]226 तच+न श्त्न .25.2 
द्‌+ध सिद्ध 2.49.6 वू+ध बन्धु 2.33.] 
खुरकूड कुण्डल . 7.9.5 मूकव अ्रवलम्व 5.].4 
8. दीघे व्यंजन- 


क्‌+क चिक्कन .25.5 ग्‌+ग दिग्गज 5.22.8 
ज्‌्ऊ+ज सलज्ज 4,69.35 डंडे उड्डगन 7.6.2 
त्‌+ऊत मत्त 4:2035%3 नुकत अ्रसन्‍्तच॑ .4.6 
ल्‌ू+ल पल्लब 3.]0.2 


.4.].4-2 तीच व्यंजनों का संयोग-- 

आालोच्य ग्रत्थ मे तीन व्यंजनों के सबोग अत्यल्प है। ये सबोग अ्रधिकांशतः 
माध्यमिक स्थिति में नासिक्य चिहू न (अनुस्वार )+सब्गीय व्यजन-श्रन्य व्यंजन 
के साथ है| केवल दो स्थानों पर निरनतुनासिक सथोग मिले हैं- 


यथा--- 
ज॑न्र ,4.3 भंज्यौ .90.7 
मुनीन्द्र .25.6 विव्य 2.44.] 
संभ्रम 2.55.3 संग्राम 73[.4 


निरतुनासिक संयोग-- 
निर्च्यलीक 7.3.6 पुलस्त्य 6.!.8 


ध्वन्ति विखार | 


].4.4 खण्डेतर स्वविस 


* 4०“ 


विता खण्डेतर स्वन्तिमों के ख़ण्डीय स्वनिर्मों (पद-जादयादि) का विचार 
पूर्ण नहीं हो सकता अतः उनका सामान्य वर्णन नीचे दिया जार रहा है. 
].4.2.] विभाजक-ये दो प्रकार के मिले हैं- 
.4.2..] शब्दान्त विभाजक-शब्दान्त विभाजक के दुछ उदाहरण पुस्तक में 
प्राप्य है जो इस प्रकार हैं- 


।कोही। .7).2 (क्रोघी) कोन ही। 2.]9.4 (कौन थी) 
दिखिहा। .48.2 (देखूगा) [देखि+ हीं। 2.9.] (देखकर में) 
(ताक्े। ].64.4 (ताका है) ।मनोहरता+के। 2.24.। (मनोहरता 


शब्दान्त विभाजक में जो स्व॒र संस्वच केवल पद के अ्वन्त में मिलते 
उच्चारण के नध्य में मिलते हैं तथा मध्य में व्यंजन कुछ अधिक तनावयुक्त हो 
जो केवल एक पद के उच्चारण में उन्ही स्वर स्थितियों में इस प्रकार उच्चरित 
नहीं होते । ये व्यंजन संस्वन (उच्चरारण-मध्य मे प्राप्त) पद के आदि में मिलते 
वाले संस्वनों के समान हः जाते हैँ 
आलाच्य पुस्तक मे इसी प्रकार के कई उदाहरण मिले हैं- 
.4,2..2 बाक्यान्त विभाजक- 

नीचे दिए गए स्वल्पान्तर युग्म से वाक्‍यान्त विभाजक को समझा जा 


मन 
ढ्‌ 
ते 


| /ज92 जप 5 


थे 


सव ता है- 
।मागघ | सूत | द्वार वंदीजन [॥ /“..6 (अपूर्सा गणना 
।मागघ | सूत | भाट | नठ | जाचक | ॥॥ “४ .2.2] (पूर्ण गणना ) 


.4.2.2 सुरसरणियाँ-ये दो प्रकार की हैं- 

.4.2.2.] अ्त्य सुरत्तरणियाँ-इनके तीन भाग हैं- 

() आारोही । | ।, (2) अवरोही । $ ॥, (3) सम ॥-+- 
इनके स्वल्यांतर युग्म इस प्रकार है- 


'ये श्रवधेस के सुत दोऊ | ॥ | .63.] (सामान्य कथन) 

ढोटा दोड काके हैं | ॥ । .64.[ (प्रश्न ) 

।रहहु भवन-+।। । 2.5.। (आज्ञा) 

हों रहों भवन [॥ । 2.7.3 (आज्ञा को सुनकर झाश्चर्य 
युक्त प्रश्न) 


.4.2.2.2 श्रन्त्येतर सुरसरणि- 

यह केदल एक है-वलवधंक ।वा जो शब्द के पूर्व स्थित है । जिस शब्द पर 
बल दिया जाता है, उसका सुर आरोही होकर परवर्तों शब्द पर घीर होता है 
बलवर्धक ।व। तथा श्रतुपस्थिति का स्वत्पान्तर युग्म इस प्रकार है 


१8 भीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्यये्त 


।सव भाँति विभीषन की बनी | ॥ । 5.39.] (सामान्य कथन) 
कहो ।ब। क्यों न विभीषन की बने | ॥॥ 5.40.] (क्यों पर बल) 
वबलवर्घक ।व। के स्थान भेद का स्वल्पान्तर युग्म- 

।रिपु रत जीति ।ब। राम राउ आए | ॥ । 6,22.7! (राम पर बल) 
। ।ब। रिपु रन जीति राम आए | ॥ । 6.23.] (रिपु पर बल) 


.4.2.3 सुरसरणि परिवर्तेक- 

ये तीन है-मोड ।मा, प्लुति ।प।, अतिरिक्त ध्वनिवर्धक घर 
.4.2.3.[-मोड ।मा-इसका प्रयोग सभी ग्रन्त्य सुरसरणियों के साथ हो सकत 
है ।। | मा का उच्चारण आरोहरा की समाप्ति पर क्षर्िक अश्रवरीहरा-युक्त होता 
है। ।५४।:।+ मा का उच्चारण श्रवरोहणु की समाप्ति पर क्षणिक आारोहरण के 
साथ होता है । 2 ; ।-+म। का उच्चारण समसुर की समाप्ति पर क्षणिक श्रारोहण 
के साथ होता है। मोड और उसकी शअनुपस्थिति के स्वल्पांतर युग्म इस 
प्रकार हैं- 

।काहे को खोरि कंकयिहि लावौं | । 2.63.! (साम.न्‍य प्रश्त) 

ग्राली री श्रव राम लपन कित ह्व हैं[म। । 6.8.] (विवादयुक्त 


प्रश्न) 
।रंगभूमि आए दसरथ के किसोर हैं | ॥। .73.] (सामास्य कथन ) 


।ऐई राम, लपत जे मुनि संग आए हैं |म॥। .74.] (निश्चयात्मक 
कथन ) 
निकु, सुमुखि, चित लाइ चितौरी-+ ॥ । .77.] (सामान्य आज्ञा) 
.4,2.3.2 प्लुति ।१।-प्लुति और उसकी श्रनुपस्थिति के स्वल्पान्तर युग्म इसा 
प्रकार हैं- 
।कब देखौगी नयन वह मधुर मूरति | ॥॥ । 5.47.] (सामान्य प्रश्न) 
कहु, कवहु देखिहों श्रालो ! आरज सुवन | प॥ । 5.48.] (निराश 


प्रश्न) 
'मिरे जान इन्हें वोलिवे कारन चतुर जनक ठयो ठाट इतौरी | ॥॥ 4.77.3 


(सामान्य संदेह) 
भिरे जाव जानकी काहु खल छल करि हरि लीन्ही | प॥। 3.6.3 (मात्रा 
में अधिक संदेह) 
.4.2.3.3 श्रतिरिक्‍्त प्वनिवर्धक-ध।-अ्रतिरिक्त ध्वनिवर्धक तथा उसकी अनु- 
पस्थिति का स्वल्पान्तर युग्म इस प्रकार है- 
श्रिय निठुर बचन कहे कारत कवन | ॥| । 2.8.] (सामान्य प्रश्त) 

क्यों मारीच सुबाहु महावल प्रवल ताड़का मारी [ घ।। .09.2 

(साशचय प्रश्न) 


पद विचार 79 


पद विचार 
2.]-वामिक- 


2.].]-प्राप्तिपदिक- 


आलोच्य ग्रस्थ में प्रयुक्त तामिक प्रातिपदिकों को दो प्रकार से विभाजित 
किया जा सकता है-[]) वे प्रात्तिपदिक जो रचना की रृष्ठि से केवल एक भाषिक 
इकाई हैं, (2) वे प्रातिपदिक जो दो रुपिम या शब्दों मे मिलकर रूप में एक हो गए 
है। दोनों प्रकार के प्रातिपदिक अलग-अलग विश्लेषित किए गए हैं । 


2..)].]-एक भाषिक्र इकाई वाले प्रततिपदिक- 


गीवावली में प्रयुक्त एक भाषिक इकाई वाले नामिक प्रातिपदिकों को स्व॒रान्त 
भ्रौर व्यंजनान्त दो वर्गयो में विश्लेष्य समझ गया है । अन्त्य संयवत व्यंजन स्वरान्त 
समझे गए हैं ओर व्यंजतान्त से अलग कोटि में रखे गए हैं। इप्त प्रकार प्रयकत व्यंज- 
नान्‍्त प्रौर स्वरान्त प्रातिपदिकों में प्रत्येक की कुल संख्या इस प्रकार है । 

व्यंजनान्त प्रातिपदिक "न ५०००० ०० * 888 

संयुक्त व्यंजन (प्रकारान्त ) "० 04 

आकारान्त प्रातियदिक "***९*०००*०***45 

इकारान्त प्रातिपदिक "००००० ०० 267 


ईकारान्त प्रातिपदिक */० ० हल 7 "० ]34 

उकारान्त प्रातिपदिक +४००००७५०००००००००० *००००००० 6 7 

ऊकारान्त प्रततिपदिक (१९ ९००६०५५९ >+०३७०००००७ 9 

ओका रान्त प्रातिपदिक १९ ४००००००३ ३००० ५)००५४ ०० ०» 4 

कुल नामिक प्रात्तिपदिक 558 
उदाहरण --- 


2..] .].]-व्यंजनान्त-प्रत्येक अ्न्त्य की कुल संख्या कोप्ठक में दी गई है तथा कुछ 
उदाहरण-आवृत्तियों के साथ दिए गए हैं ।- 
“क (70 प्राति0) 
आँक .94.2 उलूक .73.5 
कोक .37.2 तिलक .32.4 (27 बार) 
पिनाक .80.2 ( 9वार) हाठक 7.2!.] ( 4 बार) 
-ख (2 प्राति0) 
अनख ].84.7 ठुख .47.] (29 वार) 
नख 74.2 (]6 वार) मन्न .02,.4 (5 बार) 
सुख 5.28.6.. (88 बार) 


80 पर 


-ग (36 प्राति) 
उसग .4,4 


जाग 7.2.23 (5 बार) ड्ग 
न्तग 2502 7:2० प्ग 
सोग 2,58,4 
-ध (2 प्राति0) 
अ्रध 6.2.2 (5 बार) श्ररघ 
-च (5 प्राति) 
आँच 4.].2 कच 7.2.4 
नाच .94.2 पेच .86. 
मारीच 6..2 सोच. 2.34.3 
“छ (। प्राति0) 
रीह. 7.38.6 
-ज (8 प्राति0) 
ग्रज 7.38.] काज 2.4.4 
तेज 2.79.4 रूज .53.2 
समाज 5.5.3 
-भे (2 प्राति0) 
भाँक 7.2,7 साफ 7.20.] 
-ट (25 प्राति0) 
कपट 6.].] (7 बार) तट 


पट 7.22.4 (।4 बार) ललाट 
सुझट 5.3.2 (3 वार) 
-ठ5 (7 प्राति0) 
कमठ 5.22.8 पाठ 6.]5.2 
सोरठ 7.9.4 साठ 4.,2 
-ड (अ्रभाव है) 
“ढ़ (अभाव है) 
“ड़ (4 प्राति0) 
जड़ .88.3 (6 आ0) नीड़ 
योड़ 2.69.3 मूड़ .7.3 
"ढ़ (2 प्राति0) 
गढ़ 5.22,]] राढ़ ].95,] 


“ण (2 प्राति0) 


(3 बार) कागा 


गीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 


].29.3 
2,27.4 
2,3,2 


(3 बार) 


.6! .2 


(8 वार) 


(23 वार) 


(8 बार) 


5.22.] 


.22,7 (2 बार) 


.26.2 


पद विचार 


्न्पे 


नये 


जाल 


8 


व 


चने 


न्ज्प 


जफ 


नव 


भें 


कल्याण 7.8,6 
(4 प्राति०) 
आखत 5.6.6 
चरित .0.4 
लात 5.206.] 
ह्ति .5.4 
(। प्राति०) 

अरथ 6.5.2 
तीरथ 7.5.] 
हाथ ].72.3 
(25 प्राति०) 

गोद .0.2 
पद ,58.] 
सरद 7.7.]] 
(3 बार) 

क्रोध 6.2.5 
गीघ 5.43.] 
साध 5.3.2 
(54 प्राति०) 
आनत .34,4 
तन 2.29,6 
रन .50.3 
(24 प्राति0) 

अनिप 2.49.4 
पाप 5.6.7 
साप .66.2 
(2 प्राति0) 

गुलुफ 7.7.4 
(8 प्राति0) 

करतव 7.34.5 
जीब 2.28 «3 
(5 प्राति0) 

त््भ 2-45.4 


ब्राह्मण 


कपोत 
भरत 


सुत 


(9बार) 
(3 वार) 


गाथ 


यूथ 
(4 बार) 


त्तद 
रद 


(! वार) 
(27 वार) 
(] बार) 


(4 बर) 
(0 बार) 


द्ध 


चौगान 
(7 बार) पन 


(।] वार) 


चाप 


(9 बार). छा 


ड्फ 


दब 
(5 बार) राजीव 


(25 बार) लोभ 


बिराघ 


8] 
].2.8 
2.47.]] 


.42.] 
..4 


(55 बार) 
(32 बार) 


45]9%5 
2.48.2 


].68.7 
7.0.2 


5.37.2 
7.38.4 


].22.3 


.89.] (7 बार) 


].68.8 
].79.3 


(23 बार) 
(46 बार) 


.2.3. (5 बार) 


.2.5 
7.6.6 (5 बार) 


.25.6 


82 
सलभ 5.8.2 
गरभ 5.22.3 
-म (42 प्राति0) 
करम 6,7.2 
चम 5..2 
राम .9.6 
हिम 2.5.2 
-य (43 प्राति0) 
काय 2.28.3 
तनय .[.7 
हृदय 5.7.4 
-र (35 प्राति0) 
अंकुर 3.7.5 
दवार 7.3.4 
पर 3.8.2 
-ल (74 प्राति0) 
काल .96.6 
तेल 5.6,4 
सेल .95.] 
-व॒ (2 प्राति0) 
कुस्व. 2.48.2 
लव 7.36.] 
सिर .8.5 
-प (2] प्राति0) 
चष 7.4.5 
पीयूष 2.44-3 
हरप 7..5 
-स (45 प्राति0) 
अंकुस .25.3 
देस .803.2 
हरस 65.22.4 
श ([ प्रतति0) 
केश .33.3 


(7 बार) 
(8 वार) 


(4 बार) 


(30 बार) 


(3 बार) 
(8 वार) 


(4 वार) 


(4 वार) 
(0 बार) 


(6 बार) 


गीतावली का भाषा णास्त्रीय अ्रध्ययन 


लाभ 


चरम 
रोम 
सोम 


जटाय 
पिय 


चर 
ठाकुर 
ससुर 


चंगुल 


पाटल 


देव 
जव 


तोष 
सेप 


केस 
रस 


.70. 


7.36.3 
]68.,0 
].08.]0 


(6 वार). 


7.3[.4 


7.36.4 (6 बार) 


2.45.4 
5.30.2 
7.32.2 


3.8. 
2,47.4 


.0.2. 
.2.9 


(3 वार) 


.38.2 


7.3.8 (4 बार) 


7.77.4 (3 बार) 
2.48.4. (6 बार) 


पद विचार 83 


“है (25 प्राति0) 
उछाह .4.]4 (9 बार) करह .29.2 


दाह 5.4.4 समेह 7.30.3 (53 बार) 
2...4 ,2-स्व॒रान्त प्रातिपदिक : 
अकारान्त संयुक्त व्यंजनों के उदाहरण व्यंजन संयोग के अन्तर्गत दिए गए 
हैं शेप अच्त्यों के उदाहरण प्रकारादि क्रम से निम्नलिखित हैं-- 


स्वरों से ([0) प्ररगजा .].8 उमा .5.6 
क वर्ग से (!7)  कठुला .34.3 घंदा .2.3 
चवगेतसे (22). चना 7.3.7 भरना 2.47.0 
टबर्ग से () ढोटा ).56.] 
त वर्ग से (6) ताडुका ,55.6. दोना .7.] 
प्‌ वर्ग से (44). विदा 7.343 बेढा .67. 
रकार से (7) राजा 5.39.5 रेखा .08.5 
लकार से (8) लरिका 2.73.3 लालपा 2.35.4 
सकार से (9) सपना 3.7.4 सुमित्रा 3.7.6 
हकार से () हिडोलना 7.8. 
"अल 
स्वरों से (6) अतिथि 5.38.3. ब्लागि 5.!6.5 
क वर्ग से [4]) कृषि 5,0. खरि 5.40.4 
च वर्ग से (7) चांचरि. 7.22... जोगि .55.8 
टवर्ग से (4) डोरि ].43.3 डिंठि .2.2 
तवर्ग से (32) तरनि 8.38.2.. तिमि .08.9 
पवर्गंसे (58) फनि 7.3.3 सुनि 5.37.3 
रकार से (2) रवि .65.3 रीति 2.3.] 
लक्कारसे (4) लोइ 5.5.6 लवनि .06 4 
सकारसे  (2!) ससि 7.33.4 सिखि 7.48.4 
हकार से (2) हरि 4.2.3 हानि 7.32.4 
हर ] 
बल 
स्वरों से (॥) अंगुली 7-7.4 गवनी .58.2 
क वर्ग से (20) कछौटी. .44.[ घरी. 7.34. 
चवर्गसे (2!) जती .55.8 जननी .25.5 
टठ वर्ग से (4) टठई 5.37.4 डॉडी 7.9.3 


तब से (2) दामिनी 7.5. घरनी 2.50.4 


84 


प वर्ग से 
रकार से 
सकार से 
हकार से 


(46) 
(6) 
(9) 
(5) 


श्रावश्यक निर्देश : 
श्रालोच्य ग्रन्थ में कही कहीं एक ही शब्द इकारान्त व ईकारान्त दोनो 
ही रूपों में प्रयुक्त हुआ है यथा तुलसि-तुलसी, आलि-आली-ऐसे शब्दों को एक ही 
स्थान पर गिना गया है-ऐसे शब्दों की संख्या 8 है । 


न्ठ 


गीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 


पदुली 7.49.3 
राजघानी 7.38.,9 
साढ़ी 537.2 
हेली 2.26.3 


बंदी 
खनी 


2.5.] 
.58.] 


सहेली .2. 


ही 


2.30,3 


गीतावली में उकारान्त प्रातिपादिक दो प्रकार के हैं : एक तो वे 


जो वास्तव में हैं तो अकारान्त (व्यंजनांत) लेकिन कहीं कहीं (छन्दाग्रह, तुक, 
बोलीगत वैशिष्ट्य विभक्ति अथवा अन्य किसी कारण से) उकारान्त रूप में आए हैं 
यथा : दापु, पापु, द्वेषु, चाजु, आदि ऐसे शब्दों की संख्या 59 है | इन्हें उकारान्त 
प्रातिपदिकों में सम्मिलित नहीं किया गया है-हुसरे ही वास्तविक प्रातिपदिक हैं जो 
मूलतः उकारान्त है , यथा- 


स्वरों से 
क वर्ग से 
सच वर्ग से 
ट वर्ग से 
त वर्ग से 
प बर्ग से 
, रकार से 
लकार से 
. सकार से 
हकार से 
न्ऊ 
क वर्ग से 
च वर्ग से 
प वर्ग से 
लकार से 


क वर्ग से 
से वर्ग से 


इसके अतिरिक्त 8 ओकारार 
वास्तव में अकारान्त (व्यंजनान्त) 


(7) 
(5) 
(2) 
(१) 
(7) 
(22) 
5) 
४) 
3) 


(१) 


(१) 
(१) 
(4) 
(3) 


(2) 
(2) 


( 
( 
( 


आयसु 
गेरू 
जानु 
ठ्टु 
घातु 
बंघु 
रितु 
लाहु 
सेतु 
हेतु 


कलेऊ 
चभू 
बघू 


लदू 


कोदो 
सारो 


2.74.] 
2.47.5 
7.47.7 
.80.3 
2-50.3 
6,7.] 
7.2.22 
7.32.4 
5.]4,2 
5.44.,5 


4,99.,2 
5.22.9 
,45.] 
.8.5 


3.40.4 - 
2.66.] 


श्रायु 
गहुरु 
जत्र्‌ 
घेनु 
बाहु 
रेनु 


सिसु 


श्र 


( 


लाडू 


गो 
सुहो 


.4.,3 
6.4].3 
7.47:0 


..9 
6.7.] 
7.22.3 


१.26.॥ 


.23.2 
.64, 2 


5.30.2 
7.48.3 


त व 6 ओकारान्त नामिक और मिले हैं जो 


.। आकारान्त हैँ. लेकिन पुस्तक में श्रोकारान्त व 


पद विचार 


85 


झौकारान्त रूप में आए हैं यथा-हियो, पालनो, तारो, पानह्यों, पितौ श्रादि इनको 

भी प्र।त्तिपदिक में स्थान नहीं दिया गया हैं- 

2. .2 झुक्‍त बेविध्य- 

2.].2.] प्रातिपदिक के दीं रूप- 
ग्ालोचय ग्रन्थ में प्रातिपदिक के दीघ रूपों की संख्या काफो है । ये रूप 


इस प्रकार है- रे 
-इया-इ, ई में अन्त होने वाले, व्यंजनान्त तथा आकारान्त नामिकों 
के साथ- 
भाई भइया .9.] अंगना अगनेया 
पाग पगिया .44,). बधाई बचया 
मा मैया .9.] वलाइ बलेया 
“इयाँ : ई में अन्त होने वाले व्यंजवान्त रूगें के साथ- 
तथुती चथुनरियां .34.3 अगुरी अगुरियां 
चौतवी. चौततियाँ. .34.4 पनही पनहियाँ 
पहुंची पहुचियाँ. 4.33.2 दांत दंतुरियां 
चित्वत घखितवनिर्यां । 34.5 
>उआा : 
फाग फगुप्रा 7.22.7 
>्आऔदा : 
कुश्मर कुअंरीटा 4.62. 
2..2.2 ग्रकाराच्त के स्थान पर प्राकारान्त रूप- 
आंगन अगंना ].30. वून्द्‌ बु्दा 
कोकिल कोकिला १.54.4 अंब अंबा 
2..2.3 आकारान्त के स्थाव पर भक्तारान्त- 
कोना कोन 5.20.2 गगा गंग 
भौंरा भौंर 7.49.3 सेना सेव 


2. .3-स्घरी भूत रूप- 
कुछ नामिकों में ।य। और ।वर। के स्थान पर उठा का प्रयोग मिलता है ऐसे 
प्रयोगों की भी संख्या पर्याप्त मात्रा में है कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं- 


अन्याय 
न्याय 
घाव 
चाव 


>> अन्याउ 
शक न्याउ 
>> घाउ 
श्र चाउ 


,9.3 
,9.4 
].9.2 


,33,] 
2,44.4 
2.33.4 


.33 .4 
432/७:3 


3.4.3 
5.46.3 


2,0.4 
7.24.2 


6.5.,4 
2.77; 


86 गौतावली का भाषा शास्त्रीय अ्रध्ययने 


2..4 श्रवधारण के लिए प्रयुक्त कुछ संयोगात्मक रूप- 
आलोच्य पुस्तक में कुछ संयोगात्मक रूपों का प्रयोग अवधारण के लिए 
हुआ है-कुछ प्रयोग इस प्रकार हैं-ऐ, ओो, झौ- 


(अर) लरिक .72.2 (लड़की ही) 
जलो 5.42.2 (जल' भी) 
घीरो 6.!5.3 (घीर भी) 

(आरा) हु: उ-उमहु 2.30.2 (उमा से भी) 

जननिउ 2.3.] (जननी भी) 
मांगलु .4.]0 (माँग भी ) 

(इ) हु“४ऊ-तायकहू .94.2 (अ्रधिपति भी ) 

बेदऊ 5.25.] (वेद भी ) 

(ई। हि, हि-भोरहि 2.68.3 (प्रात ही ) 

मन हि ].62.3 (मत ही ) 
व।लकहि 5,23,2 (बालक ही) 


2..5 एक/धिक रूप-प्रालोच्य ग्रन्य में कई नामिकों का प्रयोग एक से अधिक रूपों 
में हुआ है, उनमें से कुछ इस प्रकार हैं- 


आँक [.94.2 22 श्राकु ].89.3 
वचन 5.25.4““ बयन .5].]“-<बेन .35.3 
भैया 2.66 4“: भेञ्रा ].9. “४ भिया १.68.[] 
दंतियाँ ].32.3 ०“ दंतु रिया ].33 .4 
भवन ,]7.2 2: मुबनन .4. “2 मुश्रत 7.].] 
लपन .4.] “” लखन ].2],]:2 लछिमन. 7.38.86 


2. ,.5-लिग-विधान- 

गीतावली मे नामिकों को पु्लिग और स्वत्रीलिय दो विभागों में बांदा गया 
है । लिए-निर्णुय भ्रधिकांशतः वाक्यगत प्रयोग पर आधारित है। नीचे लिग-विधान 
से संवधित दोनो विधाओ्ं को उदाहरण सहित प्रस्तुत किया गया है- 
2.] .60 .] -शब्द-रूप-- 
2..6..[-व्यंजनानत वामिकों में लिग- 

व्यंजनानत नाभिक दोनों लियों में प्राप्त हैं परन्तु सत्रीलिंग की अपेक्षा पुल्लिंग 
तामिकों की संख्या अधिक है- 

पुल्लिग स्त्रीलिंग 

बिपिन 2.43.] सांक 7.20. 

हरिन 3.9.] पीठ 2.80.3 


पद विचार 


2..6.,2 आकारान्त त्ामिकों में लिग- 
सभी आाकारान्त तामिक प्रायः दोनों लियों में समान रूप से विभक्त हैं- 


बिटप 
गौतम 
घनुष 
गेह्‌ 


.92.4 
.74.3 
2.45.3 
2.29.5 


कंसाच 
कंसम 
खाल 
सास 


7.7.8 
5.39.6 
2.27.2 
5.50.5 


.53.2 
,]08.4 
.9.3 
].5.6 
7.2] 20 
.87.2 
5.20.4 


.2| 2 


3.7 4 
2.]7,2 
35.0.3 
2.47.44 
7,]8.2 
2$.[ 


7.7.4 
.3,4 
].62.2 
7.34.] 
.05.3 
5.23.3 
$,2,4 


पुल्लिग स्त्नीलिय 
क्ढ्ला .34.3 सिखा 
घंटा .2.3 रेखा 

च्‌्त्ता 7,83.7 छ्पा 

जोदा ]-62.] उमा 

पिता 2.72.2 आअपसरा 
राजा 5.39.5 गिरा 

सुधा ] 62.4 द्सा 
.3-इकारान्त में दोनों कोटियों से समान रूप मिले हैं- 
पुल्लिग स्त्नीलिंग 
केकि 7.2.5 डिठि 

पति 7.32.2 पुत्रि 
अतिथि 5.38.3 गति 

मुनि 5.37.3 अगिनि 
तिमि ].08.9 करिनि 
बालि 5.23.2 रति 

बरहिं 2.48.3 सखि 

..4-ईकारान्त नामिक पुश्लिग की अपेज्ञा स्त्रीलिग में भ्रधिक हैं- 
पुल्लिग स्त्रीलिग 
अथरवणी .6.8 अंगुली 
कदली 7.6.3 आलो 
पंछी 2.67.3 कली 
बंदी 2:5॥47 घचे 
बाली 6.2.2 चूतर्र 
भाई 2.79.,4 वानी 
मंत्री 2.56.2 मुदरी 


हा 


88 गीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 


2..6..5-उकारान्त वाॉधिक- 


पुल्लिग स्न्रीलिंग 

आंसू 2.63.3 मीचु . 5.24.2 

ड्दु .54.2 मातु 5.35.3 

कंत्रु .08.7 श्रायु ]..3 

गेह 2.47.5 रिति 7.2.22 

सुवाहु .60.3 सासु 2.5. 

शत्रु 7.7.0 वेनु 7.2.8 
2..6..6-ऊक्ारान्त तामिक- 

पुल्लिग स्त्रीलिय 

कलेऊ ].99.2 चर 5.22.9 

लाडू .99.2 वचू 4.]5.] 

लजारू .84.9 भू 7.5.4 
2..6,] ,7-ओंकाराब्त नामिक-- 

पु्लिग स्न्नीलिंग 

कोदो 5.40.4 गो 5.30.2 

सुहो 7.48.5 सारो 2.66.] 


2..7.-वचन विधान- 

आलोच्ध ग्रन्थ में दो प्रकार के नाधिक मिले हैं--एकत्व का बोध कराने 
वाले तामिक तथा झनेकतृव का बोध कराने वाले नामिक-इन्हें ऋ्शः: एकवचन 
और बहुवचन कहा जाता है। नामिक पदों में पाए जाने वाले वचन के विभक्ति 
प्रत्ययों को कारक स्वंबों के दुयोतक विभक्ति प्रत्ययों से अलग करके नहीं देखा जा 
सकता हैं भ्रत: इन विभक्ति प्रत्ययों को सामूहिक रूप से पद रचनात्मक कोटियों के 
अन्तगगत ही स्पष्ट करने की चेष्डा की गई है- 

वचन-विधान की इस संथोग.त्मक विधा के अ्रतिरिक्त एक विशिष्ट विधा 
भी है । वोली में कुछ ऐसे तामिक पद मिलते हैं जिनके साथ कहीं अनिवाये कहीं 
वैकल्पिक रूप से स्व॒तल्त्र शठ्दों को रखकर अभ्रमेकत्व का बोध कराया गया है इन्हें 


वहुवचन ज्ञापक शब्दावली! कहा जा सकता है। गीतावली में ऐसे प्रयोगों की 
संख्या पर्याप्त मात्रा में है । कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं- 


उदाहरण . अर्थे 

अवलि““अवली व्यालावलि 6.९,2 सरप॑ समुह 
अलकावली ].22.7 अझलकावली 

आदि अनिमादि .5.6 अरखिमा श्रादि 


2 महक नम लिप लक 4225 2 3 की जरिए २ 728 अ कि 
.. कबीर काव्य का भाषाशास्त्रीय अ्रध्ययत ; डा. भगवत प्रसाद दूबे 


पद विचार 


आऔघ 
कदंब 
गन 


ग्राम 
जन 


जाल“: जालु 
जूथ 
दल 


निकर 


पांति 
पुज 


बंद्थ 
व्न्द 


मण्डली 
लोग 
समुदाई 


समूह 


मागधादि 
अधघोध 
दुख कदंब' 
मनिगन 
रिपुगन 
गुन-पग्राम 
बंदीजत 
जोगिजन 
तिमिर जालु 
हरि जू य 
खल दल 
पुच्॒दल 
तम निकर 
खग निकर 
द्विज पांति 
चंचरीक पुज 
सुखमा पुज 
ललना बरुथ 
बालबुन्द 
मुनीन्द्र व॒न्द 
षडंस्नि मंडली 
ब्रह्म मंडली 
लोग 
सब लोग 
मातु समुदाई 
कोबिद समुदाई 
सहस समृह 
तरु समूह 


2..8 -कारकौय संरचता -- 


.38.,3 
4.9,5 
.38.,5 
7.4,5 
.22,3 
,22.3 
..6 
0.55,8 
.42.2 
4.2,3 
4.55,9 
7.38.7 
.37.2 
.38.3 
77,2 
7.7.2 
,40.4 
2.48,2 
7.36.2 
है 235 
.25.5 
7.3.2 
.70.] 
4.76. 
34.30.] 
कल 
.60.3 
6,6.3 


89 


मागध आदि 
पाप समूह 
दुल समूह 
रत्न राशि 
शत्रुदल 
शत्रुदल 
बंदीजन 
योगिजन 
अंबकार समूह 
बानर समूह 
दुष्ट ससू ह 
पुत्र समूह 
अंधकार समूह 
पशक्षीगणा 
दन्तावली 
अमर समूर 
सुपुमा समूह 
स्‍त्री समुदाय 
बालक समूह 
मुनीन्द्र मंडली 
अमर मंडली 
ब्राह्मण समाज 
सव लोग 
सब आदमी 
सब माताएं 
विदृवत्समु शय 
सहस्त्रों 
तर समुह 


गीतावली में कारकीय संरचना दो प्रकार की है : एक तो विभक्ति मूलक 
संरचना और दुमरी चिक्तुक मूलक संरचना । विभक्ति मुलक संरचना पुतः दो भागों 
में विभक्त है : वियोगात्मक और संयोगात्मक । संयोगात्मक स्थिति में विभक्तियाँ 
स्वृतब्त्र पदग्राम से संयुक्त होकर पयुक्त हुई हैं और इस प्रकार मूलपदग्नाम और 


90. गीतावली का भाषा शास्त्रीय अ्रध्यवन 


विभक्ति मिलकर एक मिश्चित पदग्राम का निर्माण करते हैं उसके विपरीत वियो- 
गात्मक स्थिति में विभक्ति और मूल-पदग्राम के मिलते पर भी दोतों की अक्षरात्मक 
स्थिति अलग-अलग बनी रहती है । 

वियोगात्मक स्थिति में वाभिकों में केवल दी कारक रूप प्रयुक्त है--मृलरूप 
ध्रौर तिर्यक रूप--एक तीसरा' कारक संवोधन भी मिला है जिसका निर्देश संयो- 
भात्मक रूपों के साथ ही कर दिया गया है। 
2..8. [-विभक्तिमुलक्ष संरचना- 
2..8..]-वियोगात्मक- है 

आलोच्य ब्रत्थ में तामिकों के मूल और तियेंक रूपों की रचना विभिल्त 
प्राविपदिक अन्त्यों औौर दोनों लियों की दृष्टि से दोनों बचनों में इस प्रकार प्रस्तुत 
की जा सकती है - 
2..8. [, .[-मूलरूप एक बचन- 

मू. रु. ए. व. में पुल्लिग और स्त्रीलिंग के व्यंजनान्त व स्वरान्त किसी पी 
रूप में कोई प्रत्यय नहीं जुड़ता श्रथ॑वा शून्य प्रत्यय (0) जुड़ता है-- 


8 न 0 ऋ# पूत .4.] 
भूषति + 0 रे भूपति .3.3 
सेतु +- 0 + सेतु 5,4,2 
रमा न 0 > रमा 2.46.4 
अवनि + 0 «5 अवनि 2.2.2 
वबंघ न 0 | वध 2.3,2 


2..8..] *2-मूलहूप बहुवेचन-- 

मे. रू. ब. व. के सभी पुल्लिग नामिकों को दो वर्गों में रखा जा सकता है- 
एक व में वे पृ. नासिक हैं जिनमें (0) प्रत्यय लगता है। इस वर्ग में व्यंजनान्त 
* बडे स्वरात्त नामिक आते हैं। इनके वहुवचनत्व का बोध वाक्य स्तर पर क्रिया, 
क्रिग्राविशेषण तथा संबंध कारकीय परसर्गों के आधार पर होता है-यथा-- 


भोभ के 0 > भोम (दस) .08.2 


खेलौंवा न+ऋः 0 > खेलौना (विविध) .22.! 
कपि + 0 > कंपि (कदहि डाररहि डार) 
पंछी के 0 ८ पंछी (परवस परे पीजरमि) 2.67.3 
सानु के 0 > भानु (कोदि] 27. 
लाडू थी 0 5 (लाडू खाये) .64.2 
* चामिकों के दिवतीय वर में आकारास्त नामिक आते हैं जिनमें-ए,-एँ 


पंदे विचार 9 
प्रत्ययों को संगुचत करके बहुबचन के हूप भिले हैं इसके भ्रतिरिक्त कहीं-कहीं अन, 
अति, इस, झौर-इन्ह प्रत्यय सयुक्त करके भी व० व० रूप प्राप्त हुए हैं। 

नारा +ए ज-वारे (चले नदी नद नारे) .68.7 

घोरा +ए ऋच|धोरे (राम लखन के धोरे) 2.86.4 

चौक +ऐं चौकी (चार चौक विधि घनी) .5.] 

साह +ऐ “>साहेँ (विसाल सुहाई साहैँ) 7.]3.4 

सुजत +अन * सुजनन (सुजनन सादर जबम लाहु लियो है) .0.4 

कुडल+अनि ८ कुण्डलनि (कुण्डलनि परम आभा लही) 7.6.3 

भाई +इत>>भाइन (दुहु भाइन सो") 6.,2 

बंदी +इन्ह 5 वबंदिन्ह (वंदिन्ह वॉँकुरे विरद बये) .3.4 

सू० रू० ब॒० व० के स्त्री० नामिकों के भी दो वर्ग बनाए जा सकते हैं। प्रथम 
वर्ग में (0 ) प्रत्यय लगकर ब० व० की रचवा हुई है यधा-- 

बांह +0 5 बाँह (बाँह पयार) 5.39.4 

बमिता +0 5 बनिता (बनिता चलीं) ..7 

तारि +0नारि (ग्राम तारि परसपर कहैं) 2.]6.3 

पहुँची +0 पहुंची (पहुची करनि) ।.32.2 

घेतु +0 «घेनु (अमित घेतु) ..9 

स्‍्त्रीलिंग तामिकों के द्वितीय वर्ग में-ऐ, इयाँ, श्रनि, इन और इन्ह प्रत्यय 
जुड़कर मू० रू० ब० ब० के रूप प्राप्त हुए हैं-यथा-- 

भौंह +ऐ न्‍भौंहँ (रचिर बंक भौंहैं) 7-4.3 

बात +ऐ. च्चातें [मैं सुनी बातें असैली) 5-6.2 

अकुटी +इयां >भ्रकुटियां (अकुटियां टेढ़ी) .3 2.5 

साला +अन्ति न्‍मालति (मालति मानो देहनित दुतिपाई) .30.2 

रानी +इत ऋरानिन (रानित दिए बपन “ ) .2.2] 

जुबती +- इच्ह न्जुव॒तिन्ह (जुबत्तित्ह मंगल गायो) ॥,93.3 
2..8.. .3-ति्यंक रूप एक बचत -- 

ति० %० ए० व० की रचना पुल्लिग अथवा स्त्रीलिंग रूपों में शुत्य॒प्रत्यय 
अथवा कहीं-कहीं-ए प्रत्यय लगकर हुईं है-यथा-- 

सखा +0च्सखा (सखा ते) 2-68.] 

ससि +0सप्ति (ससि सों सछु पाए) -23.,3 

मेर +0नन्‍मेर (मेरु तें) .03,3 

सोमा +0च्सोसा(सोभा ते सोहै) -:83. 

प्रीति +0स्‍ प्रीति (प्रीति के न पातकी) -66-2 


92 गीतावली का भाषा का शास्त्रीय अध्ययन 


हिय -+-एल्हिये (हिये की बूक्के) 2-62.3 
सोहिला+ एन्सोहिले (धयों सोहिलो प्ोहिले मो) !.4-7 
2,.8, ..4-तिर्थक रूप बहुवचन--- 
गीतावली में निम्नलिखित प्रत्यय जोड़कर पु० ति० ब० ब० के रूप प्राप्त हुए 
है । ये प्रत्यय सभी प्रकार के स्वरान्त व व्यंजनात्तों के साथ संलग्त हैं जिनमें पु० 
प्रातिपदिक मे-अव 2: अनि ८» प्रर्हि प्रत्यय, अ्रकाराच्त में-प्रनि प्रत्यय, इकारान्त में- 
अनि”“ इन “: इल्ह प्रत्यय, ईकारान्त में-इन ”“ इन्ह॒प्रत्यय, उकारान्त में उच““उन्ह 
प्रत्यय संयुक्त हुए हैं। ये प्रत्ययपरसर्ग रहित और परसर्ग सहित दोनों ही रूपों में 
प्राप्त हैं। सभी प्रकार के प्रत्ययों की संख्या पर्याप्त है। नीचे सभी का उद्दाहरण 
सहित वर्णाव है। कुल सल्या साथ ही कोष्ठक में दी गईं है--- 
पुल्लिग--ब्यंजनानत-अन 22 अनि “८ अ्रर्हि ॒प्रत्यय--- 
परसर्ग रहित-अभ्रन (7 )-- 
कर +अ्रन >करन (सप्‌ 3) 5,48.2 
विसिष-+-शभ्रन >विसिषन (सप 5) 2.62.2 
-अनि (5।) रघुवर + अति >रघुवरति (संप 2) .28.] 
सिर +अनि ऋूसिरनि (संप 7) .56.5 
कर +अनि जकरनि (संप 3) 7.5.3 
>अन्हि (4) नतयत +प्रन्हिज्तवनन्हि (संप 3) 5.50.4 
लोग + अन्हिलललोगन्हि (संप 4) 2.24.3 
परसर्ग सहित-अभ्रन (7) 
सत न+अनन्संतन (संप 6) .20.3 
सिख र+ अन>विखरन (संप 7) 7.20.2 
“अति (27)भगत + अजज"भगतति (संप 6) 7.7.2 
सदत +जअतिज्सदवनि (संप 5) 2.5.2 
“अन्हि (3)बचन + अन्हिल्बचनन्हि (संप 3) ,22,9 
तयव +अन्हिच्तयनन्हि (संप 6) 7.7.6 
प्राकारान्त-श्रत्ति प्रत्यय -- 
परसर्ग रःहत (7 )-- 
भरोखा-+-अनि>करोखति (संप 5) .34.6 
खंभा +अवनिरूखंभनि (संप 7) .9.3 
परसर्ग सहित (2)-- 
देवता +-अनि"--देवतनि (संप 6) 6,23,] 
राजा+अति > राजनि (संप 6) .85, 
इकार।च्त-अनि “८४ इन “८ इन्ह्‌ प्रत्ययथ-- 


पेंद विचार 9 


परसर्ग रहित-अनि ()-- 

रिपि+अलि ८ रिपियति (य श्रूति के आगम के कारणख हैं।) 

(संप 3) 7.3.4 

परसर्ग सहित-इन (2) -- 

रिपि+इन 5 रिपित (संप 6) 2.45.4 
“-ईन्ह () अरि + इन्ह 5 भरिन्ह (संप 6) 5 35.3 
ईकारान्त-इन 2: इन्ह प्रत्यय -- 
परसर्गण रहित-इनस (!) 

भाई -+- इनच"्भाइन (संप 6) 7-22.7 
-“इनन्‍्ह (2) पुर्वासी + इन्ह ८ पुरवासिच्ह (संप 3) .98.3 
परसर्ग सहित-इन (3) - 

बैरी +इन र बैरिन (संप 6) .22.]2 
-इन्ह (2) पु प्वासी + इन्ह  पुरवासिन्ह (संप 6) 2.83.2 
उकारान्त-उच्हु “2 उत्त प्रत्यय 
परसर्ग रहित-उन्ह (2) सिसु + उन्हे 5 सिसुन्ह (संप 4) 2.2.2 
परसर्ग सहित-उत (!) सिपरु | उत 5 सिसुन (पंप 6) .0.5 
स्त्रीलिग-स्त्रीलिंग नामि हों में निम्त प्रत्यय जुड़कर ति० ब० ब० के रूप बने हैं-- 
व्यं जनान्त-पअ्र नि प्रत्यय-- 
प्रसर्ग रहित-अति (3) लपेट-++ अ्ननि न्‍+ लपेटवि (संप 3) 6.4.3 

डाढ़-+-अनि > डाढ़नि (संय 6) 5.6.2 
परसगे तसहित-अति (2) तिय-+अनि ८ तियनि (संप 6) .07.3 
देह +अनि र देहनि (संप 5) 4.30.2 





श्राकारान्त 
परसर्ग रहित-अनि (।0)-- 

पताका + अनि>"पताकनि (संप 3) .4.6 

सिला +अनिल्‍सिलनि (संप 7) .54.4 

अंबा +अनिन्अंबति (संप 4) 5.34.6 
परसर्ग सहित-अनि (4)-- 

बनिता+अनिनन्‍बनितनि (संप 6) 2.5.3 

मुजा +अनिज्मुजनि (संप ) .09.] 


इकारान्त “८ इफारान्त इस्हु “2 इन्हि प्रत्यप 
परसर्ग रहित (87)-- 
सखि + इन्हल्सब्िन्ह (संप 3) 7-33,4 
बीवी + इन्ह्वीथिन्ह (संप 7) .5, 


94 गीौतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 


इन्हि ()-सुप्रासिनी + इन्हिल्सुश्न सिनिन्हि (संप 3) .96.2 
परसर्ग सहित-इन्ह (2) - 
अकुटी + इन्हर्ञरकुटिन्ह (संप 6) 3. 7.3 
उकारान्त 2: अकाराच्त उन“ उन्ह प्रत्यय 
परसगग रहित-उन्ह () -- 
रितु + उन्‍्हरितुन्ह (संप 7) 7.2! -2 
परसर्ग सहित-उन् (2)-- 
वधू --उनत्वधुन (संप 6) 2.40.5 
उन्हे (2)वघू + उन्ह”्वधुन्ह (संप 6) 2.24 4 
2,.8.] .2-संयो गात्मक --- 
गीतावली में सयोगात्मक रूपों की सस्या बहुत कम है-ए,-5,-उ आदि के 
सभी विभक्तियों में बहुत कम उदाहरण प्राप्त हुए हैं केवल-हि या हि. रूप श्रधिक 
मान्ना में मिले हैं । 
2..8.,2.--संप ।--श्रालोच्य ग्रन्थ में कर्ता-कारक के श्रर्थ को प्रगट करने के 
लिए० प्रत्यय और-ए प्रत्यय जुड़ा है 
अंबा -+-0वश्नंवा ,72.3 (सांची कही अंवा) 
वाला +0ज्बाला 3.3,2 (कहति हँस वाला) 
पिनाक +0-"पिनाक ! ,93 2 (जेहि पिनाक थिनु नाक किए नप) 
सुतहार +0>सुतहार .22.] (रच्यो मनहु मार सुतहार) 
तुलसिद स--0 # तुलसिदास 2.48.5 (कह तुलसिदास ) 
सोना , +ए सोने 2.23.] (लही है दयुति सोन सरोरुह सोने ) 
2..8.].2 2 संप (2.) + संप (4)-- 
कर्म सम्प्रदान के लिये-इ, उ, ए, ऐ, ऐं, और प्रत्यय संयुक्त हुए हैं -- 
झ्ाग +इज>आगि 5.6.5 (वरजोर दई चहुओर अर गि) 
वेलि +इ न्वेलि 2 34,2 (ब्रिप,त्त वेलि बई हे) 
खाबच +इ >खानि .8.2 (किलिकनि खानि खुलाऊ) 
वबान +इच्ल्वाति .9.4 (तेरी वानि जानि में पाई) 
दवेष +उ  द्वेपु 7.9.4 (झ्राए तम तजि दवेपु) 
क्रोध -+उल्‍ूतकरोव 6 .] (मानु अजहू सिप परिहरि क्रोध) 
दाप +उछ७दापु 6..3 (हर॒यो परसुधर दापु) 
रखबारा + ए - रखवारे 3.3,3 (मुनिमसख रखवारे दीन्‍है 
आहेर--ए 5 अहेरे ।, 22,4 (राम झहेरे चलहिगे) 
खय +ए->खये .45.2 (ठोंकि ठोंकि खये) (व० ब०) 
रघुवीर+ऐ + रघुवीर 6.5.] (हृदय घाव मेरे पीररघुवीर) 


पद विचार 95 


बेरा +ऐ 5.27.3 (तात, वांध जिमि वेरै) 
जन +ऐन-जव 5 40.] (फल चारि चारयो जन) 
ताम + ऐं--नामें 5 25.2 (जपे जाके नामे) 

घाम +ऐंज"|घाम 5.25.4 (चल्यो तजि बोर धामैं) 


हि::हि (93)- 


0) 


बन +हिन्वनहि 2,87.] (बनहि सिधावो) 
चंद्रमा + हिन्चंद्रमहिं 68 ] [(चंद्रमहि निचोर ) 
रिपु +हिजरिपुषह्ि 5.34.2 (रावण रिपुहि राखि) 
गिरीस +- हिन्गिरीस हि .2.24 (फिरीर्साह अगम ) 


प्रत्यय से संयूक्त रूप भी संप (2) + (4) का दयोठ व कराते हैं--- 
केलास +- 0) 5 कैलास 6.32. (केल!स उठायो) 

कुधर -- 0 & कधार 56.0.] (ऋौतुक ही कुबर लियो है) 
सजीवन-- 0 5 सजीवन6.5.] (पाइ सडीवन ) 


2..8.].2.3--संप (3)+-संप (5)5रग-अ्रपादात का दुयोतन कराने के 


लिए इ, ए, ऐ और हि प्रत्यय संयुक्त हुए हैं -- 

चितवन +-इ > चित्तवनि .3.6 (राम कृपया चितवनि चितए) 
पयादा +- ए > पयादे 2,28.]. (पथ्चिक पयादे जात हैं) 

कोना +- ए > कोने .07.] (परस्पर लखत सुलोचन कोने) 
खीर +ऐ + खीर 6.5.3 (उपमा... क्यों दीजे खीरै--नीर) 
तन +ऐ तने 5.40.3 (भए राजहंस वायस तने) 
हि--हि ()-- 

सैंन +हिचू॑-सैर्नाह 5.2.4 (सैनहि कह्यो चलहु सजि सैन ) 
कोौसिक -- हि न्‍+ कौसिकटि .73.6 (कौसिकहि सकुचात) 

संस्कृत की तृतीया विभन्ति के दो प्रयोग मिले हैं-- 

वाचा 5.4.2 

मतमा .96.3 

2..8.].2.4--संप (6)--सम्जन्ध कारक का दयोतन कराने के लिए उ 
ऐ, हि और 0 प्र॒त्यय संयुक्त हुए हैं-- 


माता +उ नूमातु 2.62.] (जौ पे हो मातु मते महंह् हो) 
हीरा+ऐ हीरे €.5.2 (केवल दांति मोल हीरे) 

राम + ऐज-रामे 5.25.] (दूसरों न देखतु साहिब सम राम) 
--हि (4)-- 

सीता -+-हि ८ सीतहि .82.] (मित्रो बह सुद्दरि सीयहि ले यक्कु) 


उत्रि + हि ८ छत्रिहि .82.2 (( ...छविहि नि बदव) _ 


96 


2..8 


गीतावली का भाषा शास्त्रीय अ्रध्ययन 


प्रमु॒ +05-प्रमु॒ .2.25 (तुलसिदास प्रभ्नु सोहिलों गाबत) 
जानकी +05जानकी 7.2.] (भोर जानकी जीवन जागे) 
पिनाक +-05पिनाक .02.5 (करि पिनाक पन) 
2..8.].2.5--संप (7)-अधिकरण कारक के लिए निम्न प्रत्यय संयुक्त 
हुए हैं-- 
लेखा +एबच्लेखे 2.53.3 (अरुकि परी यहि लेखे ) 
पालना +ए5पालने .24.] (मूलत राम पालने सीहे) 
द्वार +एऋदवारे 2.52.2 अ्रनुज-सखा सव दवारे) 
हिय +ए-+हिये 5.25.4 हुमकि हिये हन्यो लात) 
इसके प्रयोग काफी हैं-- 
सुमेर -+-ऐ ४ सुमेर 5.27.2. (समाचार पाइ पोच सोचत सुमेरे) 
“हिह (2)-- 
मन -+हिं5मनहि. .2.0 (असही दुसही मरहु मनहि मन) 
मन +हिल्‍-मनहि 2.83.3 (वैठि मनहि मन मौन ) 
जग न॑0& जग 5.40.2 (प्रनाम जासु जग मूल अमंगल के खने) 
रंगभूमि-+05 रंगभूमि .68.6 (रंगभूमि पगु धारे) 
उर --05 उर .04.4 (जेहि उर वस॒ति मनोहर जोरी) 
2.,8.].3-- संवोधन-- 

संवोधन ए०व० के रूप तियेंक रूप ए०व० के रूपों के समान होते 
हैं--यथा--- 
रावव--0-राघव 3.5.] (राघव, भावति मोहि विषपिन की वीथिन्ह 


धावनि) 
सखि -+0>सखि 7.9.] (सखि! रघुवीर मुख छवि देखि) 


छेमकरी + 0-छेमकरी 6.20. (छेमकरी! वलि वोलि सुवानी ) 
इस प्रकार के रूपों की संख्या 70 से अधिक है -- । 

वारा +ए च्चारे 2.4.2 (इहि आ्रंगन विहरत मेरे बारे) 
राधव+- भ्रौजराघौ 2.87.] (राघौ! एक बार फिरि आावौ ) 


“2- चिह्नक सुलक संरचना-- 


प्रथ॑ संरचना के सम्बन्ध तत्वों में कारकीय परसर्ग भी है--इन्हें संज्ञा पद- 


वन्‍्वों के चिह्॒क कह सकते हैं। गीतावलो में प्रयुक्त चिल्ृक मूलक संरचना को इस 
प्रकार प्रस्तुत विया जा सकता है-- 





पद विचार 
कारक परसर्गे आवृत्तियां उदाहरण 
2. संप । न किम ; 
2. संप्‌2 + संप4 
संप2 +-की 6 2.45.3 
+ही की ] ].86.4 
+जूको 2.4.3 
संप4 +की ]] .7.] 
नह को 2.34.2 
+जू को ] 2,33.2 
संप2 + कह 5 5.45.5 
संप4 न कह 8 7,2.4 
3. सं33 +सें 45 
संप3 नतें 9 7.2.23 
+ हिंतें .49.3 
नें ] १.79 .2 
संप5 ते 4 .66.2 
नैतें 34 ,65.] 
+ हुतें 5 2.26.3 
न॑ हृतें 3 .87.3 
'नते ॥। 5.32.3 
संप3 नसों 43 5.33.] 
संपर नसों 7 .72.4 
से ] 2.32.3 
संप3 +- सन ] 7.5.3 
4, संप6 +की 60 ].6.3 
+जू की 3 2.8. 
+ही की ] 5.6.6 
नह की 3 .92.2 
+हु की & 2.0.3 
के 234 7.6.3 
4 2,38.3 


हू के 


97 


विशेष 


संबंध 
कारक 

के लिए 
भी प्रयुक्त 


संप6 में ये 
विशेषण की 
प्रकृति के हो 
जाते हैं- 


गीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 


.42.4 
.84.7 
.82.] 
- .05.3 
7६5०2: 
४“3,/53* 
:27-3 
5,50.4 
7.26.] 
2.].2 
.6.5 
5.23.] 
2.59.] 
.4.7 
5.47.2 


संवोधतन कारक 


इसके भ्रतिरिक्त कुछ भ्रन्य रिक्त शब्द हैं जो संज्ञा पदबंधों की संरचना मे 


98 
न॑जू के ] 
+को>/कौ 09 
हू को 3 
हे #कहूं | 7 
कि संप7 +१एर 40 
-+ हूं पर ] 
+पै 4 
+ महू ]8 
+मांहि ] 
+मांही 2 
नमें ]2 
--मैं 7 
मो ] 
+मो ] 
क॑सि ]0 
2..8.2.6 न 
प्रयुक्त हो रहे हैं-- 
रि्‌ () 
री (66) 
रे (4) 
श्नी (5) 
ज़ु (7) 


7.]8.] 

.77.] 
.2. 
,79.2 

.7!.3 


2..9-परसर्गवत्‌ प्रयुक्त अन्य परसर्गीय पदावली- 
कारकीय परसर्गों के अतिरिक्त अन्य परसग भी झालोच्य ग्रन्थ में प्रयुक्त हुए 


हैं जो इस प्रकार है- 
आगे 
अंतर 
ऊपर 
कहें 
कारन 
जान 


ज्यों 


नननि आगे 

हेम जाल अंतर परि 
अंग अंग ऊपर 
ऊुलग्रुर कहूँ पहुंचाई 
जा कारत 

मेरे जान वात, 
कंदुऊ ज्यों 


2.53.2 (दो बार) 
7.3.5 
.25.] (2 बार) 
2.89.2 
4.,2.2. 
3.5.] (दो बार) 


6,3,2 . (29 बार समान के 
अर्थ में) 


पंद विचार 


जैसे 
जोगु 
ढिग 
तर 
तल 
दूरि 
निकट 
नाई 
पहेँ 
पाहीं 
पाछचे 
वंत 
विच 
अधवबिच 
ब्चि 
बिनहि 
बिहीत 
बस 
भीतर 
भरी 
माँफ 


मय 
मये 

मई 

मिस 

रहित 

लगे “४ लागि 
लेखे 

सहित 

समेत 

सभीप 

संग 

साथ 


आपने भाय जंसे 
कहिबे को जोगु 
काके ढिंग 

वितान तर 
अवभि-तल 

तीरथ तें दूरि 
भरत निकट ते 
खर-स्वान-फेए की नांई 
भरत पहेँ 

गुरु पाहीं 
हेम-हरिन के पाछे 
हरपवंत चर अचर 
नखतगन विच 

तरु तमाल प्रधविच 
विनु प्रयास 


राजति विनहि पिगार 
कियो मोच बिहीन 
कूर कालबस 
कंज-कोस भीतर 

मोद, भरी गोद 
मिलेहि मांझ रावन 

रजनीच र 

बिनोद मोदमय 

विनोद मये 

परमारथ मई 

बचत मिस 

रहित छल छाया 

भूठ जीवन लगि 

तिनन्‍्ह॒के लेखे 

तोहि सहित 

बिधु बदति समेत सिघाए 

पितु-समीव 

दोउ संग 

मूरति सी साथ 


99 

.64.4 (समान के अर्थ में) 
.74.4 

7.4.6 

.05.2 (8 वार) 
].76.2 (3 वार) 
2 244 कह 

6.]9.4 

2.74,4 

2.89.] 

20 

3,3.4 

..2 

7,8.3 (4 बार) 
7,3,5 

2.38.,3 

2,29.4 (2 बार) 
7.24.2 

.95.2 (20 बार) 
7.7.4 (3 बार) 
.80.2 

).4.4 

.24.3 (7 बार) 
.45.4 

.5.3 (8 बार) 
2.9.2 (बहाने से ) 
7.4.3 

3.3,4 (लिए अर्थ है) (2बार ) 
3.5.4 (लिए ग्रर्थ है) 
5.43 | (5 बार | 
2.35.4 (4 वार) 
.02.] 
.5.3 (62 बार) 
2.26.2 (40 बार) 


-]00 गीताचली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 


सांरिखेह कुठारपनि सारिखेहू._ 5.25.3 

सनमुख तेहि सत्मुख विचु 2.82.3 (5 बार) 
सनमुख सनमुख- सवहि .73.6. (अनुकूल के श्रथे में) 
सी हम-सी भूरिभागिति. 2.22.2 (8 वार) 
से जीवन से 2.26.4 (6 वार) 
सो अजामिल सो खलो 5.42.3 (8 बार) 
सम कलपफ्सम टारत्ति 5.9.] (3 वार) 
हिति प्रभुद्दित 2.47.6 (6 बार) 
हेतु मातु हेतु 2.86.[ (6 वार) 


2...2- दो रूपिम या शब्दों के योग से निर्मित श्रातिपदिक- हि 
श्रालोच्य ग्रन्थ में प्रयुक्त दो रूपिमों के योग से निर्मित प्रातिपदिकों को 
संरचना की हृष्टि से तीन के टियो में विभक्त किया गया है । 


]. ” चद्ध पदग्राम+ सुक्तपदग्राम 
2; मुक्त पदग्राम + बद्धपदग्राम 
3. मुक्त पदग्राम --मुक्‍त पदग्राम न 


इन सबका क्रम से वर्णान किया गया है- 
2...2.[-बद्ध पदग्राम+ भुवत पदग्रास- 
बद्ध पदग्र'मों के योग से निर्मित पदग्नामों की संख्या पर्याप्त मात्रा में हैं। 
ये बद्धपदग्राम हीनार्थक, श्लाघाथक, निपेघार्थक श्रादि कई प्रकार के हैं जिनका 
बणुन यथास्थान किया गया है। विस्तार के भय से कुछ उदाहरण ही दिए गए है 
कुल संख्या साथ के कोप्ठक में दे दी गई है- 
8.  श्र-(23 )-हीनता श्रथवा निपेध के अर्थ में प्रयुक्त है- 


कलंक प्रकर्लक (निष्फुलंक) 2.43.4 
गत्ति अगति (गति रहित) 2.82.3 
नीति अनीति . (बुरीनीति) 2.49.2 
सुर असुर . (राक्षस) 6,3.3 
2. अन-(4)-प्रभाव अथवा निपेष के अर्थ में प्रयुक्त है- 

अंग अनंग (अंग रहित ) 2.7. 
ह्ति प्रनहित (बुराई) .84.5 
उचित प्रनुचित (उचित न हो) .85.2 
अवसर अनवसर (बुरा अवसर ) 5.38.,3 


3. अनु-(5)-श्रथ में विशिष्टता लाता है- 


पद विचार 


0. 


!], 


)2, 


तिर-[)-अभाव के अर्थ में श्राया है- 


-गुव. 


निरगुत (गुरा रहित) 7,6.6 


0] 


मात अनुमान (अंदाज ) 5.23.2 

राग अनुराग (प्रंम) 2.47.5 
. सासच अनुशासन (ग्राज्ञ/) १.9[.3 
अप-(3)-विपरीतार्थ क प्रत्यय है- 

सान अपमान (अपमान ) 5.26.2 

लोक गअवपलोक (अपक्रीर्ति) 6.5.3 

राघु अपराध (अपराध ) 6..5 
झभि-(5 )-यह्‌ प्रत्यय ओर' अयवा में के अर्थ में श्राया है- 

अंतर अभिश्नंतर (यंतः करण ) 2.74.3 
' मत झभमिमत (अ्रभीष्ट 5.28.7 

मान अधभिमाद (घमंड) 6.2.3 
' पैक प्रभिषेक (अभिपेक ) 6.22.5 

आ-(2)-सहित' अथ् में प्रयुक्त है- 

गमन आगमन (आना ) 6.9.4 

श्रम आश्रम (आराम का स्थाव).. 7.27.4 
औ-(। )-हीनता के अर्थ में आया है- 

गुत झौमुन (अवगुरा ) 6,2.2 
उप-(9)-अ्रथ॑ में विशिष्ठता लाता है- 

चार उपचार (चिकित्सा) 6,9.6 

देस उपदेस (शिक्षा) 5 27.2 
बच उपवव (उपबन) 7.8.3 

हार उपहार (उपहार) 6.23.3 
कु-(3)-कुत्सा या बुराई के प्र में प्रयुक्त है- 

रूप कुरूप (बुरा हू) 7,38.5 

पथ कुपथ (दुरा पथ) 7..2 

साल कुचाल (धुरी चाल) 7..2 

बेलि कुबेली (बुरी बेल) 2.0.2 
-दु-()-हीनता के अयय॑ में प्रयुक्त है- 

काल दुकाल (डुरा समय) 7.4.2 

तलि-()-प्रथ॑ में विशिष्टता लाता है- 

बास निवास (रहने का स्थान) 2.47.4 


02 गीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 


3. प्र-(8)-वब्याध्ति के अर्थ में प्रयुक्त है- 


ताप प्रताप (प्रताप) 
दःच्छना प्रदच्छिना (परिक्रमा) 
नाम प्रनाम (प्रयाम) 
बंध प्रबंध (प्रव॑ंब) 
4. पर-(2)-परायेपन का भाव प्रकट है- 
श्राक्रम पराक्तम (पराक्रम) 
देश . - पसदेस (ट्ुूंसरा देस) 
85. परि-(8)-चारों ओर अथवा समेत के श्रर्थ में श्राया है- 
जन परिजन (कुट्रम्बी जन) 
तोष परितोष (संवोप) 
वार परिवार (परिवार) 
नाम परिनाम (१रिणाम) 
6, प्रति-(2)-अर्य में विशिष्टता लाता है- 
छाँह णरतिर्ाह (परछाई ) 
त्रित्र प्रतिविव (प्रतिविम्ब) 


[7. किये प्रत्यय दो प्रथों में प्रयुक्त है- 
7.] विशिष्दता के अर्थ में-(!) 


निदक विनिदक (विदा करते बाला) 
भाग विम्माग (विभ'ग) 
भूषन विभुपन (आभूषण) 
7.2 बविपरीतार्थक (3) 
योग वियोग (वियोग) 
रति विरति (विरक्ति) 
पम विपम (विपरीत) 
8. -(5)-श्लाघाथ्ेक प्रत्यय है- 
गुन समुन (सग्ुन) 
जीवन सजीवन (संजीवनी ) 
भाय सभाग (सौभाग्य) 
रूप सरूव (स्वरूप) 
पूतत सपूतत (सपूत) 
9. सम्‌-(5)-प्रथे में विशिष्ठता लाने वाला है- 
जोग संजोग (संयोग) 


ताप संताप (दुख) 


5.6.0 
3.7.8 
5.39.5 
.2.5 


5५253 
2.3.2 : 


.2.4 
.5.6 

5.5.,3 
5.6.6 


7.8.] 
.25.5 


7.2,7 
6.22.0 
4.23 ,2 


5.40.3 
.32 7 
5-3.2 


77.6 
6.45.4 
2.47.5 . 
,57.4 
.2.4 


.7:3 . 
7,4.3 


पद विचार 03 


तोप संत्तोप (संतोष) 2.77.2 

आचार समाचार (समाचार) 3.40.3 
20. सत्‌-[।)-विशिष्टता के अर्थ में प्रयुक्त है- 

मान सनमान (सम्मान) 5.35.] 
2, सु-(83)-श्लाघार्थक प्रत्यय है-इसकी संख्या पर्याप्त है- 

अंग सु्रंय [सुन्दर अंग) .. 6.20.4 

आसिष सुग्रासिष (सुन्दर आशीष ) 2.30 3 

क्ष्त सुक्ृत (सुन्दर कार्य) 2.],4 

सिख सुसिख (मुशिक्षा) 2 9.4 
22. दु-[)-संल्यावाची प्रत्यय है- 

कूल दूक्ल (वस्त्र) .73.4 


संयुक्त परसगे- 
, श्र+वि ()- विपरीता्थंऋ है- 

चल अविचल (मिष्चल ) 7.8.6 
2. वि+अ-विशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त है- 

अलीक व्यलीक (कपट ) 6.2.3 
2, .].2 .2-मुक्तप्रदग्राम + बद्धपरप्राम- 

ऐसे पदग्राम जिनमें वद्धयदग्नाम अन्त में- संयुक्त हैं, झालोच्य ग्रन्थ में पर्याप्त 

हैं, उन सबका सोदाहरण वरणन इस प्रकार है- 
.-भ्रा (4 ,-छन्द के आग्रह से अथवा तुक के. का रण प्रयुक्त है- 


गात गाता .[0.] बूद वुद्ा 2,3व.4 

मुह मुहां .84.8 स्वास, स्वासा 5.9.2 
2.-अनी 22आतनो (3)- ४ 

गेह गेहनी 7.26.3 ब्रहमा हमारी .4 0 


भव भवानी 4.4.6 
3.-भ्ररी >”आरी (3)- - 
नींद नीदरी .9.4 सीख भिखारी .6.24 
महत मह॒तारी .99.3 
4,-आई (25)- 
अ्गता. भअभयगनाई .30.4. प्रभुकता प्रभुगाई .]6. 


भल, भलाई 3.7:3 लरिक्रा लरिकाई ॥.55.5 
5.-इक 2८ इका- ( !2)- न है है 
वेद वैदक ]54 मति मानिक  2.39.5 - 


मूल, मूलिका :6.3 चन्द्र चन्द्रका 6.]7,9 


04 


6.-इनि ““इनो (9)- 
चंद चंदिनी 
वियोगी वियोगिनि 

7.-इया 2: इयाँ (6)- 


पाग पगिया 

पहुची पहुचियां 
8.-ई (57)- 

गरीब गरीबी 

चकोर चकोरी 
9.-ईन (।)- 

पथ पथीन 
0,-ऐया (8)- 

छांह छेपा 

र्भां भैया 
4,-ऊठी (4)- 

बधू चघूटी 
2.-ऊरी ()- 

लट लदूरी 
3.-ओटा ()- 

कुञअ र कुआ्न रोटा 
4,-क ()- 

अब अ्रबक 

सोध सोधक 
]5-ग (3)- 

श्र्नु अबुग 

भुज भुजंग 
6-ज““जा (8)- 

जल जलज 

गिरि गिरिजा 
7.-त (3)- 

प्रसत्त प्रसन्नता 

सुन्दर सुन्दरता 
8.-द ()- 

अखु अर वुद 


2.43.4 
3.2.3 


.44. 
.33.2 


2.4 .4 
].62.3 


.8 8.3 


.20.2 
.20. 


2.2 [.] 


.3.4 


.62.,[ 


6,3.3 
.88.3 


].69,9 
,23.3 


7.5.4 
7.43.4 


5.2.2 
.77.2 


.7,3 


गीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 


बंदी 
विरही 


चौतनी 
पैंजनी 


दुलहा 
भोगुला 


भाई 


रघुराइ 


चंपा 
रच्छा 


उर 
पवन 
कलिद 


वाम 
दीन 


जल 


बंदिती 


विरहिनी 


चोतनियाँ 


फजनियां 


दुलही 
भोगुली 


भैया 
रघुरैया 


चंपक 
रच्छक 


उरग 
पवनज 
कलिदजा 


बामता 
दीनता 


जलद॑ 


2.43.] 
5 2.3 


-,34.4 
.34.2 


.06.] 
.33,2 


.20.] 
].20.2 


4 535.4 
.22.9 


4.2.5 


6,3.,5 


4.7.5 


5.28.4 
5.43,4 


॥। न. 2 6 + ॥॥ 


पद विचार 


वारि वारिद 
89,-आदइ-( ) - 
मनूज मनुजाद 


20,-आरत (3)- 
जलज जलजात 
पंकज पंकजातत 


24.-वि (7)- 
उद द्द्धि 
वारि वारिधि 
22.-प (7)- 
अवति अवनिप 
मही  महीप 


23.-उआ“”:औौश्ा (2) - 


फाग.. फमुझ्ना 


2.],,2.3-मुक्तपद्षग्गास +- सुरवतेपृदग्राम्- 


2,]9.2 


3«22.5 


4.49.] 
3.7.5 


७4.2 
5 6.4 


4.39.] 
.8 4.7 


7.22.7 


तार चारद 7.9,6 


कुसत्तल  कुसलात 5$.4.,5 


पाथ पाथोधि 

जल जलधि 

गत गनप .6.4 
लोक लोकप 

पात पतौओआा 


>> म ० हक! 
5.22.7 


,2.23 


.67.2 


05 


मुक्तपदग[म + सुक्तपदग्र.स के उदाहरण अ्रालोच्य ग्रस्थ में संख्या में प्रत्य- 
घिफ़ है | संरचना की दृष्टि से इतको कई प्रकार से विश्लेष्य समझा जा सकता है 
जो निम्नलिखित हैँ | इन सबकी कुल संख्या साथ के कोष्ठक में दी गई है तथा 
कुछ उदाहरण भी दिए गए है--- 


।, नामिक-+- नासिक > वासिक (876)- 


इंदिरानिवास .25.2 
खग' निकर .38,3 
भूयूर 8.75.2 
जानकीकंत 7.2.2 
मुनिमख ].00.4 
लोकपाल 5.40.4 
सुरपुर 2.7. 

2. विशेषण +- नासिक + नासिक (26) 
कुलकी रति 7:2207 
चारु चंदा .3. 
तिलोक 5.24.4 
समृदुवचत 5.43,4 

5.22,8 


सहसानन 


कपठ्यूग..._ 7.38.5 
बलिदान ] 5.4 

तुबनसीस. 5.5.7 

पवनपूत्त 5.5.] 
रंगभूमि .8 4.] 
सरजुतीर 7.4.। 

हरीस 5.]5.2 
गौरतनु 2.8.2 
छीत छवि .37.2 
नीलकंठ ).80. 


सत्य वचत 2.2.4 


06 गीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययत 


3. न्ामिक+ विशेषण # नामिक (53)- 


पटठपीत १.3.5 
सूसुन्दर .26.4 
बनगवन 2.4.3 
रजनीचर ].52.6 


घनश्याम 2,66.! 

पिकवेती .84.] 
4. नासिक--क्विया ८ (48) नासिक- 

जलचर 7.3.3 

प्रारति हरन 5.29.4 

विस्वदवन 5.50.2 
2 2 विशेषण : 


विशेषरा पदों का अध्ययत्त तीन हृष्टियों से बिया गया है- 
(!) संरचनात्मक; (2) अ्र्यगत; (3) प्रकार्ययत । 


2.2 | संरचनात्यक-रूप रचना की दृष्टि से 
किया जा सकता है- 
अरुपान्तरित; रूपान्तरित । 


विगेषण पदों को दो वर्गो में विभक्त 


2.2.]. श्ररुपाग्तरित-वे विशेष जिनमें विशेष्य के लिंग, वचन कारक के अनु- 


सार कोई विभक्ति न लगती हो ग्रथवाः 


जिनका रूप अपरिवर्तित रहता है वे 


अरुपान्तरित विशेषण के श्रन्तगंत श्ाते हैं। आलोच्य पुस्तक के अरूपान्तरित 
विशेषणों का अध्ययन निम्न प्रकार से किया गया है- 


22. 


की] 


.] प्रात्िपदिक- 

प्राति० संख्या श्रा० 
2.2.]...- 

व्यंजनानत ब संयुक्त (76) (4) 
व्यंजनान्त- (!) 
(॥) 
(0) 
(7) 
(34) 
(2) 


2 2.],4. ,2- 


उदाहरण 


बिकट (अ्रकुटी) 7 2.2 
बरत (वारि) 5.]9.2 
चंचल (साखामृग) 5.4].3 
कठोर (करतव) 7.37.5 
पीन (अंस) 7.7.0 
मनोहर (साखा) 7.4.2 
मत्त (गज) .63.3 


पद विचार 07 


स्वरान्त-भ्राकारान्त (।) (7) महा महा (वलघीर ) ! .89.4 
इकारान्त (9) (2) आदि (बराहु) 2.50.4 
(]6) भूरि (भाग) .24.$ 
सत्ति (भाउ) 3.7.4 
ईकारांत (5) ([॥) कोही (कौसिक) .7.2 
() घनी (राम) 5.39.2 
(5) बली (बाहु) 5.38.4 
(2) संकोची (वानि) !.92.2 
(23) मजु [मसिबुदा) .3.4 
(3) क्टु (वचन) 3.7.2 
(50) चारुचारयों भाई) .6.2 
श्रोकाराच्त () बापुरो (पिनाक) .89.8 
(बापुरो-बास्तव में झाकारान्त है लेकित यहां शोक राच्त रूप में प्रयुक्त है) 
उपयुक्त विशेषणों में विशेष्य के लिंग, वचन व कारक के अनुसार कोई 
परिवतंन नहीं हुआ है यथा- 
2.2.].] 2-लिग-विधान- 


उकारान्त (8) 


पुल्लिग स्त्रीलिण 
(रूप) ग्रनूप .90.4 (छवि) अनूप ].25.4 
गंभीर (वचन) 7.7.]] . (गिरा) गंभीर 2.44.] 
(मारीच) नीच 6..2 तीच (अमरता) 5 5.3 
सुभ (दिन) 7.34. सुभ (घरी) 7.34. 
2.2.].].3-वचन-विधाच- 
एक बचन बहुबचन 
(लटकन) चाह .32.5 चारु (चामर] . 7.6.2 
(दशा) कुटिल 2 34.2 कुटिल (अलक) .23.2 
गंभीर (गिरा) 2.44.] गंभीर (वचन) 7.7.4 
कोमल [(घुनि) .38.4 कोमल (कलेबरनि) 2.30.] 
2.2..] .4 -- कारकीय-चिधात- 
मू०रु०ए०्ब० ९ चतुर (चातक दास) 8.40.2 
कस (तनु) ].47.] 
मुण्स्ण्बन्ब॒० :. सकल (नर-नारि विकल अति) 2-88.4 


चंचल (हमपसु साखामृग). 5-4.3 


08 गीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 


ति०रू०ए०व० क्ठोर (3२... ते) 26].] 
दारुन (जरति जरी) .57.2 
ति०रुण्ब०व्‌० सीतल सुभग (सिलनि पर) 2.46.5 
ललित (कपोलनि पर) 7.42.4 


2.2.  .2-रूपान्तरित : 
रूप रचना की हृष्टि से रूपान्तरित विशेषण अपने विशेष्य के लिग, 

बचत, कारक के अनुसार विभक्ति प्रत्ययों को ग्रहण करते हैं | झालोच्य पुस्तक क्के 
रूपान्तरित विशेषणों को दो वर्गो में रखा जा सकता है- 

(।) मूल पदग्न,मीय, (2) यौगिक पदग्रामीय । 
2,2.,2.]-पुलपद प्रामीय रूपाच्त रित विशेषश- 

आलोच्य पुस्तक के मूल पदग्रामीय रूपान्तरित विशेषरों को संख्या |28 है 
जो अपने विशेष्य के अनुसार विभक्ति प्रत्ववों को अपनाते हैं। इनकी लिग, वचन व 
कारकीय स्थिति इस प्रकार है- 
2,2..2 . |-लिग-विधान- 


पुल्लिग स्त्रीलिंग 
(कोलाहल) भारो 2.66.3 (गति) भारी .00.3 
छोटे (छुघमा) !.20 2 छोटी (पनहिया) -44.। 
सुन्दर (बर) 7.2.7 सुन्दरी (नारि) 2.8.2 
नीको (नखत) 7.34.] नीकी (विकाई) ! 86.2 


2,2..2.] 2-बचन-विधास रूपान्तरित विशेषणों के वचन-विधाव में दो 
स्थितियां मिलती हैं-- 


2.2..2.].2.]-समान वचन सें प्रयुक्त विशेषण झौर विशेष्य- 


एक वचन बहु वचन 
(गरीबी) गाढ़ी 2.4.4 सुहाए (नैन) .35.] 
अन्ध (दसकंब) 5.24-2 बहुतेरे (जन) 2.706.2 
रूखी (रसना) 5.5 4 इन्ह (बचन:न्ह) !.22.9 
(मति) पैनी .83.3 लोने (लोयननि) .83,] 
2.2.] ,2-.2.2--असमान वचन में प्रयुक्त विशेषण और विशेष्य--इसमें दो स्थि- 
तियां मिली है- 
2.2.] .2.].2.2 .-“वशेंषण एक वचन और विशेष्य वहुब॒च॒द- 
(बाते) असली 5.6.2 
(अगुरियां) छवीली .33. 


(भौहै) ठेढ्ी .63.3 


पद विचार 09 


2,2,.2,.2, 2.2-विशेषण बबचन तथा विशेष्य एकवचन- 
(पट) पियरे ].43.] 
सीके (हाथ) .86.5 
नए (मंगल) 8.46.5 
आझे (छोर) ].73.4 
2.2..2.. 3-कारकीय-विधान- 


मूलयदग्रामीय रूपान्तरित विशेषणो में वामिको के समातच ही कारकीय स्थि- 
तिया मिली हैं। आकारानत विशेषणों में हप परिवर्तन श्राकारान्त नामिकों के 
समन होता है, जैपे--पुल्लिग नामिकों के साथ विशेषणों का मूलहप, तियेक 
नाभिकों के साथ आकर रान्त विशेषणों का तिर्येक्र रुप और स्त्रीलिग विशेष्य के साथ 
स्नीलिंग विशेषण ही आया है । आालोच्य पुस्तक में पुल्लिग श्राकारान्त विशेषसों में 
(-ञ्रो) ; (-ए) प्रत्यय और स्वीलि। विशेषणों में (-इ) ; [-ई) प्रत्यय मिले है । 


2.2-].2..2 ,|-मतु ०२०ए०ब्‌०- 


लिंग प्रत्यय स्दाहरण 
(पु०) (-न्नो) सूनो (भवन) 2.54,] 
कारो (बदन) 2.67.2 
(स्त्री०) (-३) ; (शी सड् (गति) 5.7.] 
रुखी (रसना) 5.5.4 
2.2. !-2,.3,2-प्ु०र०ण्ब ०व्‌ ०-- 
(पु०) (“"श) छोटे (छेया ) .20.2 
संग्रुत (सोहावने) .5.] 
(स्त्री०, (-ई) छोटी (पनहिया) ].44.] 
टेढ़ी (भौहे) .63.3 
2.2.].2.].3 -3-ति०रु०ए० ब०-- 
(पु०) (०) खारे (कूप) .68 9 
बड़े (भाग) .8.2 
(स्त्री०) (-इ) ; (+ह) सुन्दरि (सीतहि) [.82.] 
दाहिटी (ओरते) 5.38.2 
2.2.4.2..3.4-त्ति०रझू०्चय०च्‌०- 
(पु०) (5०) आदछे अछे (भाव भाये हैं) [-74-] 
वियारे (चरित) .46.5 


2.2..2.2-यबोौगिक पदग्रासीय रूपान्तरित विशेषण- 


इसके अन्तर्गत उनब पएदग्नरामों का अध्ययन किया है जिनको सरचना एक से 


!0 गीतावली का भापा शास्त्रीय अध्ययन 


अ्रधिक पदग्रामों के योग से होती है। सुविधा की हृष्टि से इनके तीन विभाग किए 


गए है । 
4, बद्ध पद्ग्राम-+मुक्त पदग्राम 
2. मुक्त पदग्राम +-बद्ध पदग्राम 
3. मुक्तपदग्राम + मुक्त पदग्राम 


2,2-:2.2.]- वबद्धपदमप्राम + मुकत पदग्राम- 


इसके अन्तर्गत उन पदग्रामों का अध्ययत किया जायेगा जिनकी संरचना 
बद्धपदग्रामों या उपसर्गो के योग से हुई है। ये वद्धपदग्राम निम्नलिखित हैं। सभी 
बद्धपदग्र'मों की कुल संख्या साथ के कोष्ठक में दी गई है तथा कुछ उदाहरण दिए 


गये है । 
2:2- 2-2 -.] शझ-(23) 

अखिल 7.38.7 अ्गम 

बज र 8.]].4 अधम 

श्रभय 5.28.8 अलम्य 
2:2-]-2.2. ] .2-अन-(] 0) 

अनधघ 7.25.2 अननन्‍्य 

अतबत 2-47.3 अनभाए 

अनुपम :: अनूपस 4-08.8 ; 6.]6-4 
2.2-.:2.2.|.3-अनु-(4) 

अनुकूल ,73.4 अनुरागो 

अनुरुप .56-2 (3) अनुहारि 
2:2. 2-2. | .4-प्रसि-( 2) 

अभिरामिनो .5.3 अभिमत 
2.2..2.2 .5-उत्त-( ) 

उन्नत 7.[7.4 
2.2.].2.2.].6-कु-() 

कुलीन 5.2.3 
2.2..2.2..7-दु “दुर- (2) 

दूसह .09.4 (6) दुरलम 
2.2.].2.2..8--नि०४ मिर-(]) 

निद्ुर 28.]| (6) निरप 

निलज 2.47.3 निरमल 

निरूपम 7.7.4] (3) निरगुनी 


2,82.]. (3 
2.74.2 
2.32.2 


25/-. ४ 
2.88.4 


7.79.].. (2) 


7.33 2 
7.2.6 
5.42.2 


) 


पद विचार 


2.2..2.2..9-- प्र >> पर“: प्रति >:परि- (  ) 


प्रबल .09.2 (3) प्रबीन 

प्रमुख .26.2 प्रद्स 

प्रतिकूल 7.2.5 परिपुरन 
2.2.] 2,2..]0- बि-( 2) 

विनीत 2.70 4 (6) विवस 

विमल 2.7.2 (49) विलोल 

विशेष .86 5 ब्याकुल 
2.2.'.2.2.].!--स; सम; सु-(46) 

सचल 5.3.5 सम्प 

संपन्न 2:50.2 सुगढ़ 

सुपीन 7.2.9 सुक्कृती 

सुरम 472.22 
2.2 !.2.2...2 - क्वि-(  ) 

अविनामी 7.38-] 
2.2,.2.2.2 - मुक्तपद ग्राम ने बद्धयदब्राम- 

नीचे उन विशेषणों को लिया गया है जितकी 
परप्रत्यय के योग से हुई है 

मुक्तपद ग्राम + बद्धपदंग्राम 

। + अनीय 

23 7 -+- . अई 

वर लखथ +ः ईत $ 

4५. + ई 

5.0 न- गश्रानी 

6. » न- आल 

9 ५, + आरी 

8. , -- इसी 

८ न इक 

]0. ,, -+-  ऐस 

8६ - «, + त 

25: 3 जा दे 

395 “प -+ वारोी 

)4. . + +- तर 


724.2 
2 67.3 
4.3. 2 


>> 


लत 5 वे 
प्छ 


९. च 
७2 ने (2४ 


7.30.] 


2070 
.6 4 


संरचना वदबधद्ग्राप या 


कमनीय 
अधिकई 
काहनोक 
घुरीन 
सोहानी 
रसाल 
सुखारी 
बदिनी 
वैदिक 
विरुदत 
दुप्ड 
सुभद 
सुञवारी 
चाहतर 


.76.2 
96.5 
6.2.3 
>-०.। 
.87.[ 
ब73]. 
.02.4 
2,43.] 
.5.4 
.68.2 
.]2 2 
4,20.3 
.25 4 
4.3.4 


]2 गीतावली का भदपा शाघ्त्रीय अध्ययन 


है. # के लथ्थ्लु :... मृदुल, कृपालु .27.3; 
.25.] 
76.. +# न गे ॒ सुभग .20.3 
7. +# न॑- तम”“/तमा ४ प्रीवम, प्रियतमा 5-7.2; 
7.26.2 


2.2.].2.2.3 -- सुक्तपदग्र।म + मुक्तपदग्राम- 


यहाँ उन पद्ग्रामों को लिया गया है जो दो प्रुक्त पदग्नामों के योग से निधित 


हैं। संरचना की हृष्टि से ये कई प्रकार के हैं- 
2 2.].2.2.3.|-- सासिक + नासिक >-विशेषण (0)- 


कृत्धत्त्य ].48.3 कृतारथ 
वलऐन 6.9.2 राजराजमौलि 
सत्यसंध 2.4व.3 धुरंघर 
सिरोमनि 5.25.3 

2.2 .2.2.3.2-नामिक + क्विया 5 विशेषण (3)- 
आनंद मगन ] ]05.6 मन भावतो 
मोदमढ़ी .5.3 मोहजवबित 
मंगलदाइ 7.33-] सुखप्रद 
सुखदायक 7.7] हितकारी 

2-2.2.2.3 .3-ता-मेक + विशेषण - विशेष (3)- 
मनमोहनी .34 5 रामविरोधी 
वरजोर .73.3 भजनहीन 
सोकजतित 2-54.5 

2.2: .2.2.3.4-विशेषण +- विशेष > विशेवण-(5)- 
परमसुन्दर 2.8 [ परमारथी 
नवनील 6.]7.4 भूरिनागी 
बड़भागी 3.8.3 

2.2.].2.2.3.5-विशेषण + नासिक - विशेषण (7)- 
अतिवलो 5-42,[ असित वल 
महावल .409.,2 होनबल 
एकरस .94.] महंामति 
सरवविद 7.28.2 

2.2, 2-अ्रथेंगत- 


प्र के आधार पर विशेषश दो प्रकार के हैं-- 


3.]5.2 
7.7. 
7.2].] 


.35.5 
5.0.5 
7.9.: 
7.44.] 


2.64.] 
2.74,4 


.64.2 
.-04.3 


7.2.9 
5542. 
35.24.] 


पद विचार 3 


(!) सावेतामिक विशेषश, (2) संख्यावाचक विशेष | 
<-2.2.]-सार्वतामिक विशेषण -- 

सा्वतामिक विशेषण दो प्रकार के हैं-(।) पहले वे सवंनाम जो नामिकों के 
पूर्व श्राते के कारण विशेषण हो जाते हैं । इनमें निश्चयवाचक, अ्निश्चय व चक, 
संबंधवाचक, प्रश्तव।चक आदि सावंनामिक विशेषण बाते हैं-इनकफा अध्ययन सर्व- 
नाम पदों के साथ किया जायेगा, (2) दूसरे प्रकार के सावंतामिक विशेषण वे हैं जो 
मूल सर्वनामों में प्रन्य प्रत्यय लगकर बनते हैं। इस प्रकार के सार्वतामिक्र विशेषण 
तीन प्रकार के हैं- 

(!) रीतिवाचक (2) परिमाणवाचक (3) संख्यावाचक । 
2.2,2.].[-रीतिवाचक सार्वतामिक विशेषण- 


ऐसी (आ०-4).. .82.3; 2-2.: 2,33.3; 3.4.3 
ऐसे (आ०-9). 2.88.]; 2.26.; 5.45.5; 6.7.2 
ऐसो (झा०-2) ,79.3; 3.6.4; .7.3: .88.] 
ऐसेड (भ्रा०-) .87.4 
ऐसेह आा०-).. 2.86.4 
ऐसेह्‌ (आ०-2). 7.30,2; 7.32.2 
कैसे (आ०-2).. 2.30.3 
जैसे (आ०-)... -.2 
जैसिए (आ०-) .77.4 
तैसी (आ०-) .43.] 
तैसे (झ्रा०-) .4.2 
तैसो (आ०-) .7.4 
2.2.2.] .2-परिमाणवाचक सावेनामिक विशेषण- 
झरीर (आ०ग-2).. 5-4.] 
इ्ततौ (आ्रा०-) .77.3 
एतौ (ञ्रा०-2) 5.3.5; 6-4.] 
कितौ (आ०-) [7 
केतिक (आ०-) 2.3.] 
जित्तौ (आ०-३ ) ] 77-2 
2.2-2.. 3-संख्यावाचक सार्दनासिक विशेषण- 
जिते (आ०- ) 7.38, 8 


2,2.2.2-पं व्यावा चक विशेष ण- 
संद्वाव/वक विशेषय तीन प्रकार के हैं 


4 


() निश्चित संख्यावाचक, 


गीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 


(2) अनिश्चित संख्यावाचक; 
2:2-2,2.-तिश्चित संख्यावाचक- 


(7) परिमाणवाचक 


निश्चित संख्यावाचक के भी कई भेद हैं | आलोच्य पुस्तक में प्रयुक्त निश्चित 
संख्यावाचक के विभेदों का वर्णव इस प्रकार है- 


2:2:2-2:-]-पूर्णां- 


एक (आ्र०-24) 
ड््क (आरा०-2) 
एकु (आ०-।) 
एकहि (आ०-!) 
एकौ (झा०-) 
दवे, दवै-दवे. (आा०-4) 
न्नय (आ०-2) 
त्रि (विध) (प्रा०-3) 
तीनि (झआा०-2) 
चारि“४चारी (प्रा०-25) 
सप्त (आ०-]) 
नव (आरा०- ) 
द्स (आ०-8) 
दसचारि (आ्रा०-3) 
चारिदस (आा०-]) 
सोरह (आा०-।) 
नवसात ०: तवसत (आ०-2) 
चौदह (ञ्रा०-) 
बीस (झ्रा०-2) 
सत (आ०-]) 
सहस (आ०-5) 
कोटि (आ०-4) 
सतकोटि (आ०-3) 
कोटि कोटिसत (प्रा०-!) 
सत-साता (आ०-) 
सहस द्वादसपंचसत (प्रा०-] ) 
जुग (आरा०-2) 
उभय (प्रा०-2) 


जुलल>“जुगुन (प्रा०-) 


.26.6, 
2.29.4, 
[7.] 
5.9.,2 
5.3].2 
.32,3, 
7.6.4; 
2.46 ,2; 
-58.3; 
.2.]0; 
.89,6 
.89.6 
5.22:5; 
65.22 ,4; 
.6.7 
.22-6 
2.]5.3; 
7.. 
5.-] 2.5; 
6.]6.] 
5-35.3; 
5-35.3; 
2:329.53$ 
2-29.2 
.] 0.2 
7.25.] 
4.3.3; 
.52 4 
.25.4- 


5.]7.2, .67.2, 7.38.4 
7.05.2 

.33.4, .3.4; 7-9.3 
2.-46,2 

2.44 .2; 2.46.5 

4:2-7 

.6.8; .6.25 

5.28.2;: 4.08.2; 7.9.2 
2.4.3; .0.4 

7.8.4 

6.3.4 

7.28.3; 3.]7.3; .4.5 
.98.4; .0.2; 2.36.3 
.68.]0; 7.5.7 

7.3.4 

7.6.3; क.] 2 


पेंद विचार 4॥$ 


2.2.2.2.[. 2-अपूर्स- 


आघ (प्रा०-) 5.]4.2 
2.2.2.2.,3-क्रम- 
प्रथम (आ०-3) 5.7.;2.49 .2:2.76.4 
दुसरे ० दूसरे८: दूसरों (आ०-5). 6.3.3;.4.7:.45.5; 5.25.;5.38.5 
पर (पर-हाथ) 3.7.3 
पहिलो (आ०-१) .82.3 
तीसरेहु (आ०-). 3.7.2 
आगिलो (आ०-] ) .84.8 
2-2.2.2.] -4-श्रावृति- 
डुनो (आ०-१) 2-54. 
चौगुनो (आ०-2) ]-04-;2.57.-2 
सौगुनी (आ०-) 2-87.3 
कोटि-गुनित (प्रा०-! ) 296-] 
2.2.2.2.4. 5-ससुदाय- 
दोउ “2 दोऊ (आ--46) .04.3;.55.;:-83.:2.5 5-2; 
.64.] 
डुहु >: दुहु ० दुह(प्रा०-6) 7.7.3;3.7.2;:-28.4:6.].2; 
.474-2 
तीनिहू (आरा०-]) 5.48.] 
तिहु>तिहुं ० तिहु ““ तिहँ (आरा०१0) .5.6; .3.6;:2-2.2; .9 3.3; 
2.72.3 
चहु०<४चहु “2चहूँ (झा०-5). 5-22.9;2-47.];7.7-2; 7.5-6; 
2-]4-3 
चारिहु:2चारिहु (आ्रा०-2) 2.49.5;:3.7.5 
चारो>:चारयो. (श्रा०-9) -9.;-6.2 
उभय (आ०-7) 2-9.2;:2-8,3:2.25.3;.6व.4 
सातह के (प्रा०-) ].86.2 
दसहु.. .- (आ०-2) 4.2-4; -2.3 
बीसहू के (आा०-!) 2-33,] 
कोटिक (प्रा०-) 2-39.2 


2.2.2.2.2-अश्रनिश्टित संब्याचाचक- 
अगनित (आ०-4) 2,5.2;:2.]5.4;7.4, ;2.47.3 


]6 


अति अलप 
अनगनी 
अनेक 


अत 
अभित 
ग्लप 
घ्‌नी 
घते ““ धने धने 
नाना 
थोरे 
बहु 
बहुत 
सकल 
सब 


सब 
सबहि 
बहुवै रे 


(प्रा०-) 
( ग्रा०-। ) 
(प्रा०-6) 


(आ्रा०-!) 
(श्रआ०-4) 
(आ०-।) 
(आ०-।) 
(श्रा०-3) 

( ग्रू ०-2 ) 
(प्रा०-2) 
(आ०-7) 
(आ०-!) 
(श्रा०-86) 
(आ०-05) 


(प्रा०-4) 
(आअ।०-2) 
(प्र/०-१ ) 


2,2.2.2.3-परिम्ाणवाचक-- 


अगाध 2“ श्रगाधु 


श्राति 

अधिक 

अधिकौ है 
अपार “० अ्रपारु 
अमित 


गहओआ “2: गछुइ 
धनी 

धनेरो 

थोरी 

बहु 

बहुत 

सकल 


(प्रा०-2) 
(आ०-74) 
( ग्र[ू ०-8 ) 
(आरा०-! ) 
(प्रा०-3) 
(आ०-०) 


(प्रा०-3) 
(प्रा ०-3 ) 
(आ०-!) 
(्‌ शा ०-- 3 ) 
( आ०-।! ) 
(आ०-3) 
( ग्र[ ०-४ ) 


गीतावली का भाषा शास्त्रीय अंध्ययंते 


.50.3 

0:53 

.4.;.5,4;5.9.);.67.2;7.33.2 ; 
.808.5 

5.9.4 

.33.3;..9;7.2.9;:3.4.3 

3.]6.2. 

[.5. 

5.3.2,7.9.2 

7.2.3;2.47.7 

2.].4;3.2.3 


5.7.3;7.9.4;.26.3;7.9.5 
2.38.[ 
.80.7;6.7.4;.82.2;5.6.9;.5.] 
7.38.8;7.7.5;।.36;4;7.2.6; 
7.2.5 
.6.26;2.37.3;.१.0 
7.24. 
2,76.2 


.87.4;6. .5 
7;2.;7.38.;2.5.;6.3.2;5.4.] 
7.]9.4;7.5.6;2.7.2;2.46.] 
7.4.4 
2.29.2;:7.89.5:7.0.3 
.94.2;2.29.2;7.3.2;:6,2.,6;3.2.4; 
7.7 

2.8.2;:7.2.8;:7.32.5 
.20.3;7.5.2;5.39.] 

2.54.5 

].62.3;2.20.] 

.59.3 
2.78.]:.]09.4:5.]व .4 
,2,6;5.435.4;.04.3; ,85.4;, 60 0,2 


पद विचार ]7 


सब (आ्रा०-6) 5.43.5:5.34.3:.48.3:2.]6.2;7.35.3; 
.2.! 
सो (सब) (आ०-)) 5.26.] 
2.2.3-प्रकार्यं गत- 
इसके अन्तर्गत विशेषणों के तिम्वलिखित प्रयोग मिले हैं- 
2.2.3.]-विधेयक के रूप में प्रयुक्त विशेषण- 


० 


आलोच्य ग्रन्थ में विशेषण अनेक स्थानों पर विधेयक के रूप में प्रयुक्त हुए 
हैं। कुछ उदाहरण इस प्रकार है- 


सूनो 2.54.] (भवन बिलोकति सूनो) 
थोर 3-.2 (दंडकवन कौतु छ ने थोर) 
चोखे 4.95.] (चमक्रत चोले हैं) 

निरास .90.] (सब चूउति निरास भऐे) 
थोरे 2.।[.4 (“ सुकृत नहिं थोरे) 

नई 2.78.] (कही कुजुग्रुति नई है) 


2.2-3.27-नामिक के समान अयुक्‍त विशेषण- 
विशेपणों का प्रयोग नामक के रूप में भी अत्यधिक स्थलों पर हुप्रा है-कुछ 
उदाहरण इस प्रक्तार हैं- 


सूकति ” अंबति ].60.3 (मूकनि वचन लाहु ““मानों प्रंधति 
ल्हें हैं विलोवन तारे) 
खोटो ख्रो 5.33.3 (खोदो ख़रों सभीत पालिए) 
बहुतन्ह .7.] (बहुतन्हू परिचों पायो) 
सबति .]5.6 (सबनि सुधनु दृह ई) 
अपराधिनि 2.74.2 (_ अपराधिंन की जायो) 
2,2.3.3-विशेषण के रूमान श्रयुक्त तामिक- 
राम सिसु .26.] (रामसिसु जनति निरख मुख निकट 
बोलाए) 
बाल विंभूषन _-23.2 (बाल विभुषन रचित बनाए) 
तुलप्ती जजको. “*«#.3 (तुलसी जब को जननी 
प्रबोध कियो) 
लगी दसा सो केहि भांति 
दास तुलमी 5:224 (दास तुलवा द 5 
कहै-बखानि) 
3 


है. 


| 


8 गीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 


2.2.3,4-विशेषश के पुर्व प्रयुकत विशेषण- 


वड़विषम 2.0,3 (घथिधि बड़ बिषम बली) 
प्रति अधम 2.74.2 (जद्यपि हों प्रति प्रधम ) 
अतिहि अधिक 5.9. (अतिहि अधिक दरसव को 
आरति) 
अति झलप .50.3 (अति अलप दित्तनि घर ऐहैं) 
चतुर अति 7.9 . (पुर-तर-लारि चतुर अति) 
2.2,4-प्रातिपदिकों के दीर्घ एवं रूघुरूप- 
2,2.4. [-दीघ॑ रूप- 
पुनीत पुनीता 3.3.] विलास विलासा 7,5,3 
मधुर सधुरे म.7.4 सात साता .0.2 
मनोहर मनीहरा 7-]9,3 
2.2.4.2-लघ रूप- 
गोरी .05.] गोरे 2.25,] गौर .63.2 
बडो .।0.3 बड़े ).78.3 बड़ 2.40.3 
सांवरो .97.।.. सांवरे 2-22-] . साँवर ].77"2 
सुन्दरी 2.8.2.. सुदरि .82-] 


हितकारी 7.74.] हितकारि 7-29.2 

2.2.5-श्रवधारण के लिए प्रयुक्त रूप- 

(प्र) हि, ड, ऊ, हु, हूँ, हू, हैं ६ 
एकहि 5.9.2; दोउ 4.04-3; दोऊ 2,55.2; तिहु .5.6; चहु 
7.7.2; तिहू .93.3; चहें 2.4.3 

(आर) इऐ-छोटिये .44.] 

252,6-तुलना- 
आलोच्प ग्रन्थ में विशेषणों की तुलना के तीन आधार मिले हैं- 

2,2.6-]-तुलता सूचक रूपों की सहायता द्वारा- 


तर रुचिस्तर .33.2 अझरुततर 7;2.6 सुदरतर 7.7.3 
तम““तमा प्रीतम 57.2 प्रियतमा 7.26.2 
सय बतिसग्र 7.3.6 
तें ताते व तरनिनें न सीरे सुबाकर हू ते .87.3 
सरद-सरोजहु तें सु दर चरन हैं 2.26.3 
ते प्रभुतें प्रभु-चरित पियारे .46,5 
परम परम सिंगारु प.82.] 


2.2.6.2-केवच न एक विशेषण पद द्वारा- 
भ्रधिक चित्रकूट पर राउर जानि प्रधिक प्नुरागु 2.47. 


पद विचार 


थोर दंडकबन कौतुक न थोर 

चोखे असि चमकत चोसे हैं- 

बड़ोइ सुवन रूमीर को वीर घुरीन वीर-बडोइ 
2.2.6.3-समानता की अभिव्यक्ति द्वारा- 

सम जुग सम तिमिष जाहि रघुन॑दन 

सरिस तुलसी तिन्‍्ह सरिस तेऊ 

सी सुखपा की मूरति सी 

से प्रानह के प्रान से 


सो रावन सो रसराज 


3..2 
.95.] 
3.० «7 


2.4«4 

2 37.3 
2.26.2 
2.26.4 
5.43.2 


9 


गीतावली का धभापा शास्त्रीय ग्रध्ययत 


20 

















कडकओे. शरीक... ४9७ ॥42/ ॥3/ फेक के परेड. #॥४ न फे 4९५ -|- 8:॥2 
। । । | ! । 
[___]| | | ॥। | | | 
| | 
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009४. ४2७३ ॥४]& /8४]॥2] | 
5] ७४७॥७.. ५७॥॥ 0७(७।६ 
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| _ । हि । | | 
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५४४४४ (2४0 ४:६४ 3४४: ।4]8/]  8/] | | | 
४ 588] ४ 00/88] . 722५४]॥४ )22५88/॥].. ५0520 3४ ५३४|॥2)2/8 ४2] ४2४७७. 92.]४३५36 
! ॥ ॥ |] | । | 
| | | | | है | | | 
। | 
| | | 
22॥0%% /2:॥/6& 42॥/४|+ 
| 


पद विचार 2] 


2.3-- सर्वनाम 

सर्वनाम वामिकों का स्थानापन्त वर्ग है । सर्वेताम प्रतिपादिक और विभक्ति 
प्रत्यय (दोनों) का निर्धारण करना कठिन है अतः इतका रुपात्मक ग्रध्ययत किया 
गया है। सर्वनाम को प्रमात्रित करते वाले श्रक्ष वचन और कारक हैं। लिंग भेद का 
उन पर कोई प्रम्माव चहों पड़ता | लिंग का निर्णय तो वाक्य-स्तर पर किया के 
घाधार पर होता है। 

नीचे गीतावली में प्रयुक्त विभिन्‍न प्रकार के सर्वनामों की सूची उनके वचन 
(एकवचन | बहुबचन) व कारक (मू०रू०/ ति०रू०) के अनुसार प्रस्तुत की गई है। 
प्रत्येक स्वंनामपद की आअआवुृत्तियों का यथास्थान उल्लेख किया गया है, अधिक आ्रावृत्ति 
प्राप्त होने पर केवल उनकी संख्या बताई गई है । 
2.3.-पुरुषवाचक सर्वनाम- 

इसमें उत्तम और मध्यम पुरुष सर्वनामों का विवेचन क्रिया गया है 
2.3..-उत्तमपुरूष- 

गीतावली में हम का प्रयोग अत्यल्प है। नीचे उत्तम पुरुप सर्ववाम की बचत 
आर कारकीय स्थिति स्पष्ट की गई है । 
2.3,,].]-वियोगात्मक रूप - 2.3..].,]. - घूलरूप- 


एकवचन वहुचनचन 
मैं (27 झ्रा०) 2.35.; 2.78.; 5 284, हम (4 प्रा0) 2.22.2, .75,2 
7.30.4, 6..8 5.(]3 , 2 66.4 
हाँ (66 आ०) 2.77., 6.8., 5.6.[ 
6.]4.2, 5.8 
2 3...].2 - तियंक रूप- 
मो (24 आ०) हम (] आ०) परतगंसहिनत 2.34 4 


सभी परसगग सहित 6.6.], 2.85.] 
5.7.3, 2.76.2, 5.24.2 


2.3-.].].3- संबंध कारकीय रूप (विशेषणवत्‌ ) 

मेरे (4 श्रा० ) हमारे (। श्रा०) 2-5.] 
.6.4, 6.5., 2.74.3, 7-2., 6.7.2 

मेरो (20 झा०) हमारे (2 प्रा०) -60.4, .63.2 
.85.2, 6.3.], 2:.57.], 5.55.], 4.]2.] 

मो (2- आ०) 3.4-3, .4-8 हमारो (2 झ्रा०) 2:66.4, 2.67.3 


मोरे (3 आ०) 3-2., 2.47-8, 2-.3 


22 गीतावली का भाषा शास्त्रीय भ्रध्ययन 


मोरि (3 आ०) 3.7.7, 2.70.2, 2.47.48 
मोरी ( आा०) .05.2 
मेरी (। आ०) 7.30.2 
2.3 ..2- संयोगात्मक्ष रूप- 
कर्म-सम्प्रदाव मो (हि) 36 जझा०) हम (हि) (2 श्रा०) 
2.53.], 2.74.], .8.3, 5.50.!, 6.5.2 
मो (हो) ( जा०) 2.20.2 
मो (हुसे) (॥ झ्रा०) 5 29.4 
मो (हु) (। श्रा०) 2.6.] ४ 
2-3.].,3- श्रवधारण बोधक प्रयोग- 
मेरोइ (। आ्रौ०) 2.84.3, हमरिश्रौ (] झ्रा०) 2-34-4 
2-3.].2-मध्यम पुरुष- 
प्रस्तुत ग्रन्थ में मध्यम पुरुष ब० व० के सभी रूप आ्रादरार्थ एकवचन के अर्थ 
में प्रयुक्त हैं केवल एक स्थान (5.45.) पर हहुवचन के अर्थ में प्रयोग है । 
2.3.].2.]-विययोगत्मक्त : 
2.3.].2. | .[-मूलरूप - 


एकवचन वहुबचन 
तू [7 आ०) 6-2., 2.]6., 7.32.2, तुम (9 श्रा०) -9.2, 6..6, 
5.50., 3.]6.4 2.4.2, 5:5.6 
तें (3 आ०) 2-60-], 6.3., 5.49.3 तुम्ह (4 श्रा०) .3.3, 5.20-4, 
6-4.], 2-72.] 
2.3 ] 2.] 2-तिर्यक रूप- 
तो (को) (| श्रा०) .28.] तुम (2 आझ्रा०) परसर्ग सहित-2.9., 
2.76 2 
तो (सीट्थयों) (2 ग्रा०) 524.4,.. तुम्छ (3 आ०) परत सहित 2,76.2, 
5.49.] .69 2 तया 5.45-] (ब० ब०) 


2-3.].2.] ,3-संबंधकारकीय रूप (विशेषशवत्‌) 


तेरे (4 आ०) 5.32 3, .8.3, तुम्हरे (2 श्रा०) 7.38., .40.2 
>.8.2, 7-2.] 


तेरो ([ ध्रा०) 2.60. तुम्हारे (5 श्रा०) 2-5., 6.8.4, 
5.47.3. 5.44 2, 5.20. 

तैये (2 भ्रा०) 5.26-2, ].9.4 तिहारे (9 था) 2.2., .37.], 
5-48.], -38.4, 2-4.3 


पद विचार 


तोरी (। झ्रा०) 2.6[.3 
तब (3 ग्रा०) 2:60.3, 7.32. 
0-2.+4 


2.3.!.2 .2-संपोगात्मकू रूप- 
कर्स-सम्प्रदात 

त्तो (हि) (१ आ०) 6.4., 5:3.], 
6..9, 2.3.3 

तो (ही) (2 आ०) 2:9.3, 2.20-3 
तो (हुपो) (। आ०) 5-7. 

तो (हु) ( श्रा०) 2.6.] 

2.3..: -3-अवधारण बोधक प्रयोग- 
तु (ही) (। श्रा०) 5-8.] 


2,3,2 -निश्चय वाचक 
2.3-2-]-चिकटवर्ती 
2.3-2-]-]- मूलहूप 
2.3.2.-..!-सर्वनाम रूप 
ए्‌० ब्‌०0 


यह (2 आझा०) 5-45-2, 2.7.2 


है (] आ०) 2.76.2 
ए (ये) हु ( आ०) 2.30-4 


2,3.2-].],.2-विशेषएा रूप- 
यह (29 जआा०) .47-2, 2-3.3, 
2.55.], 6-].3, .04-4 


| कर 
् 
अप 


तुम्हारी ([ आ०) 2-3.2 
तुम्हरी (। आ्ा०) 2-.] 


तिहारी ([ श्रा०) 5.5. 

तुब (2 ग्रा०) 5-.4, 5..2 
दो स्थानों पर “तुम्ह' संबंध कारकीय 
स्थित्ति में हैं 

तुम्ह (2 आ०) 2.7., 6:5.3 


तुम (हि) (3 आ०) 5.5.5, 3,3-4, 
5-5.6 


तुम्ह (हि) (2 झ्रा०) 3.6.2, 2.2-4 


तुम्ह (है) (। आ०) 2.76.2 
तिहारो (ई) (। आ०) 5.5-3 
तिहारे (हि) (। श्रा०) 6.8.4 
तुम्हरि (हि) (। आ०) 6:8.4 


व० व० 

ए (7 झ्रा०) .65.], .68., .78.2 
].78.2, 2.7.2, .78.4, .78.2, 
.78.3 

ए (ग्रे) (2 आ०) १-63.], -68-]] 

ए (ये ई) [। आा०) -.3 

ए (उ) (। आ०) -68-4 


ए (5 आआा०) .68.], 2.75.2, 28.2 
-87.], .78.3 


24 


भीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 


यहै““यहेै (2 झ्ा०) 2.56.3, 2.72.] ए (ये) (2 आ०) .45.6, 2.42.] 


ड्है (2 आरा०) .70.2, 2 ].4 
यहि (। आ०) 7-7-2 
2.3-2.4.2-तियंकरूप- 
2.3.2.].2-]-सवेताम रूप- 

या (के) ([ आा5) -]6.-4 

या (ते“:तें) (2 आ०) -96.5, 
2.57.3 

यहि (। श्रा०) .98.2 

एहि (वें) ( बआा०) 5.30.3 
इहि (तें) (। श्रा०) 2.7.2 


2.3.2.].2 ,2-विशेषण रूप-- 

या (5 आा०) 2.62.], .]6., 
2.53.2, 2.72 2, 6.6.3 

यहि (१2 आ्रा०) :88.]. 2.4.], 
5-3.], 5.50.4, 6.4.5 

इहि (। श्रा०) 2-4-2 

एहि (5 थ्रा०) 2.37.], 7.2.5, 
2.39.], .45.7, .98.3 

एही (2 आ०) 2.30.6, 2.34.3 
ए्‌ (2 आ०) (ति० ए० व० की भाँति 
प्रयुक्त) 7.75.2, .75.2 
2.3.2.2-द रवर्ती 
2,3.2.2.-मूलरूप 
2,3.2.2,,|-प्रवंचाम रूप 


ए (ई) (2 आ०) .74., .69- 


इत (को) (2 आ०) .95.2, 2.28.5 
इन (हि) (! श्रा०) .63.4 


इन्ह (के) (2 आ०) 2.28.2, [.74.4 
इन्ह (को) (! झा०) 2.87.4 

इन्ह (की) ( आरा) 3..3 

इन्ह (ते) (] झा०) .56.2 

इन्हें (। आ०) .77.3 

इन्हहिं:: (हि) (3 ब्रा०) .78.4, 

2 86.], 2.42.2 

इन्ह ही ; (2 थ्रा०) -83.2, -74 3 
इन्ह (ही को) (। झ्रा०) -86.4 

ए (। प्रा०) ति० ब० व० के समान 
प्रयुक्त) .6 8.9 


इन (। आ०) 5.50.4 
इन्ह (2 आ०) ,22.9, .78.2 


एहि (। झ्रा०) 6.4.5 


पंद विचार [25 


सो (2] झ्ा०) 3.7.8, त.04.] ते (3 आ०) 2.28.6, .5.4, 5.35.6 

2.4.], .86.5, .00.4 7.36.2, 6.22.] 

सो (इ) (0 आ०) 5.30.,2.7.4 ते (इ) (2 आ०) .45.7, 7.3.6 

.93.2, 5.49.2, 2.35.4 

सो (ई) (7 आा०) 5.24.4, 5.25.3, ते (हि) ([ आ०) .6.24 

.86.5, 2.4.2, 5.25.3 

सो (उ) (3 ब्रा०) 2.2.3, 7.25.2, ते (उ) (2 झा०) .46.5, 6.22.] 

6.4.2 

सो (ऊ) (2 ञ्रा०) 2.6.2, 5.24.3 ते (ऊ) (3 ञ्रा०) 3.9.3, 2.37.3, 
.80.7 

ते (। आ०) (ए० व० के समान 

प्रयुक्त) .69.3 

2.3.2.2. | .2-विशेषण रूपए- 

वह (3 आ्रा०) 5.47.4. 2.52.4, वे (। ञ्रा०) 6.47. 

5..3 

सो (25 सा०) 2.3., 2.40.5, ते (3 आ्रा०) 2.26.], 2.4.3, .37.7 

2.2.2, 5.2.5, 5.40.4 


सोइ(0 आ०) 4.57.3, .25.6 
5,3&8.3, 3.39.3 

सो (६) (!] आ०) .86.2 

सो (ऊ) ([ आ०) .99.4 

ते (] आ०) (ए० व० की भांति 
प्रयुक्त) .5.6 
2.3-2.2.2-तियेंक्‌ रुप- 
2,3"2.2.2.]-सर्वंवाम रूप- 


ता (] बा०) 6.6.2 उन (की) (] आरा०) 2.3.3 

ता (के) (2 आ०) .29.5, 5.26.2 तिन (की) (3 आ०) 2.3.3, 
2.7.3, 2.49.6 

ता (को) (4 आ०) 4.2.2, 6.2-:22 तिन्‍ह (3 श्रा०) 2-37-3, 7.5.5, 

5-32,2, 6-3.3 .46.5 

ता (की) (। आ०) 5.40 2 तिन्‍ह (की) (4 आ०) 2.85.2, .5.3, 
--]2, 6.! 8.3 

ता (सु) (] ब्रा०) .03.2 तिन्‍्ह (के) (2 झ्रा०) .[4.4, 3.5.5 


ता (हि) (2 आ०) (प्रादरार्थ ए०्ब०.. तिनन्‍्ह (वें) () श्रा०) .68.8 


26 गौतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 


के लिए) .2.4, 7.3].4 

ते ([ आ०) ति० ए० व० के समान तिन्‍ह (पर) (। आ०) .4.] 
प्रयुक्त 5.49.2 

तेहि (9आ०) 2.37.3, 2.48.5.. तिन्‍ह (हि) (4आ०) 5.45.3 
5.36.5, 

6.,3, 6.!0.2 ते (इ) (॥आ्आा०) .8.2 
2.3.2.2.2.2 -. विशेषण रूप. - 

ता (2 आ०) 2.68.], 5.3.4 तिन्‍्ह (। आा०) 2.4.3 

ते (हि) (3] आरा.) 2.8.4, 7.2.25, 

5.20.3, 2.89.2, 4.].3 

ते (ही) (। ग्रा०) 6.2.7 

ति (हि) (2 श्रा०) 7.29.2, .07.2 


2.3.3 - अनिश्चयवाचक गण 
2.3.3.]--प्राणिवाचक (एक वचन, बहुवचन में समान रूप हैं) 
2.3.3.,]--मूल रूप 

2.3.3,..]--सर्वनाम रूप 

कोड (8 ग्रा०) 2.53., .82.3, 2.64.3, 7.3.], 5.22,7 
कोऊ (2 आ०) 86.4, 2.55 2 

एक (] श्रा०) (एक का प्रयोग प्राशिवाचक मूलरूप में श्रनिश्चय के लिए हुआ है) 
.88.5, .45 4, .70.7, 2.4.2, 2.67.4 

2.3.3...2 - विशेषण रूप का 

कोइ (ग्रा० ) .2.8 

कोउ (आ० 3) 2,42.], 2.29.], 7.8.5 

कोौऊ (3 आ०) 2.6., 2.8., 2.9.] 

2.3.3..2 -- तिर्थक्‌ र्ह्प्‌ 2 

2 3.3..2.] - सर्वेनबास रूप. - 

कोड (। श्रा०) 6.22.]] 

का (हु) (2 आ०) 2.9.3, 5.3.4 


का (हु) (8 श्रा०) 2.39.5, 2.88., 5.5.6, 2.37.], .7.3 
का (हु) की ([ आ०) 2.62.3 

का (हू) सों (2 झ्रा०) ".37.], 2.88.] 

(इसके विशेषण रूप नहीं मिले) 


पद विचार 27 


2.3 ,3.2-अप्रारियवाचक- 

2,3.3.2.-घूल रूप- 

2.3.3.2.].]-सर्वेदाम रूप- 

श्रीर:४औ,रे (3 श्रा०) 5.39.2 

कछु (8 झ्रा०) 7.5.5, .73 5, 2,74,3, 2,84,3, .49,2 
कहू (आ० 2) 5.36.5, 5,30,3 

कछुक (। श्रा०) .73,5 

काउ ([ आ०) 7.25.4 

एकौ (] झ्रा०) 3.2. 

2.3.3.2.]. 2-विशेषण रूप- 

कछु (7 ब्रा०) 2 38., 3.3., 5.9.2, 4.2 2, ,34,6 

कछू (4 आ०) 3.5.4, 6.3,, ,6.4, 5,37.,5 

कछुक (3 ग्रा०) .708,2, 7.7,4, 7.28.3 

कोऊ (| श्रा०) 2,24,2 

(इसके तियंक रूप नहीं मिले) 

2,3,4-प्रश्नववाचक- 

2.3.4.-- प्राणिवाचक (एव चत श्रौर बहुवचन में समात्त हूप हैं) 
2.3 ,4, ,[-झुलरूप- 

2.3,4, |., ]-सर्वेतास रूप- 

को (40 आ०) .88.2, .6.], 237 ], 5.23 2, 528 8 
कोंत (7 आ०) 2.9 4, 65 [, 2.62 2, 2.62 3, 2.60.3 
कत (क्ॉन के अर्थ में | आ्रा०) |68 9 


को (5आ०) 2.67.2, 6,,5, .88 2 ] 22.4, 2.47 2] 
कौंत ( झ्रा०) 5.46 3 

कवनी (! ग्रा०) .58 3 

2.3 .4.] .2-दियक रूप- 

2.3.4.| 2.]-पवेनामस रूप- 

को (किसने व किसको के श्रर्थ में 2 आ०) 5.44 5, 2.66.2 
कौंच (की) (2 झआ०) 2.9.4, 7.4.6 

कौंत (सो) (। झआा०) 2-4.] 

कौने (। ग्रा०) 5.46.2 

केहि (3 आ०) 5 46 3, 2.60.2, 6.,5 


28 गीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 


काहि (3 झ्रा०) 6.]., 2.54,3, 5.43.5 

काको (2 श्रा०) 5.38,5, 6.7. 

काके (2 ग्रा० ब० ब०) 7.4.6, .64.] 

को (2 आ० तिरस्कार वाचक के अर्थ में) 5.22.5, 7.7. 
2.3.4..2,2-विशेषण रूप- 

कौंन (3 झ्रा०) 5.46,2, 2.62.2, .64.] 

केहि ([ झा०) .57.4 

2.3.4,2-अश्रप्राणिवाचक (एकबचन और बहुवचन में समान रूप हैं ) 
2.3.4,2. [-पू लरूप- 

2.3.4,2. |, | -सर्वनास- 

का (3 आ०) 2.44.4, .89.8 (तुच्छनता के श्रर्य में) 2.20.3 
कहा (3 ग्रा०) .59.2, 6.3.4, 6.4.], 2.84.], 5.26.] 
कबनि (] श्रा०) (तुच्छता के अर्थ में) 3.5.5 

का (ऊ) (] श्रा०) (क्या के श्र में) 2.36.व 

कौंन ( आ०) 2.57.3 

2.3.4.2..2--विशेषण रूप- 

का (। ग्रा०) 5 3.3 

कौन (5 आ०) 5.45.], 2.67.3, 2.83., 2.7.), 7.4.6 
2,3.4,2.2- तिर्यंक रूप- 

2.3.4.2.2, |-सर्वतास रूप नहीं हैं- 

2.3.4.2.2.2-विशेषण रूप- 

केहि (9 आ० ) 5.2.5, .59.2, 2.74., 7.]7.] 6, 5.3.3, 7.25.3 
कौव (5 आ०) (किस अर्थ मे) 7.4.6, 7.0.5, 2.4., .,], 2.60.4 
कवन ([ श्रा०) 2,8.] 

कोने (। झ्रा०) 2.9.3 


2.3,5- सम्बन्ध बाचक- 


2.3, 5.|-प्तुलरूप- 
2.3.5.].]-सबंनास रूप- 
एकबचन बहुबचन 
जो (23 आ०) 2.2., 7.9.2, नो (! आ०) 5.42.2 
.85.।, 6..5, 2.52.3, .00.4 
जोई (] ग्रा०) .86,5 जे (22 आ०) 2.28.6, 7,3.4 


>-35.6, 2.49.6, .32,7 


पद विचार 


जोइ (4 आा०) .6,23, 2.62.3, 
4.].9, 2.7].4 

जे (3 आ०) (एकवचनीय) 7.29.3, 
.5.6, 7,3.5 

2.3.5.] .2-विशेषण रूप- 

जौ (9 ग्रा०) 7.2.23, 2.80.2, 
,87.], 2,.56.2, .4.7 

जो (ई) (॥ आ०) 5.24.4 

जौन (| ज्ञा०) 5.20.] 
2,3,5,2-तियंक रूप- 

2.3,5.2, [-सर्वनाम रूप- 

जा ([ शझ्ा०) 2.82.3 


जा (सु) (7 आ०) .2.4, 7.6.6, 
2.7.3, 5.2,5, 6..6 


जा (को, के, की) (शञ्रा० 2) 5.27.3, 


.85.3, .64.4, [.86,5, .7.4 
जा (मैं) ([ आ०) 5-25.2 


जा (कहे) (। आ०) -25-6 


429 


जे (ऊ) (॥ झा०) 2.37.3 


जो (2 आ०) 2.38.], 7.9.2 


जित (4 आ०) 8.04-3, 2.26.], 
2.4.4, 2.39.6 
जिन (हि) (। आ०) !.4.] 


जिन (के) (। आ०) 2.85.2 


जिन्‍्ह (3 आ०) 7-3.6, 7.3.5, 
5.22-! ] 

जिन्हे (के, की) (परसग सहित) (9भञ्र ०) 
.78.4, 7.23.35, 5.45.3, .5.3, 
.83.] 


जाहि (3 आरा०) .6.23, ..9, 2.62.3 जिह (हि) (| आ०) 6.8.3 


जेहि (26 ग्रा०) [.86.5, -89.2, 
6.].2, 2.64,2, 2.67-2 
जिंहि (2 आ०) 2.6.2, 7-26.2 


2.3.5.2.2-विशेषण रूप 

जा (4 आ०) -8.2, 4.2.2, -8.5, 
5.50.] 

जेहि (4 झ्रा०) .93.2, .79.3, 
64,2, 5.20.3 


जिन्‍ह (हूँ के) (! श्रा०) 2.28.6 


जेहि (। आ०) (ति०्बण्ब० की भांति 
प्रयुक्त) 236 2 


जिन्ह (2 श्र०) 2.4.3, .68.8 


जे (3 अ्र०) (ति०्व०्व० की भाँति 
प्रयुक्त) ! 6.2, .5.4, 7.3.8 

जो (! आ०) (तिग्व०्व० की भाँति 
प्रयुक्त) .58.3 


30 गीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 


2-3,6-निजवाचक- 
गीतावली में निजवाचक सर्वेनाम के निम्त रूप मिले हैं--सभी रूप केबल 
एकबचन में हैं । | 
2,3 6.-- मुलरूप- 
झ्राप (( आरा०) (स्वयं के लिए) 2.34.2 े 
आपु (6 आ०) (स्वयं के लिए) 2.8.4, ] 96.4, 2.80.4, 5.2 2; 
7.24.2, .6.0 
2.3.6.2-तियेक रूप- 
आापु (। आ०) (तिथ्वत्‌ प्रयुक्त) 6..2 
श्रापूर्त ([ आ०) 2.38,2 
2.3,6.3-सम्बन्ध कारकीय रूप (विशेषणीय)- 
अपनी (3 श्रा०) 5.7.3, ).89.4, 7.20.3 
अपने (4 झ्रा०) 6.5.3, .02-3, 3,7.8, 3.6.4 
भ्रपनो (6 आ०) 7:26.3, 2.85., 5..3 5.30.3, 2.78.2, .79.4 
आपनी (4 श्रा०) 2.4.3, 2.9.4, 7 5 7, .6.8 
झापने (4 आ०) 6.6.4, .65.3, 2.87., 5.2 2 
श्रापतों (2 श्रा०) 5.50.2, 2.33. ह॒ 
आपनेहुतें ([ आ०) 2.38.2 
श्रपने (की) (! ग्रा०) 5.29.4 
श्रपनियाँ (] आ०) .34.6 
अपनपौ (| झा०) 5.36.2 
अपान (7 भा०) 5.22.7 
पान की (! श्रा०) 5,.-4 
निज [47 आ०) 6 3.2, 2.43.4, .5.], 5.35,4, 7.7.6 
2.3.7-आदरवाचक- 


गीतावली के भ्रादरवाचक सर्वंनाम के रूप मध्यम पुरुष सर्ववाम रूपों से घुले 
मिले हैं- 
2.3,7.]-समूलहूप (एक्वचन) 
आयु (4 आ०) 6.5.4, !.88.[, 5.74.], 3.5.] 
आपु (ही) (2 आ०) 7.29., .86.3 
2.3.7.2-सम्बन्ध कारकीय रूप (विशे० वत्‌)- 
रावरो (4 श्रा०) .50.7, 4.86.4, 5.30.4, 5.36.4 
रावरे (5 आ०) .37.3, .87.4, 5.8.3, .49,], 3,6,2 
रावरी (! आ०) .3,3 


पंद विचार, - 43] 


रावरेहि (आ० ) .65.3 
राषरेहु (आ० ) ,67.3 
राउर (आ०-)- 2,47.9 
2.3.8-त्मुदाय बाचक- 
2.3.8.]-पमुलरुप 
सब (प्रा०-34)-.03.2, 2.88,2, 7.[9.4, 6.5,3, 2,64.2 
सब (ही) (झ्रा०-)-.68.7 
सबे (अवधारण बोधक) (आ०-3)-.4.,] 76,3, 2..] 
2.3 .8 ,2-तियेक रूप- 
2:3.8.2.]-प्रयम बहुबच ते रूप- 
सब (की, के, को, कौ) (4--7+3+ 5-59 आरा ० )---5.37.4, 
2.67.4,7.9.]. 6.2.6, 5.25.2, 5.42., 
सब (हि) (आ०-7)- !-73.6, 2.89.2, !.90.6, .80.2, 5.36.3 
सव (हि को) (आ्रा०-)-6.8.3 
सव (ही) (श्रा०-)-*67-4 
सबही (के, को, की 6-- + ।>आ ०-8)- 2-30.3, 7-9:, .2-] 
5.7.3, 4.92.5 
2.3,8,2,2--द्वितीय बहुबचन रूप- 
परसग रहित-प्रव (ति) (आ०-9)- 2-2, .5.4, 6,22.9, 
2.48.4, 5.].3 
परसर्ग सहित ....सब (वि) (के, की, को, ( + [+ | # आ०-3) 2.75,3, 
2.78.4, 5.42.4 
सब (तिसों) (प्रा०- )-.5.4 
सब (हिल तें) (अ(०-१ )-2-87.4 
2,3-9-नित्य संबंधी- 
रुप रचना की दृष्ठि से वित्य सम्बन्धी सर्चनाम में दो संदंध सूचक सर्वेवामों 
के मध्य क्रिया-विशेषणीय विन्यासिम रहता है। गीतावली में प्रयुक्त इसके दोनों 
रुपों में से (जो, जे) आदि सर्वताम रूपों का अध्ययत संबंधवाचक सर्वताम के अन्त- 
गत तथा (सो, सोई। श्रादि सर्वताम रूपों का अध्ययत्त निश्चयवाचक स्वनाम के 
अन्तगंत किया जा चुका है। इसलिए इसका अलग से अध्ययन नहीं किया गया है । 
नीचे नित्य सम्बन्धी के कुछ उदाहरण दिए गए हैं- 
गुल रुप- 
एक वचन यहुबचन 
जो बन सी 2,80.,2 


गीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 


.29.3 


6.27.6 
2.48.,5 


आलोच्य ग्रन्थ में निम्नलिखित सर्वेवास संयुक्त रुप में आए है- 


.57.4 

7.9,5 

4.2.4 

5.24.], 2.3.], -84.,] 
].84., .64.4, 2 30.4, -84«7 
).88.3 

].88. 

.70.8 

.75.2, 6.2.4 

.76.6, .60.5 

.88.5 

5.38.2 

.59 2 

6-2].] 

2.32. 

-5.], 2.5.2. .6.3, 7.2.9 
2.72.] 

2.97.2, 5.24. 

55.3 

.63. 


2.4.4 धाहु- रचना को दृष्टि से धातुओं के दो वर्ग किए जा सकते हैं: 


32 
जे.........०*तें 
तिर्यक रुप- 
एकबचन बहुंवर्चच 
जेहि'"““तेहि 
तेहि २०७९ ३०% जेहि 
2.3. 0-संयुक्‍त सर्घनाम- 
अस केहि (आ०-) 
अपनी झपनी. (आ०-!) 
अपने अपने (ञ्रा०-3) 
आपनी आपनी . (आा०-3) 
आपने आपने (आ०-१) 
अपन को (श्रा०-)) 
आन को (आ०-]) 
श्ौर को (आ०-)) 
एक एक सो (प्रा ०-2) 
एक एकनि (प्रा०-2) 
एके एक (आ०-) ) 
कछु और (आ०-3) 
केहि केहि (आ०-१ ) 
कीठ इक (आ्रा०-१) 
जे।ह जेहि (श्रा०-) 
निज । चज (आा०-४8) 
बहुत कहा (अआर[०-।) 
सब काहु”2 हाहू (आ०-2) 
सब कोइ (आ०-!) 
सब कोऊ (आ०-) 
2.4-क्विया - 
मूल और योधिक । 


2-4..[-घूल धातु-आलोच्य ग्रन्थ में प्रयुक्त मुल धातुओं की संख्या 283 है जेरे 
दो भागों में विभक्त हैं-स्वराच्त व ब्यंजनान्त | 


पर्द (विचार 33 


2.4.[..[-स्व॒रान्त -प्र।लोच्य ग्रन्य में प्रयुक्त कुल स्वरान्त धातुए 3। हैं। लग- 
भग समी एकक्षरी हैं केवल एक दो घातुए हयक्षरी हैं । 


जता ; आ _/प्राव 7.38.3 
र्श्ई :... पी _/पिव .54.3, «/पूया .48.,2 
ऑअऊ. : छू/छुम्र .68.| 
ए दे _/दिय 7.6.7 


आओ : सो ५/सोव 6.9.2 
2.4.. | .2-व्यंजनान्त-ब्यंजनान्त घातुएं एकाक्षरी व दवयक्षरी दोनों प्रकार की 
हैं। कुल व्यंजवाँत घातुओं की संख्या 252 है | कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं- 


क वर्गीय-- चौक 2.85.3 »/रुक्‌ 3.3.3 
/दिख्‌ .85.2 लग 2.82.] 
३/नाघ्‌ 3.7.2 

च वर्गीय-- /तच्‌ 2,.47.]3 पूछ 6.9.3 
पूछ 3.8.3 »/कुज्‌ 2,46.4 

6 वर्गाध -,/ घट 2,79.4 मिट 2.53.2 
पद 4.62.] ३/उड्‌ 7,9.,4 
_त्रीड 2.48.5 

त वर्गोय-- /ह॒त्‌ 6..4 ४ मिथ्‌ 7.2.20 
/ कुद 5.22.4 >साध्‌ 3.6.2 
खन्‌ हक: 5 

प्‌ बर्गोय-- «/जप्‌ 5.38.5 र्श थप्‌ 6.22.3 
अलुभु .535.2 जम 5.38.5 
»नम्‌ 5.5.4 

र वर्गोय- भर 3.9 .3 जर्‌ 6.2.5 
पर प.3।.] ५/ हर 6.]7.2 

तल वर्गोय न्न्डे <“गल्‌ 5,43.5 अतुल ].42.2 
/मिल््‌ 6.]8.2 पल 7.26.2 

स वर्गोय -- _/धंस्‌ 74.4 नत्‌ 4.24,2 
रोप्‌ .89.7 

हैं वर्गोध- >दुह, .20.3 वह 5.4.3 


/रह, ,2. सह, 5.4,] 


गीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 





34 
समस्त मूल घातुश्ों की आक्षरिक संरचना इस प्रकार है-. 
| एकाक्षरी दुवयक्षरी 
ढाँचा ॥॒ ॥॒ लि 
स्वरांत व्यंजनांत स्वरांत व्यंजनांत 
स ग्रा 7.38.9 
ऐ 5.5.] 
वस रो .82.] 
| दा .22.5 
सो .9.] 
 >ठा 2.[.] | 
स्व /ओढ़ ].26.6 
/थआन्‌ 6.9.2 
आश्रांजू 7.22.7 
उड़ 7.9.4 
ववस ,/नन्‍हा।]]0. 
बस व <पीष्‌ 5.2.2 
चूम .02,6 
हनन .96.3 
वचन .80.6 
>बर्‌ 2.3.2 
वसव स/ </सिधा 2.87.] 
वसबव-- </मल्हा .22.0 
बस 
ववसबषव <खस्रव 2.3.4 
४ सूजू 6.2.3 
</भ्राजू .24.5 
व्‌ स॒ व- . | ९/प्रिधर 2,632 
मी १/हटक्‌ :85.3 
१/परस .93.2 
ह 4/परवार3, 7.5 
व स व- ७//मज्ज 2.46.2 
वस ५/बंद .90- 


५/निंद 4.82.2 


पद विचार 


2.4.[] .2-यौगिक घातु- 


35 


इस वर्ग की धातुग्नों को तीन वर्गों में रहा जा सकता है। सोपसंगिक घातु, 


नाम धातु और अतुकरणगूलक धातु । 


2.4. .2.[-सोपसमिक धातु-ऐसी धातुयें जितमें पूर्व प्रत्यय या पृव॑सर्ग संयुक्त है । 
मे कुल संख्या में [23 हैं । कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं- 


(अरारुह .62.4 
१/निकस्‌ .84.2 
प्रचार 6..6 
१/संहार॒ .67.2 
६/अकनू 5.2.3 


*/अनुसर्‌ 2.80.3 


4 प रहर 2. ]. 
/विलोक  .87.4 


(/अनरस्‌ .9.2- 


2.4, .2,2-नामघातु-गीतावली में नामिक व विद्येषण पदों का प्रयोग धातु रूप में 
हुआ है-इनकी संख्या 62 है। कुछ उदाहरण निम्नलिब्षित हैं-- 


(चमकत चोशसे हैं) 
(फलकत नभ) 

(भावति मोहि) 

(अधीसत ईस-रमेस मनाइ) 
(अपनाय विभिषन) 

(सापे पाप) 

(राय बास विधि भरमाए) 
(जग्य राखि जग साखि) 
(जोरि पानि विनर्वाह सब रानी) 
(सुख सं अवध अधिकानी ) 
(निर्दे बदल) 

(पीत बसन कटि कसे सरसावत्ति) 
(लखि सुनि अनुरागी ) 

(दमकति हँ ढँ दतु रियाँ रूरी) 


* - इमेंवेधातुर्ये आती हैं जो एक ही घातु को दोहराकर प्रयुक्त हुई हैं। ऐसी 


4/चमक .95.] 
९/भलक 2.50.5 
३/भाव 3.5.] 
१/अ्सीस .2.22 
१/ अपना 5.5].4 
१/साप्‌ ].47 2 
भरम 2,39.4 
4/साख 3.68.3 
९/विवयू. 6.20.2 
4/अधिक.  4,8 
4/*दा .82.2 
4/तरस्‌ 7.7.5 
अनुराग 4.6.42 
4/दमक .3].4 
2.4, .2.3-श्रनुकरण मुलक धातु- 
'घातुओं की कुल संख्या ] है । 
/चन्नुकार .46.] 
%/कसमसू. 3 22.9 
- १/कटकंदू. 5-22.4 
%/किलकिलू 5.22,9 


(उतरि उतरि चुच्ुकारि तुरंग नि) 
(किलकिलात्त कममसत कोलाहल होत) 
(कटकटात मठ भालु) 

(किलकिलात कसमसत) - 


36 गीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 


-+जगमग 7.7.4 (सख-ज्योति जगमगत ) 
/लरखर्‌ .30.3 (लरखरनि सुद्राई) 
»लहलह.. 2.96.2 (लहलहे लोचत सनेहू सरसई है) 


डगमग्‌ 5.22.] (डगमयत महीधर) 

'/हिनहिनू. 2.86.2 (वार बार हिनहिनात) 

_ भलमल' ].0.3 (ऋलकि झलमलत ) 

_ भभर 5.6.6 (भभरि भागे विमान) 
2.4. ] 3-वाच्य- 


आलोच्य ग्रन्थ में करत वाच्य व कर्मव.च्य दोनों के प्रयोग उपलब्ध हैं- 
3.4.].3--कत बाच्य- 
इसके वहुत उदाहररा प्राप्त हैं-यथा- 


कह तुलसीदास 2.48.5. परमवीर नह डोल्यो 3.3.3 
हो ग्रायो 3.7.4... मुदित बदत तुलसीदास 2.43.4 


2.4.] .3.2-कर्म वाच्य- 
2.4.].3.2.]-वियोगात्मक- 
गहि न जाति 2.62.3 वरनि न जाति .62.3 
कहि आ्रावति नहिं 2.8.]. कहयो न परत 6.].2 
2.4.].3,2.2-संयोगात्मकु-[ प्रत्ययों को जोड़कर ) 
दिख ० देखि +- इयत 5 देखियत .3.6 (पुत्ति भरेइ देखियत) 


जानि + इयत > जानियत ]..3.. (जानियत....येई निरमये है) 
कदि +भ्रव+अत > कहावत ] 64.2. (परमारथी कहावत है) 
सुनि+ इयत « सुनियत 6.2.].. (सुनियत सागर सेतु वधायो ) 


प्रालोच्य प्रत्थ में कतूं व।च्य कर्म शि प्रयोग के उदाहरण भी पर्याप्त मात्रा में 
मिले हैं, यथा-- हर 


(हनुमत )-(ने ) - कानन दलि होरी रचि बनाई. 5.6.4 
(गुरु छृपाल/-(ने )- सादर सबहि सुनाई 2.89.2 
(मैं )- (ने)- देखी जब दजाइ जानकी 5.8. 
(जिन्ह सुमटनि)- कौतुक कुधर उखारे .68.8 
(अदिति )-(ने )- जन्यो जग भानु .22,] 
सांची कही (अ्रंवा)-(ने)-सिय .72.3 


2.4. .4-प्रेरणार्थक्- 
अकतंत्ववाची घातुओं + प्रेरण।थेकू 5त्ययों से निर्मित सक्ेक घातुएँ- 


आलोच्य ग्रन्थ में इस प्रकार की धातुएँ पर्याप्त मात्रा में हैं। कुछ उदाहरण 
इस प्रकार हैं- न्‍ 


पद विचार 


चढाइकी .70.7 
जगावति 2.52-2 
मल्हावती .33.4 
दिखरावहिगे 5.0.] 
समुझावहिंगें. 5.0.3 
डोलाबौंगी 2.6.2 
पठावोंगी 2.6.3 
बोलाए 2.26.5 
लिखाए ].6.3 


2.4.2-सहायक क्विया-- 


स. 
स, 


झजक जताया ली सदर 


37 
चढावतत .92.5 स. 
बिलखावति 7.]7,.5 सं, 
सरसावति 7.87.5 स. 
विसरावहिंगे 5.0.5 स. 
करावींगी 2.6.2 प्री, 
देखाबौंगी 2.6.3 परे. 
पठाए 2.83.] प्र, 
पठवति 7.29.2 प्र, 
भुलार्वाह 7.8.5 प्रे, 


गीतावली में प्रयुक्त सहायक क्रियाप्नों को दो वर्गों में रखा जा सकता है 
एक तो वे सहायक क्रियाएँ जो मुख्य क्रियापदों के साथ प्रयुक्त हुई हैं और दूसरी वे 
जो मुख्य क्रिय्रा के समान प्रयुक्त हैं। दोनों प्रकार की सहायक क्रियाओं के रूप समान 
हैं, केवल प्रयोग अलग हैं । नीचे भिन्न-भिन्न कालों में प्रयुक्त (दोनों प्रकार की) सहा- 
यक क्रियाओं का झावत्ति सहित अच्ययत्त किया गया है । 


2,4.2.[-बर्तंसान- 
2,4,2,.[-दर्तसान (निश्चयार्थ ) 
2.4.2-.] .]-छत्तम् पुरुष- 


आवृत्ति 

एकवचन- 

हीं 4 
2.4.2..] ,.2-सध्यस पुरुष- 
एकवबचन- 

हौ 7 
2.4.2.]. ,3-अ्रन्य पुरुष- 
एकवचन्‌-- 

है 65 

सर्क ॥| 

होइ 3 
बहुवचत- 

हु 86! 


संदर्भ 


2,4-3, 3.7.3, 3.7.3, 6.6.3 


6.4.2, 2.7., 2-75., .9.4, 
2.75.], .50.2, 2.8. 


.58.], 5.34.2, .86.5, .55.2 
.85.2, 2.78.3 

2.49 .6 

.2.8, 7.2,5, 2.83.3 


6.3,2, 6.7., .80.4, .2.5, 
,74.3, 2,25.4 


38 गीतावली का भाषा मास्त्रीय-अध्ययन 


मुख्य क्रिया के समान प्रयुक्त रूप- 


उत्तम पुरुष- हे 
हो ] 7.8. 
सध्यम पुरुष- 
हौ ! 5.20.4 
अन्य पुरुष (एकवचन)- 
है 2] 2.64.], 5.26.2, .96.5, .7.2, 
.6.]5 
* रहै 2 5/8,2 
बहुबचन- 
चि 53 2.28.6, 2.30 3, 2.30.3, .64., 
7.4.6 
श्र्हँ ] 2.3. 
रहैँ ॥ ]043.3 
कृद तीय रूप- 
होत 8 2.54.2, 2.58.2, 2.47.. 
रहत 9 7.2,3, 5.9.2, 5.49.2, 
होति 5 2.54.], 5.20 4, .22.3, 
2.4.2..2-वत्तमान (संभावनाथं) (सभी मुख्य क्रियावत प्रयुक्त)- 
2,4.2. -2.]-उत्तम पुरुष- 
ह्वहों ] 2.62. 
होठ 2 2.63,2, 2.72.2 
रहौ ] 2.7.3 


2:4.2.].2.2-मष्पम पुरुष का कोई रूंप तही मिला-- 
2.4.2.[.2.3-पश्रन्य पुरुष- 


होय 3 2.3.4, 3.7.8, 5.39.6, 
होइ 6 2:4.3, 5.5.4, ४०2523..:5:33:2. 
5.2.4, .89.3 
हो हि 2 2.].2, 3.]5.4 
होउ ] .68.2 
2.4.2.2-बर्तमान आज्ञार्थ (मभी मुख्य क्रियावत्‌ प्रयुक्त)- 


मध्यम पुरुष- 


होड. 2 [.740,2, .4.6 


पद विचार 


होह 3 
होइ:०होहि 2 
होही 


2.4,2.3 भुतकाल- 


2.4.2:3. [-भूतकाल (तिश्चयार्थ ) 


(एकवचन पुह्लिग)- 


हुतो 2 
क्षयों भो, भौ,3 
(बहुवचत पुल्लिग)- 
भे 2 
हुते ] 
भए, भये 8 
(एकबचत स्त्रीलिग) 
भई, भई. ४8 
ह्ई 2 
(बहुबचन स्त्रीलिय) 
भई' ] 
सुझ्य क्लिया के समान प्रयुकत- 
ह्दो 
हुतो || 
द्द 
हुते ॥ 
ह्ठी त॒ 
सो, भो 22 
भयो, भयौ 45 
भे ] 
भए, भये 50 
भइ; भई. 37 


..4, 
5.23.3, 
2.9.3 


.93.2, 
6.].], 


],7., 
5.49.4 

.., 
3..3, 


5.34.3, 
5.47.2, 
2.78.4, 


.62.3 


.]04.4 
3.42,2 
3.40.] 
.74.] 
2.]9,4 
.66.], 
6-]4.3 
.38.], 
.90.8, 
.64.2 
7.9.5, 
5.28.2, 
.2.6, 
30.33 3% 


39 


2.29.5, .90.4 
6.,8 


5.40.4 
5,39.3, .84.7, 


.95.3 


2.45.5; 2.49.], 6.5.4, 
3.5.5, .80.4, 7.3.5, 


.96.4, 2.78.4, .85.], 


5.24.3, 2.34.4,'3.86.2 
.86.3 


.66.2, 2.33.3, .86.] 


5.5,2, 
,28.5, 


.47.4,_.88.4, 


6,22.4, 5.4., 5.32., 
3.9.] 
].05.3, .52.4, 4.3.4, 
5.37.] 


]40 


भई 
रहि 
रद्दी 
रहयो 
रहे 


९2 (० ४०2 #“ज|ै |» 


2.4,2.3 .2-भूत (संभावनाय)- 


(एकवचन पुल्लिग)- 
होतो 
(बहुवचत पुल्लिग)- 


[ 


] बढ 


2.4,2.4-भविष्यत्‌ निश्चयार्थे- 
2.4-2.4.-उत्तस पुरुष में कोई रूप नहीं मिला- 


2.4.2.4.2-सध्यम पुरुष- 

हज हो 
2.4.2.4 3-अन्य पुरुष- 
(एकवचन)- 


है है 
(बहुवचन ) - 

हर्॑ हैं 

होंहि 

हो इहैं 
(पुल्लिंग बहुवचन)- 

हो हिगे 
(स्त्रीलिंग एकवचन)- 

होइगी 
2.4 .3-ऊकृदन्त- 


2 


8 


गीतावली का भाषा शास्त्रीय अ्रध्येंयन 


.34.,6, 
6,4.3 
.08.4 
2.84.], 


॥ ४4 .2॥, 


6:]2. 


2.6.3 


१.8., 
6.7., 
.99.4, 
5.23.3, 
2.60.4 
7.2., 
.6.27 


2.79.4 


2.4] .2 


2.55,5, .6.3, .4.7 


2.60,! 
24].] 


2.]4.3 


6.4.3, 5-5.3, 2.85,3, 
6.7.3., .95.], 3.6. 


6.8., 6.7.3, 6.8.3, 


श्रालोच्य पुस्तक में निम्नलिखित कृदस्तों का प्रयोग हुआ है- 
2.4.3.] वर्तमान कालिक कृदन्त 


.2.4.3.2 तत्कालिर कृदन्त 
2.4.3.3 अपूर्ण क्रिपा दयोतक कृदन्त , 
2.4.3.4 'सूत्तकालिक क्ृृद॒न्त 


2.4.3.5 क्रियार्थक संज्ञा 


पद विचार १44 


2.4.3.6 पूर्वकालिक क्ृृदन्त 
2.4.3.7 क॒त्त वाचक संज्ञा 
2.4.3,]-वर्तेमानकालिक कृदत्त- 


इस क्रदवन्त के भुख्य प्रत्यय ये हैं-- 
घातु +अत (46) 


>तान्‌ + भ्रत न्‍८ तानत .92.5 
गाव +अत & गावत 2.47.9, .2.9, ] 3.4 
जा +अभ्रत ++ जात 2.46.4, 2.75.2, 2.85.], 5.5[.3 
>दे +अत ऋ_ देत .6.24 
>पिटू +अत ऋ पैठत 4.62.! 
धातु + शत + हु: हैं (4) 
<मर्‌ +अ्त +#हु # मरतहु 3.6.] 
जानू +अत ऋ#ह ज-+जानतहू 6.4.] 
» भूलू +आव +-अत + हू >-भुनाववहू .42.! 
वोर॒+ अत कह ल्‍ तोरतहू .92.5 
धातु + क्रत + इ०:ई (स्त्रीलिग) (6) 
»/ उठ +अत +३ # उठति 2.37.2 
>गाव्‌+अत+इ रूगावति .7.2, .33.4 
गाव +अत+ ई ८ गावती ].72.4 


बज +आाव+ प्रत+ईजू|वजावती .33.4 
2.4.3.2-तात्कालिक क्ृदत्त- 
गीत।वली में तात्कालिक क्ृदन्‍त की रचना वर्तमाव कालिक कृदत्त के समाच 
अत-लगाकर ही हुई है | एक-दो स्थ,व पर अत्रधारण वोवक प्रत्यय भी सयुक्त हुए 
है-कुल प्रयोग तिम्त हैं । (तात्कालिकता का निर॑य अर्थ के आधार पर होता है) 
(6) चलत 5,5., चितवत्‌ 7.33.5, 2.47.6, 7.7.7, 
छुप्रत ].67.3, .68.8, परसत -93.2 
सुनत .38.5, 7.29.4 
+हि”:ही (2) 
निरखतहि 7.8.5. निरखतही 7,87,], 
2.4.3 .3-अपूर्ण क्रिया दूयोतक कृदन्‍्त- 
इसके बहुत कम प्रयोग मिले हैं -- 
जियत 3.8.3, 2--2 जीवत 2.40.4, 5.4.2 
ढूड़्त 2.68.4, पैरत 2.78.3, 3.. 


42 


2.4.3 .4-भुतका लिक कृूदन्‍्त- 
धातु 4 इ०:ई (3) 
4/पहिचान्‌ + इज-पहिचानि 
१/वेंद. +ई  बेठी 
(भा नईज-भाई 
१/सीख्‌ +ई 5 सिखी 
धातु+एं (58) 

५/ऊतर्‌ +ए र ऊनरे 
१/थक्‌ +एज थाके 
१/मारू +ए 5 मारे 
१/ओदू +ए च्ओड़े 


१८दी कएल्दिए 
घातु+श्रा+ए 55()_ 
%/निर +श्रा+ए ७ निराए 
पा कए . ऋूपाए 


३/पमिदु +झ्आा+ए"मिदाए 
१/सुन्‌ू +आन+-ए 5 सुनाए 
$१/ला +ए >लाए 
घातु+ए “2ओ + इ“: हि (3) 
भर +ए+छज>भरेइह 
३/बैंद्‌ +ए+ंहि  वैठेहि 
4/बेरु +शओ+इ (हि) घेरोइपै 
धातु+ओ (4) 

९/खर +श्लरो #> खरो 
१/कर्‌ ०८कि -+य +ओ  कियो 
९/बंब्‌ +4+श्ो जवंध्यो 


२भमर्‌ +पग्रो ऋ>भरो 
घातु +श्रा+य+श्नो (5) 
$/भाकऊब+शओो ज|भायो 
4/जा+य +झ्नो >जायो 


गीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 


.80.4 
6.9.] 
3.26.3 
2.52.4 


5.30.4 


2५0४ 
2.87.3 
4.42.2 
.7.3 


232.2 
.86.2 
] 94,2 


23507 223 
-.32.] 


.3 6 
2.68.2 
3094:2 


3.0,3 
3,90.2 
5.50.] 


5[5,4 


4.]7.6 
2.74.,2 


१/चल्‌ +झआा+य +झो - चलायो 6.2.4 
३/समुझू +आा + य +ओ >समुझ यो 6 2.3 


घातु+ (2 


(विनु पहिचानि) 

(बैठी सगुत मनावति माता) 
(कहत मन भाई है)- 
(लागति प्रीति सिखी सी) 


(पट ऊतरे ओढ़िहों ) 
(थाके चरत कमल चापौगी) 
(मनहु' कमल हिम मारे) 


: (ओोढ़े चले चारू चालु) 


(देखत अंबुद झ्रोट दिये) 


(निफन निराए वितु).. 

(जाको अंत पाए विनु ) 

(मनों मिटाए शआ्रांक के ) 

(विनु सिय सुधि प्रभुहि सुनाए) 
(प्िखवति चलन अंगुरिया लाये) 


(पुनि भरेइ देखियत) 
(वै०हि रेत विहानी ) 
(घेरोइप देखिवो) 


(तोलों है सोचु खरो सो ) 

(कियो आपनो पैहै) 

(जा दिन वंध्यों सिंधु त्रिजटा 
| सुन्ति) 

(लाज भय भरो कियो गौन ) 


(भय्ो सवको मन भायो) 
(अपराधिन को जायो) - 
(राज चलिहै न चलायो) 

(दे जावकिहि सुनहि समुझायो) 


पद-विचार - 43 


९/छर+ 2 ऋछूर -. 2.32.] (नरनारि बिनु छर छरिगे) 

संस्क्ृत-क्त प्रत्ययान्त को तरह के प्रयोग गीतावली में अधिक हैं -- 
जठित ॥.34.2, प्रमुदित .2.4, भूषित .3.2, 
सेवित 5.43.3. नमित .89.5, विकसित .36.3 
समंडित 7.7.3 . विदलित 6.4.4 


2.4 .3,5-कियार्षक संज्ञा- 
गीतावली में क्रियार्थक संजा की रचना विभिन्‍्त्र प्रत्ययों के योग से हुई है जो निम्त 
हैं, साथ ही अ्रनेक स्थानों पर एए प्रत्यप लगने के उपरान्त भी भ्रन्य-प्रत्यय संयुक्त 


हुए हैं । 

धातु + श्रव (38) 

४ बैलू +- अन ८ खेलन 8.22.]3 

१/चलृ + अझन ७ चलन 3.42.3, .32.] 
%/जा +अन > जान 2.59.2 


१/बेंट + आप + अनन्वैंटावंच  2.85.2 

*/सीख्‌ + भ्रव + सिखत (परसर्गसहित) 7.23.2 

३/चू +ंअन उ ऋझवन 548 2 

धातु + अन + इ इयाँ, उ, ए (4--] + 2 + )545 
३/प्रवरस +अन +इ > नरसनि .2.2 

३/कह्‌ क+अन+इकहानिः .88.3, 2.3[.3, 2.8.] 
३/चलू +अन-+इच्च्चलनि | 28.2, .9.3, .55.5 
%/घोवू +अतरइस घोवनि .2.2 

४सोह -+शाव 4 अनव + इ से हावनि 2.46.2 
 किलक्‌ +अन-+इयाँ. >किलकतियां .34.5 


%&चलू +अनर्न्॑ड 5 चलनु 5.49.3 

4९/गव्‌ +अन+उ र-गवनु .66 2 

दे +अन-+ए रह देने 2.33.] 

धातु + (श्र) ब-+ ए (45)- ; 

/गृहू + (श्र) 4+ए ७ गुहवे .88.2 (परसगे स'हेत ) 
कर ००की +- (श्र) ब+ए 5 कीवे 5.28.7 

%&जियू+ (अ) ब+ए ऋजियवे 2..2 (परसर्ग सहित) 
चीन+ (अ) व ए बीनवे .7.] परसर्ग सहित) 
धातु+इ+ (अ) ब+ए, झो (42) है 

गा +इ+ [ग्र) व+ ए > गाइवे 2.33.3 (परसग सहित ) 


१/वोर+इ-+- (अर) ब+-ए तोरिवे 6.4.4 


० 


]46 गीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 


हो-सहायक क्रिया का ह वे धृवेकालिक रूप 7 वार मिला है । 


ह 


ह्ढ 2.70.] (7) 
शून्य प्रत्ययान्त पूत्रंकालिक रूप के निम्न प्रयोग मिले हैं । 
१/निरख. + 2 5 निरख ].26.], 2.72.3 
१/साजू_ + ४22 5 साज 7,27.4 
/मुद्‌ न 2४% सुद -2.48.] 


4/परसू + 26 परस .52.7, 2,.50.4 
2 4.3.7 कत वाचक संज्ञा- 


गीतावलो में कत वाचक संज्ञ। बनाने वाले प्रत्यय निम्नलिखित हैं- 
घातु+अन (9) 


/बेंट +आव-+ ग्रत > वैंटावन 6.7.[ 


*/विमोच्‌ +॑अन > विमोचन 5.43.2 
%/रंज्‌ न+अन > रंजन .22.4 
%/हर्‌ +अन हरन 7.4,] 2.26.3 ' (5 बार) 
%/भंजू कअन > भंजनव 7.4.), .39.2, !.22.2 

घातु + अनी; इनो; अनियां (स्त्री०) (7) ह 
%/विमभोत् +अनी ' + विमोद्नी 7.32 5 
श्श्हो +-भ्रनी न होनी 2.2.], 2.22.4. 
(/निऊकंद ऋ#इनी ल्‍निकदिती. 2.43.] | 


१/सुख +ंदा +अनियां >सुखदनियां .34.] 
धातु + अनो; अने (2) 
4/सोह_ न+ आव + अनो >सोहाइ्नो .22.7 


हो. +भने न्न्ह्ने 2.23.2, .07.3 
इसके अतिरिक्त तिम्त प्रत्यय लगकर भी क॒त्‌ वाचक संज्ञा के रूप्‌ बने हैं- 
() हर विपतिहर 6.]6.4 


(7) हार+उ निरखनिहारू 7.8.5 
पुरनिहारू 7.9.2 
भजनिहारू. 7.8.3 
मोहनिहाई. 7.8-4 


(।) हार+ए (वबहुव०) बिलोकनिहारे 3.68.8 
(2) वार+ए. . रखवारे ,68.2, 3.3.3 
(त्ति० ए० व०) 


(।) घार+ई धनुचारी .63,2 


पद विचार 47 


(3) हार+ई त्रासहारी .25.6 
(मुनि) मनहारी 2.54.2 
तमहारी 5.48.3 
(6) ऐया उखरैया ,8 5,3 
बसेया .9.6 
सु्नेया .9.5 
लुटेया १.9.5 
(2) वेया अन्हवेया [.9.6 
देखवेया 2.37-2 
(2) घर काकपच्छ घर .60.2, .54.] 
4.99.4 
घनुधर 3-[.2 
धातु+ई ह 
(2) /जयू +ई-जई -.85.3 


बिहार +ईबनह्विहारी - 2.54.2 
2,4,4-काल रचना- 
गीतावली में प्रयुक्त कालसं रचना को तीन वर्गों में विभाजित किया जा 
सकता है । 
2.4.4.] कृदच्त 2.4.4.2 मूल काल 
2.4.4.3 संयुक्त काल दर 
2,4.4.]-क्दनन्‍्त काब-क्षरल्त काल से तात्पय यह है कि जो प्रत्यय घातु में. संयुक्त 
होकर कृदन्त रूप बनाते हैं उन्हीं रूगरों से काल की भी संरचता होती हो। इसके 
अन्तगंत दो कान्त आते हैं। 
2.4.4.].] वर्तेमान 
2.4.4..2 भूत 
2.4.4,].]-बर्त मान-गीतावली में वर्तमान कालिक क्ृदस्त का प्रयोग वर्तेमान काल 
के ग्रथ में भी हुम्ना है । इन प्रयोगों में कृदनत रूप ज्यों के त्यों वर्तमान काल का शअर्थ 
देते हैं। वततमात कालिऊ क्ृदन्तों के निम्नलिखित प्रयोग वर्तमन्‍न काल का बर्थ 
देते हैं- 
2.4,4,..] चर्तमाव पुल्लिग धातु + अत”“अतु 
2.4.4...].] उत्तम पुरुष- (8) 
कह. +अंत #कहत 5.45.4, 5.8.[ | (एकबर्चन) 
4/जानू. +अत ऋूजानत_. 6.6.3, 3.4.  ह! 


है 


[48 


$/जीवू. +अत्त  जीवत 
*/डरपू. +अत रडरपत 
%(दि + ग्रत 5 देत 
*/विछुर्‌ु +अत + विछुरत 
९/त्तरसू +अ्रत ७ तरसत 
*/देखू +अतु +देखतु 
2.4-4.].].] .2-मध्यपुरुष (8) 
$/अलस्‌ +आत #अलसात 
%/जेंभू. +आत जात 
१/चाहू. +अत ८ चाहत 
१/जानू +गत &जानत 
%डरपू +श्रन्न रूडरपत 
(/मानू +अ्रत मानत 
हो +अ्रत > होत 
०बूकू.. +अ्त «वबूफत 
2.4.4.] . . [,3-अन्य पुरुष (93) 
$९/कर्‌ +शअतर करत 


९/किलक्‌ +अत > किलकत 
%/गल्‌०“गर्‌ +ग्रत 5 गरत 


दि न अंत + देत 
५/छिरक्‌ +अत्त  छिरकत 
९/हरप्‌ +-अश्रत > हरपत 
$/सोचू +अतु > सोचतु 


गीतावलौ का भाषा शास्त्रीय अध्ययने 


2.58.,, 2.59.4 
2.78.2 
2.64.] 
2.2.] 
2.66,4 
5.25.] 

धातु + आत ““ अत 
१.9 .4 (आदर०) (एकबचन) 
.9.4 ; 
3.6.4, 6.4.] 
2.7.], 6.4.2, 
.50.2 
2.75.] 
2,3.3 
5,(5.2 

धातु + अत 5: अतु 

5.36.] 
.24.4 
5.42,3 
7.22.9 
2.47,6 
.92,4 
2.66.,2 


(बहुवचन ) 
(एकवचन ) 


१82 


2.8.] 


(बहुवचन ) 


(39) (भ्रा०) 


(वहुबचन) (2 आा०) 


2.44..].2-वर्तसान (स्त्रीलिग) धातु + अति 


2.4.4.].].2. [-उत्तम पुरुष (5) 


९/कह्‌ +-अति ७ कह॒ति 
$/जीवू +-अ्रति > जीवति 
९/देखू. +अतिछ देखति 
&सकुत्र +श्रति > सकुचति 
सुन +अति « सुनति 
2.4.4..].2.2-मष्यस पुरुष (4) 
4/कर्‌ +अति >करति 


4+/जान -+अति - जानतमि 


2.9.3 (एक्वचन ) 
2,86.4 
2.83.2 
2.85.3 2 
2.4.3 ५ 
.79.,2 (एकबचन) 
4द9१॥ । 3) 


'पद विचार [49 
३/सकुच +अतिज-सकुचति .8.] एक बचन 
३/समुझू +ग्राव +बति समुकावति 2.85.2 हर 

2.4.4..] .2.3-अन्य पुरुष- 

धातु + अति “2 अती ८ (96) 


उतर न+अरा+अति न्‍न उतारंति .09.5 
१/विलप्‌ के अति न्न्द बिलपति 3.7.। 
“लह + अति छः लहति .]05.2 
पूछ न अति च्द पूछति 6.9.3 
_सराह्‌ न अति ष्त सराहृति 5.34.3 
शहों नः अति कु होति 2.54.4 
१/ नाच -- अति जि नाचति 7.]7.]4 
छतचु+अव + ञ्रती प्र नचावती . .33.4 


25 


2 4 4.]2 - भुतकाल - इसके दो विभाग हैं । 
2.4.4..2.। - भूतनिश्चयाथं - 
गीतावलो में भूतकालिक छृदन्‍्त का प्रयोग भूतकाल के अर्थ॑ में भी हुआ है । 
इसमें कर्ता के लिंग, वचन के अनुसार ही क्रिया के लिंग, वचन में परिवर्तत 
मिलते हैं नीचे भुतकालिक प्रत्ययों के लिंग, वचन, पुरुष के अचुसार प्रयोग 
दिखाये गये है । 
2.4.4.].2.].] - पुह्लिग- 
2-4 4:.2.,].-]-उत्तस पुरुष एकवचन- 
घातु क॑ य +॑ तो 5 (2) 


१/चलू +य + ओ - चल्पो 7.3] 4 
&/आरा + य + भो 5 आयो 3.7.4 
2.4.4 ,.2..].2 - सध्यस पुरुष - 

एक बचन ->'घातु + ये के ओ हू (2) 

$८जा + (य) + ओ >>. जायो 6,2.] 
६/श्रा+ (य) न ओ ल्‍ः आयो 6.3.] 


2,4.4,].2,.].3 - अन्यपुरुष - 
एकबचन - धातु + 2 +- (5) 


$/जान_ +॑ 2 ऊऋ जान 7.25.5 
३८देन्दिकयन+ छ 5 दिय 7.6.7 
'_/॥ला + व + ४ चल लाय .44.2 
4/वाग _ + छि बट लाग 2.48.5 


घातु + (बय) +ंशो , औ ( 52 ) 


]50 


(आरा कऊ+॑य+ ओ चर 
(/राखू +य + ओ 
९/जागू +य + शो 
चढ़ा + ये + झो चर 
५ विबह + य + ग्रो 

१/लहू +य रन ओ ८ 
0/भाष्‌ + ये -+औौ -> 
*/लख +य + ओऔ ् 
१/जि+ श्रा +य+झओझः 
'/विसर्‌ +ग्राकय +- भौ 


॥| 


॥ 


गौतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 


आायो 
राख्यो 
जग्यो 
चढ़ायो 
निवह यो 
हे यो 
भाष्यौं 
लख्यौ 
जिआयौ 
विस रायो 


धातु + शो ,औ 5 (।4-+-2) रू !6 
थाको 
विचारो 
उजारो 


$&/थाकट्ट्थक + ओे रे 


१/विचार +ओ <- 
५/उजार्‌ +झओझो 
छू + ओऔौ च्द 


श्रनियरित भूतकालिकरूप 5 (3) 
4९/की + ईनह + और 
%/दी + ईनह + अं जद 
&लीकईन्ह कंत्रों 


छुओऔ 


कोन्हौं 
दीन्हों 
लीन्हों 


.6.9 
॥.63.4 
2.]2.3 
.93.] 
5.42 2 
.]04,3 
2.406.3 
8.92.5 
2-56.3 
2.56.4 


6.7.] 
2.66.2 
2.66.2 
5.253 


3.3,। (2वार ) 


दो स्थानों पर घातु में ईन्ह प्त्यय संयुक्त होने के उपरान्त अन्य प्रत्यय 


नही लगा - 
%/दो + ईन्ह नदी 

(/की -+- ईन्ह च्र कीन्ह्‌ 

घातु + एड; ओडइ (2+]) 3 
«कह, + एड प्र कहेड 
«&पोप्‌ के एड 5 पोणेड 
अबढ़ू + ओोइ पड बढ़ोइ 

धातु + ए थे, (222) - बहुवचन - 
ओढू + भा + ए घ् गोढाए 
/कर०कि + ए जे किए 
या नए नल गाए”2 गाये 
अपहिर + आ+ए मत पहिराए 
पा * + ए्‌ च् पाए“ पाये 


वढऊआनकन ए 


बढ़ाए 


5.6.6 


6:22:.7, 
2.88.] 


2.47. [7 
2.47.]7 


7.24.4 
5.]6.0 
3७0, 


.20.6 
(22ग्रा0) 
( €बार ) 
.26.3 
(0अ.,0) 
6.22.9, 2,8853 


.65.5 


पद विचार 


॥| 


4/रख“”:राख+ ए 
७हंकार +ए प्र 
%/चीन्ह र्कए पल 
अनियमित - भूतकालिक रूप. “7: 


की + ईनह + ए नर 
दी +े इड + ए न 
"/लीक+ ईनह +क ए च्ड 


धातु + आन + ए 


]54 


यहां घातु में एक प्र यय जड़ते के पश्वातू पुनः दूसरा अत्यय जुड़ा है - 


(/अघू + ब्ान के ए च्च्ल 
बैंड कं आन ऋऊऋ ए पक 
4१/बिलख्‌ + शान ऊऋ ए 
(/हरप्‌ +श्रावन + ए न 


॥ 


राखे .6.20 (7प्रा0 ) 
हंंकारे ] 68.9 

ची न्‍है 3.3.3 

कीन्ह ].02.6 (3ग्रा0 ) 
दीन्हे 275.3 (23आआ0) 
लीन्हें 3.3.3 (4 प्रा0) 
चघाने 5.40.3 

उड़ने ] 36.3 

बिलखाने )-36.3 

हरपार ].8 0-6 


एक स्थान पर केवल आन प्रत्यथ भूनहाल ( एस्वचत ) का अर्थ देता है 
यथा-गश्राकुल +- आनन्‍च"्भञ्कुलाब 2.59-4 


2.4.4--2-].2 - स्त्रीलिंग - 


2.4.4.] 2 .2.] - उत्तम पुरूष - केवल दो रूप एक वबन में मिले है - 


धातु + ई (2) 
पर के नि 
१/मोह, क॑ ई 


2.4.4..2..7".2 - मध्यम पुरूष में कोई रुप नही 


2.4.4..2..2.3 -श्रत्य पुरूष-- 


धातु + ई, इ - (03) 
१/उपज्‌ +# ई न्न 
*/उदू न न जय 
«९/मार्‌ ई द्ल् 
“"/कह्‌ कम रद च्त्र 
4 पढू कंभ्राने ई प्र 
(गा + न्यि च्त्ड 
'/दिखू ऋकनओआन॑- रड बज 
/पहिर्‌ +श्रा+ ई न्त्र 
'/जा ८ (गम)+ इ जज 
4/पा त्त्र डर ्ण 


दी 


झपिय/मत भ तकालिक रूप (2) 


+ ईन्ह कई 


प्री 3.7.3 

मोही 2.]8.4, 2.9.] 
है- 

उपजी 2.633 

उठी 3.0.2 

मारी ],83.2 (4वार) 

कही .72.3 

पढु ई 3.52.6 

गाई 2.40.5 (4आ0) 

दियाई ..2 

पहिराई .93.3 

गइ 5.39.] 

पाइ 5.6.3 

दीन्ही 5 5,3, 7.38.5 


752 गीतावली का भाषा शास्त्रीय ग्रध्ययन 


+की + ईनह+ ई हद कीन्ही 7.38 5 
धातु+शञ्लान +ई (0) 


३/अधू + झान + पट अंधानी .4.8 
९/बिलख +ब्रान +ई पद बिलखानी 2.4.4 
%/हुलस +शान +ई श्ड हुलस।नी .4.2 
९/शीतल्‌+श्रावन +ई नल शीतलानी 6,20.4 

धातु +ई +- (॥) 
९/विथक +ई प्प्न बिथकी 2.]7.3 (बहुबचन)” 


2.4.4. -2.2-भूत संभावनाथे -- 

गीतावली में भूत संभावनार्थ के रूप दो प्रकार के हैं । एक तो वे रूप 
जिनकी रूपर चना वर्तमान कालिक क्वन्‍्तों के समान है लेकिन अर्थ वे दृष्टि से ये 
भूत संभावनार्थ के रूप प्रतीत होते है, दूमरे प्रकार के रूप वे हैं जो मनु जनु आदि 
संभावत्तार्थक अर्थो को बताते हैं और जिनकी सं रचता भूतकालिक रूपों के ही समान 
है । वीचे सभी रूपों क्रा आवृत्ति सहित वर्णन किया गया है । 
2.4.4..2.2. [-वर्ते भान कुदन्त पर आधारित रूप -- 
धातु + अत (4) (अन्य पुरुष एकवचन) 


१/कर्‌ + भ्रत न करत 6.2.3 
« फर्‌+अत न्‍्क फरत 6.42.3 
(/घर्‌ + भ्रत न घरत 6.2.2 
५/निदर्‌ +-त च् निदरत 6.2.2 


सं हि 
बाडु+ खत + भी. ्य पृत्ण एकबंचन-। | + ) 


९/ब्लु+अत +ग्रों. 5 छलतो (उत्तम पुरुष एकबचन) 5.3.3 
छमर+प्त+ओ. रू भमरतो (उत्तम पुरुष एकवचन) 5.28.8 
चल 4 क्र] +श्रो. रू चलतो (उत्तम पुरुष एकवचत) 5.3.। 
(फलू+अत+शों ८5 फलतो (भ्रन्य पुरप एकबचन) 5.3.3 
घातु-+-प्रत+ ए [) 

कह +अत-+ए पू कहते 5.28.4 [अन्य पुरुष बहुबचन 


2.4.4.].2.2.2 सतु जतु बाले रूप - 
पुल्लिंग श्रस्य पुरुष 
धातु +ब+उ () 
ग्राकय+उ 5 आयउ 2,.47.8, 2.47,9 
घातु+प+शओ (0) 


५ 


पद विचार 53 


१/पहु+आजऊ-य+शोल पढायो ,93.2 


$/तोर+ब+ग्यो 5 तोरयो .१09, 
*जा+य+शो ८ जायो 5,2,2, 7.0,4 
धातु +ए (4) 

आ्राकए.. ८ आए 7,4,2 
छपू+आन+-ए 5 छपाए :26.6 
(/“बस्‌ू+आन-ए 5 बसाए 2,49,2 
(विरच्‌+ ए ऊः विरचे 7.92 


अनियमित भृतकालिक रूप- 
धातु +ईन्ह +ए () 


$/दी+ ईन्ह+ए सर. दौनन्‍्हे 27.3 
सन्नीलिंग रूप- 

धातु+ई (9) 

३/बुट+- ई ८ बूटी 2.2 .2 
/आन+- ई ८ आई 7.3.3 

शओबद्+. ई ः ओोढ़ी .33.2 
५ सख्टराखु+- ई + राखी 7.]7.। 


चार स्थानों पर संभावना यदि के रूप में प्रगट हो रही है- 


गए - 2,83.,3 

रहै न 2.4.4 

साध्यौ न्‍- 2,3,4 

रोपे - 5.2. 
2.4.4.2-घूलकाल- ; 


इस काल के रूप न तो कृदन्तों से बने हैं न सहायक क्रिया के योग से- 
इसी कारण इन्हें मूलकाल कहा जाता है। इसके अन्तर्गत वतंमान, प्राज्ञाथ और 
भविष्यत्‌ काल आते हैं । सभी का क्रमानुसार वर्णन किया जायेगा- 
.4.4,2.[ बर्तमान- 

इस काल के रूपों में पुरुष प्रौर वचन का अन्तर तो मिलता है परन्तु लिय 
का नहीं, दोनों लिगों के रूप समान हैं--नीचे गीतावली में वर्तेमान काल में प्रयुक्त 
प्रत्यय आवृत्ति सहित दिये गये है । 
2.4.4.2.].]-उत्तम पुरुष- 

(एकवचन) धातु + उं2>अहं (2) 

+/जा+उं ञ. न्द जाउं 

कर्‌ + भहूं 


2.63., 5.33.2 - 
3.5,7 


॥ 

श्र 

रथ 
४0॥, 


54 


धातु + श्लों (33)' 
>/देख+ओऔं 


रा 


« फूल-+ग्राव+ औ 
ऑकर्‌+ओऔ '* 
2.4.4.] .2.-भध्यम पुरुष- “ 


ग्रालोच्य प्रथ में (वर्तमान 


झत्यल्प है- 
श्रात्‌ + ऐ 


4/ला&»ली-+-ज+ऐ ८ 


१/दा०दी+जकऐं # 


2.4,4.2. .3-पभ्रन्य पुरुष- 
2.4,4,2..3.] एकवचन- 
धातु+ 2 (3) 


राख +- (2 
कहना. हा 
वहन 
#राचु+. 98 
धातु + ऐ (40) 
4/कसक्‌ +ऐ 
“भाज्‌ +ऐ 
>भीज्‌ +ऐ कफ 
%/जाव्‌ कंऐ 
- ४/वृभ--आव +ऐ ८ 
१/समुझू + आव + ऐड 
धातु +इ, ई (8) 
जा + ई बे 


१/सोहकआ + इ 
ऑलोभू +ब्रा+ इ 


॥ 


॥ 


औअस+मा -- इ कई 
९/८लाजू +आ+ ई ८ 
(/सराहू + इक 
</जान्‌ नाई 


गौतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 


देखों 
सुनो 
फुलावौ 
करो 


लीजे 
दीर्ज 


राख 

कह 
वह 
नाच 


कसके 
अआजे 
भीजे 
जाने 
बुमावे 
समुफाव 


जाइ“2 जाई 
सोहाइ 
लोभाइ 
समाइ 
लजाई 
सराहि 


. जानी 


3.9.4 

2.54. 

.8.3 

5.45.3, 6.7.] (5 बार) 


काल के मध्यम पुस्ष के रूपों की संख्या 


2,74.] 
2.74.] 


2.48,5 
2.48.5 
2.48.4 
7.8.] 


.44.2 
7.5.4 
3.45.3 
2.9.,3 
].82.3 
2,53.,0 


7.34.6, 4.90.]. .9.[ 
7.22.6 

7,2.45 

5.2.], ].90.]] 

2.46.7 

.70.7, .5.2 


.6,0 


पदे विचार 55 


घातु + आन +-इ, ई (5) 


१/वस+-आन न इ वसानि 5.7.4 

१/सोह +आन +- ईःऊ सोहानी ॥.4.]] हैं 
4/पसिह रग्ानर्न- ई सिहानी .4.9 

धातु +3(5) 

/आनू +उ पः आनु 7.6.3 

“चछाड्+उ च्ड छाडु 2.48.5 

चालू --उ 5. चालु 59222 


2.4.4.2..3 ,2-- बहुवचन -- 
बहुवचन में तिम्नलिलित प्रत्यय मिले हैं-- 
धातु+ऐ (52) 


4/राखू +ऐं घट राखें ,7.2 
<नाचू+ऐं न्‍ः.. नाचैं .94.2 

रह +ऐँ रहें .43.3 

>सोह +ऐं न्‍ः.. सोहें .24. (5 बार) 
१/कह +ऐं 5. कहैं .95.3 (27 वार) 
कर + ऐं ल्‍ः.. करें ].7.2 _ 

'घातु +-आह (52) 

>छिरक्‌ +-र्भ्राहि ब् छिरकाह .3.5, .2.6 
*/पच्‌ +-अर्हि का पर्चवाह 5.6.7 

भर नंभ्राहि. 5 भरहें !.2.6, 3.5 
१/वजू +आव-+-अंहि ८ बजावाहि .2.3 

4/भूघ्‌ +आव +-अहि ८. कुन्नावहि 7.8.5 
धातु + भई () 

५/धर्‌ +अईं सा घरई 7.22.6 
धातु-अहों (6) 

किलक कअही किलकहीं ॥.2.8 
१/मोह कहीं 5 मोहहीं 7.9.2 
७५/विराजू +शअहीं व्राजहीं 7.9.2 
2वारू +अहीं ह्ूौ बारहीं .22.0 
>मल्हा +-व-+अरहीं ८ मल्हावहीं .22.]0 
घातु + 27 (3) 

५#वसून- 92 सःःः बस 7.2.2 


राख 2.48.5 


| 


४राख+ 2 


56 गीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययेर्न 


५वाजू+ ४2 बाज .4.5 
2.4.4,2-2-व्ततेमान संभावतार्थ- 

वर्तमान संभावनार्थ के केवल दो उदाहरण मिले हैं- 

4/मिल्‌ + अहि पद बोल 2.86.2 (जो राम मिलही बने) 

'“बोल+ ऐ चर वीले 2-86.2 (जो बोले को उदार) 
2.4 4.2.2.-आ्राज्ञाथें- 

गीतावली मे श्राज्ञार्थ क्रियापद के रूपों में लिंग संबंधी विकार नहीं हैं। 
अधिकांशत: श्राज्ञार्थ के रूप मंध्यम पुरुष के लिए ही प्रयुक्त हैं और ये मध्यम पुरुष 
सामान्य और आदरार्थ दोनों ही प्रकारों के मिले है। अतः सर्व प्रथम सध्यम पुरुष के 
रूपों पर विचार किया जा रहा है । 


2.4,4.2,2.[-मध्यम पुरुष- 
धातु+ 2 (2) ' 
१सुन्‌ + 8 ऋ सुन 5.49.] 
एबूक +॑ कं <5 बूभ 6.7.] 
घातु +इ () 
8/कर के इ कि करि 2.9.3 
४देखू + इ तर देखि 2.27.] 
/समुझू + इ समृझ्कि 5-8.3, 5.2.4, 6,.7 
एजावू के इे बट जानि 5.6.], 5.25.3 
सुनू + इ + सुनि 2.57.4, 2.6.3 
४निरख के दा सब्य निरखि 2.9. 
घातु+अहि (5)  * 
दे + अश्रहि + देहि 6.20-2 
१/मेद्‌. + अहि हू मेटहि. 5.3. 
$/डर्‌ू + अ्रहि '८ डरहि. 3.7.4 


सुन # ब्रहि सुबहि 6.2.3, 2.9.3, 2.67.] 
जा + शत्रहि : जाहि. 5-27.2 

धातु +भ्रद (28) : 
/अवनोक +- अहु 
%/उद + अहु 


| | 


अ्वलोकहु 2.29.5 
उठहु .89., 2.52.2 


॥ 


#खिलू + अहु रू खेलहु.. 7.2.4 
५/कर्‌ ०कौजू + अहु < कोजहु 2.]].4 
%१/चलू + बहु # चलहु 5.2[-4 
४युन + प्रहु छ सुनहु॒ .37.3 (8 बार) 


पद विचार 57 


घातु -- इय (8) 


/कह के इप रू कहिय .49.2 
"जागू + इय. छऋ जागिय .5.3 
'देखू + इय. ४ देखिय 3.45., 2,47.8 
&बूकू + इय के वृक्िय .50.2 
ला के इय  छके लाइय.. 2.7.4 


धातु + इए, इसे (25) 


आमाँगू + इए हे मांगिए 2.].2 

राख + इए का राखिए 5-43,3 

विचार न इए छू विचारिए .86.3 

१/दौल + इए ऋ तौलिये .2.2 

(€जागू ऊ॑ इये ऋक जागिये 3.38.] 

धातु + इयो (2) 

१/कह्‌ ने इयो # कहियो 2-87.4 

$/सुनु +॑ इयो  सुत्ियों 3.6.] 

धातु + उ (24) 

कह नी उ के हु 5.48... (7 बार) 
जानू न उ जानु. 3:7:6 

१ दिखू + उ देखु. 2-30-] (5 बार) 
&निहारु+ उ # निहारू 7-8.]. 7.0.2 
'/मिलु न उ # मिलु 6--9 
&जिर्कझा+ उ£ ऋके जिश्लाउ 2-57.4 
(पी+श्रान॑उ रे पिश्राउ. 2.57.4 

घातु --5 (3) 

४जोहू. +झऊऋ जोऊक 2-6.2 

4 पोह न के ऋ पोऊक. 2-6.3 

*/गोह, ने ऊ 5८ गोरऊ. 2-6.3 

घातु+ऐ (8) 

</कर्‌० कीज +- ऐ हू कीजे १-84.7. (9 बार) 
(जीन: ज + ऐ रू जीजे 3.5-] 

१/दा० दी+-ज+ऐ दीजे.. 6.8-4 (8 बार) 
4/ बाँध नी ऐ कक बाँचे 5.27.3 


॥्‌ 


*/बितू. + ऐ चित. .97-3, 7.2- 


१$8 


घातु + श्रो, औ. मो (9) 


कह +# गो 
%/दिख्‌ + ओऔी 
सुन + ओ 
बुछू + प्रो 
*/लेख्‌ न भरी 
%/उद्‌ ्न- मी 
९४ क+॑ओं 
%/सिचा+ व +-शभरौ 
शत्रावू + श्रौ 


॥ 


धातु + इबी >> भ्रवी (3) 
$/कर७ की +इबी 
$पालू +शअबी रू 
%/सुन्‌ + भरा +यबी 2: प्र 


घातु + इबे (१) 


*%/जानू + इवे 


धातु +- इबो (4) 


4/सह. +इबो 
रह नै इबो 
१/कर “की + इबी 
कह. + इबो 


घातु + एह (2) 


शकह. + एहु 
$मानू. + एहु 
2-4-4,2-2-2-उत्तम पुरुष एकबचन-- 


धातु + श्रौं (24) 


च्ञ 


आघावू +श्नौ « 
*/दिल्‌ ना औ ८ 
$/बह्‌ + श्रा+ + वश्चौं- 
१/प८ +अव+ ओऔऔौ # 
(कर रन ओ छऊ 
!.4.4,2,2.3-अन्य पुरुप- 
),4.4,2.2 .4 .(-एकबचन्‌-- 


शगीतावली का भाषा शास्त्रीय-अंध्ययन 


कहो 
देखी 
सुनो 
बूझी 
लेखी 
उठी 
कह्ठों 
सिधावो 
श्रावों 


कीवी 
पालबी 
सुनायवी 


जानिवे 


सहियो 
रहित्नौ 


” कीबो 


कहिवो 


ण्हु 
भानेहु 


घावी 
दलों 
बहाव 
प्छ्वौ 
करो 


5.40.] (5 बार) 
5. 6.] (5 वार) 
.89.] 

237] 

4.7.6 

.37.] 

.03.3 

2-87.] 

2.87.[ 


2.78.], 7.29. 
१.29.3 
6.(4.] 


4,9.6 


5.4.] 
5-4.] 
5.3 3.3 
6-4-4 


3-] 6.] 
2-47.]8 


,89.9 
6.8,2 
6.8.4 
6.],3 
2«॥ 3.2 


पद विचार 59 


जी न ऐ ८ जिये 6.9.3 

पर +॑ऐ कक परे 2.76.] 

१/गांव्‌ न ए गाव. .39.3 

लागू. .+ऐ लागे. 2.+.4 

मिलू + ऐ च्ट मिले... 0.9.3 
धातु + अहु-<झउ (6) ४ 

मर + अहु 5 मरहु 2.0 

#बढू + झअह बढ़हु .2.0 

ऑअवंसू + अहु छ# बसहु .78.2 

जा + ग्रह #+ जाहु .78.2 

पति + आउ के पतिग्राउ 5.45.4 

अचिरजीव+ बहु ऋ#४ चिरजीवहु 7.2.0, .0.4. 
धातु +भ्रौ () 

/जी“जिवुकओ छऋे जिवौ >“ जियो ..7, 7.8.6.- 
घातु+ 2 (१) ह॒ 


| चिरजिव+ 22 बट चिरजिव 7.9.5 
2.4.4.2 2.3.2-वहुबचन-एक प्रयोग मिला है- 

धातु + एं-() 

क्‌हु के ऐ कक कह 2.55.4 
2.4,4.,2. 3-भविष्यत्‌- 

आलोच्य ग्रस्थ में भविष्यत्‌ काल के लिए तीन प्रकार के रूप सिले हैं । 
है वाले रूप, “व” वाले रूप और “ग' वाले रूप । ह' और 'ब' वाले रूपों में लिग 
सम्बन्धी अन्तर नहीं पाया जाता, केवल 'ग' वाले रूपों में लिग का अन्तर मिलता है। 
नीचे भविष्यत्‌ काल के रूपों पर विचार किया जा रहा है। 
2.4.4.2.3 .]-उत्तम पुरुष- 
2.4.4.2.3 .] .]-एकवबचन- 

धातु + इहों (2) 


ञ्रा + इहौं « आइहौंऐडौों .2.,2.75.2,2.5.3 
4/ओढ न इंडों ल्‍ः ओढ़िहो 5.30.4 
४सुनक्त्रा + इहौँ.  सुनाइहोँ. .48.3 
सोव्‌ +्रा + इहौं 5 सोआइहों. .2॥.4 
गा रन इडौं न्‍न गाइहों .2.4 


धातु +ऑं - गो (५०) (6) 
-१/कह + औं- गो. # कहाँगो 2.77,। 


[60 गीतावली का भाषा शास्म्रीय प्रध्यवन 


५४रह के म्ौ- गो 5. रहौंगो 2.77. 


१/निवह_+ प्लरॉ- गो ८ निवहाँगोी 2.77.3 
सह + आऔौं- यो न सहोँगो 2.77.2 
</लह + शआऔलाँ- गो ८ लहौंगो 2.77.2 
गह + आऔ- गो नै गहाँगो 2.77.3 
धावु+उ-थो (पु०) (7) 

आ#आअधा + उ- गो न्‍ू अधाउगो 5.30.3 
'/विक्‌+आ+-उ - गो मै विक्राउगो' 5.30.4 
$/सकुच + आ + उ-गो ८ सकुचाउगो 5.30.2 


खा -+ उ-यो भू खाउगो 5.30.] 
जा + उ- गो  जाउगो 5.30. 
धातु+औं -गी (ख्लरी०) () 


आव्‌ + शञ्लौं- गयी  आवौंगी 2.6. 
दिख + ऑऔं- गी 5 देखाँगी. 5.47.] 
कर + औं- गी 5 करौोंगी 2,8.2 
अधाव्‌ + श्रौं- भी हू घावोगी 2.55.3 
४पा+कव+ औं- गी ऊू पावोंगी. 2.6. 
“ला+व+ औं- गयी + लावौंगी. 2.55.3 
2.4.4.2.3.. 2-बहुवचन 5 घातु + इबे - (॥) 
४ बिलोक्‌ + इवे ऊ बिलोकिवे 2.36.॥, 2.38.3 
2,4,4.2.3 *2-मध्यमपुरंष- 
2.4.4.2.3.2 . [--एकवचन- 
धातु + इहै (2) 
७(/भर्‌ -+ इहै 5 भरिहे 2.60.4 
४/घुनु+आ + इहै ८. सुनैहै 5.50.] 


2.4.4.2.3.2.2 *वहुवचन व एकवचन ग्ादरार्थ प्रयुक्त) 
धावु + इहो (0) 


</सह्‌ न+- इहौ न्‍न सहिही 2.5.2 

<चुलू +प्रा+ इहो ल्‍ बुलहौ .8.3 

चल +- इहौ + चनिहौ .9., 2.5.2 
*/खेैलू. + इहो + खेलिहो .8.3 

पा न इहौ रः पहो 2.67.4 

शा ने इहौ > ऐहौी 2.76.4 

धातु + इबो (2) 

शदेखू .. + इवबो ८ देखिवो 5-4.3,5.5:2 


पद विचार 


अलह्‌ +- इबौ + लहिबो 
धातु +अहु -गे (4) 
(/पा+ब+-अहु - गे # पावहुगे 
धातु+और-गी (2) (ली०) 
/कह+ भौ-गी + कहोंगी 
/रहू+ भौ - गी न रहोगी 
2.4.4.2.3.3-प्रन्य पुरण- 
2.4.4.2.3.3.-एकवचन-धातु + इहि (3) 
/पड़2:पर + इहि पे परिहि 
मर + इहि सू मरिहि 
र्र रह + इहि घ्द रहिहि 
धातु + इहै (25) 
ञत्रा +इहहै रू ऐहै 
मानव +इहै + मानिहै 
कह, + रहे प्८ कहिंहै 
भा +इहै न भाइहै 
_/सुन्‌+आ+ इहै  सुनैहै 
आंधा. +इहै न्‍न घहै 
धातु +- इबो (१) 
गह, + इबो मै गहिवों 
घातु+ऐ-गौ”<श्रहि - गो (8) 
/करु+ऐ “गो ् करंगो 
'/कह +ऐ -गो 5 कहैगो 
/चल्‌+ऐ “गो रू चलेंगो 
पोव-+ प्रहि - गो # सोवहिगो 
(मिट्‌+ऐ - गो ऋ मिेगों 
घातु+ऐ-गी (खी०) ([) 
%/ पड़ “पर--ऐ - गी ष्ः्प्रंगी 
2.4.4.2.3 .3.2-बहुबचन (2) 
धातु+ भाहि”:भ्रहि 
५१/जीवू. + अभि » जीरवाहि 
»हर्‌ू. + अहि ८ हरहि 


धातु + इहँ (57) 
कर के इईहं कं 


करिहैं 


6] 


5,4.3 


6.4५3 


.72.3 
].72,3 


203.3 
2.33 
.58,2, ।,6,3 


5.50,, 5४834.2 
2,62,2 
]70054 
5,34$3 
5.508 
5.50528 


574.2 


2.60.3 
2.55.2 
24854.3 
684.45 

200॥%. 


52253 


2,87.2 
.6,3 


4.3.9;7.35.3, 2.58. 


762 गीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययत 


९/चलू. + इहूँ > चलिहैं .70.9, .58.2 
५ वर -+- ८ बकिहं .48-3 
'/बूट न द््हैं घ्ः बृदिहं 3.70-] 
१“बज्‌+पग्रा-न- इहूँ ऊ बर्जह 5.5].4 
९/सुनु+आन- इऑडें - सुनेहैं .80.7 
९/पछिता + इहेँ ज पहछितेहैं 5.5.2 
धातु + इबे () 

हक हे / इबे > जानिवे 2,75,2 
धातु +श्राह - गे (5) 

१/कह +श्रहि-गे 5 कहहिंगे .99.] 
६/चलू + भ्रहि -गे ८ चलहिगे .22.4 
3/मिल्‌ + भ्रहिं -गे ८ मिलहिंगे 5.6.4 
4/पा+व-+अहि - गे & पावहिगे 5.0.,5 
१/छो+व-+श्रहि - गे ७ छावहिंगे 5.0,2 


4१/देख +अर-+ आव +-भ्राहि - गे>दिखरावहिये 5.0. 
%/समुझ + आव +- रह > गे - समभार्वाहगे 5.0.3 
धातु + ऐँ - गे (2) 
१/कर +ऐं-गे जू करेंगे 6..9 
५निवह+ऐएँ-गे . ८5 चिवहैँगे 2.34.3 
दो स्थानों पर अन्य पुरुष वहुब॒चन में भविष्यत्‌ काल के रूप इस प्रकार से 
मिले हैं । 
स्वैहं 6.7.3, 6.8.2 
वह 5.]8.3 
2.4.4.3-संपुक्त काल- | , 
संयुक्त काल की रचना मुख्य क्रिया और सहायक क्रिया के योग से होती है ! 
भुख्य क्रिया कृदल्त या अन्य रूप में रहती है और सहायक क्रिया द्वारा विभिन्न कालों 
का द्योतन होता है गीताबली में प्रयुक्त संयुक्त काल को इस प्रकार वर्गीकृत कर 
सकते है । 
2-4-4.3.]-क्ृदनन्‍्त रूप +- सहायक क्विया- 
कृदन्तो के श्राधार इसके निम्न भेद किये जा सक्तते हैं । 
2 4.4.3.,]-वर्तेमान का, लि कूदन्त + सहायक क्रिया- 
सहायक किया के प्राधघार पर इसके दो वर्ग हैं । 
2.4,4.१3.].]. |-वर्तमान (35) 
इसमें वतेमानकालिक झद॒न्त के साथ क्रिया भी वर्तमान काल की मिलती है। 


पद विचार 63 


सुनति हों. 2.4.3 (उत्तम पुरुष ) 
जानत हों 6,6.,3 (उत्तम पुरुष) 
जानत हो 6,.4,2, 2.7.], 2.8.! (मध्यम पुरुष) 
मानत हो 2.75. * (मध्यम पुरुष ) 
चमकंत है .95. * (अन्य पुरुष) 
चढह्त॑ है 4,2.4 * (अन्य पुरुष 
करती हैं 7.3.9 (अन्य पुरुष) 


2.4.4.3.].4.2-भूत- (2) * 
इसके प्रयोग अत्यल्प हैं इसमें क्रिया भूत्क्ाल में रहती है- 
खात हुतो 5.40.4 
हुते जात बहे री 5.49.4 
2.4,4.3..2-भूतकालिक कृदस्त + सहायक क्वियां - 
सहायक क्रिया के आधार पर इसके दो वर्ग हैं- 
2.4.4 3.].2.[-वर्तमाव (45) 
गीतावली में इसके प्रयोग अधिक हैं इसमें क्रिया वर्तमान काल में रहती हैं- 
उत्तम पुरुष और मध्यम पुरुष के प्रयोग कम हैं परन्तु अन्य पुरुष के प्रयोग अत्य- 
घिक हैं- 


परी हों 3.7.3 (उत्तम पुरुष ) 
हरी हों 3.7.3 हा 

दिये हा. 2.75. (मध्पप्त पुएष ) 
जये हैं 6.5.3 के 
उठयो है. 2-50.4 (अन्य पुरुष ) 
किये है .74.2 तक 

दो स्थानों पर है! सकर्मक क्रिया इस प्रकार संयुक्त है- 
वनेहै 6,7.2 

स्वहै 6.7.2 


2.4-4.3.] .2.2 -भूत () 
इसमें क्रिया भूत काल में रहती है इसका केवल एक प्रयोग मिला है- 
हुतो पुरारि पढ़ायो ].93.2 
2.4-4.3 .2-अन्य रूप + सहायक क्रिया- (!) 
हर है .40.! 
2.4 .4.4-संयुक्त क्निया+ सहायक्ष क्रिया: 
आलोच्य ग्रन्य में संयुक्त क्रिया के संयोग से मी संयुक्त काल की रचना हुई 
है-इसमें संयुक्त क्रिया कई प्रकार की हो सकती है यथा-पुर्वेकालिक रूप + भूतकालिक 


64 


गीतावली का भाषा शास्त्रीय अर्ध्यये् 


भूतकालिक +- भूतकालिक, नामिक + किया ब्रादि-आदि-कुल प्रयोग निम्नलिखित 


हः5 
छीनिलई है 
जात हरे है 
नापे जोखे है 
परि गई. है 
बिगरि गई है 
भई है प्रगट 
लखि परे है 
लाय लयो है 
लिए है चोराई 
सुखाइ गए हैं 


585.] 
2.25,3 


.95.2 
.86. 
2,78.3 
]:5$. 
2.25.3 
6.].2 
2.40.3 
6,5,5 


2,4,5-संयुकक्‍्त किया - 

एकाधिक क्रियाप्रों के योग से निर्मित क्रिग्रा जो एक ही अर्थ का दृधोतन 
कराती हो, संयुक्त क्रिया कहलाती है। संयुक्त क्रियाग्रों का प्रयोग आलोच्य ग्रस्थ में 
बहुत है। समस्त संयुक्त क्रियाओं को दी वर्गों में रखा जा सकता है । 


(।) शब्द दवेत द्वारा 


जात सियो है... 0-0.4 

जाति गही है .87.2 

प्रमट कियी है 2.6.4 

बनि गर्ई है .96.4, 2.34 4 
बाँधी रही है .87.4 

माति लई है .85.4 

लाय लए हैं 6.5. 

लियो है पोही 2.20.4 


सुनि गई है .85.2 


(2) भिन्न क्रियाओं के सयोग से- , 
2.4,5 [-शब्द द्वैत द्वारा-इसकै दो वर्ग किए जा सकते हैं- 
(]) दो क्रियाओं का संयुक्त रूप में प्रयोग 
(2) एक क्रिपा का द्विवहक्‍त प्रयोग या पुनरावृत्ति 
2.4.5..-दो क्रियाओं का संयुक्त रूप में प्रयोग- 


कहत सुनत 
गावत ताचत - 
छिरक्त फिरत 


जोहि जानि जपि जोरिक 


देखि सुनि 
देत लेत 


फुलत फलत 


फूलि फरिगे 
व्याहि वजाइक 
मल्हाइ मल्हाई 


,67.4 
.4.8 

2.48.4 
.6.20 
.6.35 
.4.8, 

5.36.4 


4.33.2 


2.32.2 
.70.9 
.9,5 


भाइ सुनि .0.4 
घोरि घोरी 7 7-5 
जारि जीति 2-49.2 


तोषि पोषि .72.3 
देखे सुने - 4.87.2 
पहिरत पहिरावत *4«8 
फूले फले 3.0. 
5,4,3 
फंलि फूलि .72.3 
मिलि गाइह़ .8.3 


लखि सुति ],6,2 


धंदे विचार 65 


लंबी औलबाई 5.25.3 लेत फिरत .70.5 
सराहि सिहाहि .5.6 सहें समुझें 5.25.2 
(सहने समझने में) 
समुक्ति सुनि 7-37.3 सुनि समुक्ति 3.7.6 
4.].4 
समुक्ति सुधारि 7.29.] सुनि जानिके .5.4 
हिलिमिलि .6.3 


2.4.5.[ .2-पुनरावृत्ति- 
2.4 5..2- |-पुर्वेका लिक रूप की पुनरावृत्ति- 


अकनि श्रकनि 6.20.3 उतरि उतरि .46.] 
उड़ि उड़ि 5.2.2 उमगि उमगि:: .2.25, 
5.5.3 उमंगि उ्मगि .09.5, 
,.22.0 
करि करि ].9 2 कसि कसि .45.2 
कहि कहि 2.72.] 
किल कि किलकि .33.4 गति गति [.45.[ 
.3.2,5 
गरि गरि 5.39.5 गाइ गाइ .9.4 
चढ़ि चढ़ि ].45,2 जाइ जाइके .84. 
जोहारि जोहारि 2.47.29. भरि भरि 2.50.6 
तकि तकि 5.9,7 तजि तजि 5,20.3 
7.4.2 
दें दे .42.3 (5 बार) 
घरि घरि 5.2,4 धाइ घाइके .84.2 
निरखि निरखि 5.38,2 (4 बार) 
ठुमकु ठुमकु .30.3 ठोकि ठोकि .30.3 
परि परि - 4.34. पसारि पसारि 7.8.4 
पूजि पूजि .84.8 पेखि पेखि .0.2 
पैरि पैरि १.64.3 बदि बदि 4.2.4 
विगरि विगरि 2.44,2 भरि भरि १.6.7 
(8 बार) 
माँगि भांगि 3.7.6 लैलै .2.[ 
(6 बार) 


संजि सब्ि .3.2 


66 गीतावली का भाष शास्त्रीय -अध्ययने 


संवार सवारी... 7:8.4 *सुनि सुनि .22.]5 (4बार) 
हरवि हरषि. 2:82.3(3बार) हँस हँसि 7.9.4 


हुलसि हुलसि. --74.4 हेरि हेरि .6.23 
2.4.5..2.2 - श्राज्ञार्थक पुनरावृत्ति- 

देखि देखि 2.46.8, .83. 

घरु घर: 5.22.5 .हेरि हेरि हेरि 2'26-3 


2.4-5.2 - भिन्‍न क्वियाशओ्रों के संयोग से प्राप्त रूप -- 
2.4.5 2.] - दो क्वियाओ्रों के संयोग से प्राप्त क्रिया रूप- 

आलोच्य ग्रन्थ में दो क्रियाओं-के संयोग . से संयुक्त क्रियाओं की रचना हुई 
हैं। जिनमें पू्व॑ंकालिक क्रिया, कृदन्तीरप और. क्रियार्थक संज्ञा के साथ श्रन्य 
क्रिया का संयोग हुआ है । 

संयुक्त क्रिया के इन्त रुपों में अन्य, क्रिया के रुप में आना, उठना, करना, 
चलता, देना श्रादि क्रियाएं विभिन्‍त र॑ुपों में संयुक्त हुई हैं।कुल' प्रयोग इस 


प्रकार हैं- 
पूर्वंकालिक क्रियारुप न श्रन्य क्रिया 
कृदन्तीय रुप न॑ अन्य क्रिया 


क्रियार्थक संज्ञा रप + अश्रन्य क्रिया 
अन्य क्रिया के रुप में निम्न क्रियाए' हैं जो श्र ग्ग-प्रलग अ्र्थों का द्‌योतन 
कराती हैं सभी रूप झ्रावृत्ति सहित इस प्रकार दिए गए हैं । 


आ्राना (24) है ४ 
भूतकालिक रुप (प्राइ>:आइ, जाएं, आयो व9 ) 
कृदन्तीय रुप (आ्रावति 2 ) 
आशज्ार्थक रुप (आाइयहु । ) 
भविष्य कालिक रुप (आइहौं, श्रावोंगी 2 ) 


पुवेकालिक क्रियाहप न आवति,आाइहौं , आ्राइयहु, आइ+/आ्राई, आए, श्रायो 
श्रावोंगी (6) * 


कहि आवति नहिं 2.84.]- (कही नहीं जाती) 
ले आ्राइहीं ] 48.3. (ले आऊं गा) 
प्राइयहु पहु चाइ 7.27-4 (पहुंचा प्राझ्नो ) 

, करिर आई 7.3.9. . (कर आई है) 
वनि आई ।.52:2 (वन आई है) 
पूरि आए _2.3.3 (भर आए) 
करि आए 2.73.2 (कर आए हैं) 


गह॒वरि झायो 5.]5.] (मर श्राया) 


पृद विचार * * 67 


है भःबोगी 2 6.] (हो झ्राऊ गी) 
कृदन्तीयहूप + झाए () 

सुधारि आए 2.78 3 [सुधारते आए है) 
क्रिया संज्ञाहप |, आए, आयी (7) 

पेखन आए . , -. ].68.4 (देखने आए हैं) 

ग्राए लेन .35.2 (लेने के लिए भ्राए हैं) 

डाटन आयो 6-3] (डाटने भाया है) 
उठता. (5) 


भूतकालिकहप (उठी: उठीं, उठे 4) 
वर्तमाव कालिक रूप ( उठ । ) 
पुर्देकालिकझूप --. उठी <2उठीं, उठे, उठे (5) 


रोइडठी, _ .- 2.53.4 (रो उठी) 

उठी गाइ 7.34,] (गाने लगी) 

सोइ उठी 3.7. (पोकर उठी 

अंचइ उठे 3.7.7 (आरचमन करके उठे) 

उठे गायइकी .70.2 (ग।ने लगते है) 
करना (65) 


भूत्तकालिक रूप (कियो, कीन्‍्हों 2 ) 
वर्तमानकानिक रूप [ करत ) 
पर्वेकालिक रूप (करि, के 62) 

पुंकालिकरूप +- करि, कै, कियो, कीन्हों, करत (55) 


हँसि करि 5.44,4 (हिंस कर) 
पहिचानि करि 7.5.5 (पहचान कर) 
अन्हृवाइ के .22.2 स्नान कराके) 

. डरि के 72.4 (डरकर ) 
धरिक. .72.3 (रखकर ) 
कियो जाई 7.3.4 (जाकर किया) 
जिचारि कीहीं. ... 2.57.] (विचार किया) 
धरह'र करत 7.5.3 (समभते हों ) 

चलना (25 ) . 
भुतकालिक रुप " (चलो “: चल्तीं, चले, चल्यो, चलिए 2) ) 
भूत संगाववार्थ, ,  (चलतो !) 
आज्ञार्थ हु ई (चलिए )) 


क्रिपार्थक संज्ू ,;. (चलनि [). 
है शल डह ह ६ 


68 


गौतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 


पूर्वक्ालिक क्रिया कप + चनीः£ चलीं, चले, चलयौ, चलेड, , चलतो, घलिए, 


भविष्यत कालिक (चलैंगो ) 
ले चली .6,2 
उमग चली 3.2.4 
कहि चले 2.65.3 
उमगि चल्‍्पो ,90.9 
चलेउ बजाद 2.47.8 
ले चलतो 5.3.] 
रहि चलिए 2.3.. 
उठि चलति .28.2 
रझठि चलैंगो 2,54.3 
क्ृदन्‍्तीय रूप + चल्यौ () 
गरजत चल्यौ €,4.5 
क्रियार्थक संज्ञा |- चली, चलीं, चले (5) 
चाहन चली 3.7 
भूलन चल्लीं 7.9.4 
देखन चले 2.25,4 
चले लेन 5.35.] 
जाना (70 + 8) 578 . 
वर्तेमानकालिक रुप 
ग्राज्ञाथंक उप 
भूतकालिक रुप 


भविष्य कालिक रुप 


चलैगो, चलनि (79) 
(लें चली) 
(उमड़कर चली) 
(कहकर चले) 

(उमड़ चला) 
(बजाकर चला ) 
(ले चलता) 

(रह जाइये) 

(उठकर चलना) 
(रुठकर चलेगा) 


(गरजता हुञ्ना चला) 


(देखने चली) 
(भूलने चली) 
(देखने के लिए चले) 
लिने चले) 


(जाई, जाई, जात, जाता, जाति 36) 


(जाउ, जाउ” 2 ) 


(गई, गई, गए, गयी 28) 


(जहें जंए 4) 


पुवंकालिक रूप + जाई, जाई, जात, जाति, जाउ, जाठउ, जैहँ गई, गई, गए, 


जा न वबरनि 
कही जाई 

(न) जाति गहि 
(न) जाति कहि 
वह्दि जाउ 

ले जैहें 

गई लाज साजि 
गईं प्रोति लजाइ 


2.47.6 
.55.] 
2.62.3 
"40.35 
5.45.4 
35-50.3 
7.22.8 
7.30.2 


गयो (60) 
(वर्रान नहीं हो सकता) 
(कही जाती है) 
(पकड़ी नहीं जाती) 
(कहा नहीं जाता है) 
(वह जाये) 
(ले जायेंगे) 
(लाज भ'ग गई है) 
(लजा गई) 


पद विचार 69 


सूखि गए .67.2 (सूख गए) 

तरि ग्यो 5.42.3 (पार हो गया) 
कृदन्तीय रूप +- जात (4) 

करत जात .47.4 (करते हुए जाते हैं) 

चले जात 2.47.3 (चले जाते हैं) 

चितए नह जात .68.] (देखे नहीं जाते हैं) 
क्षियार्थक संज्ञारप .+- जाई, जात, जाता, जैए (6) 

कह यो न जाइ 7.30.] (कह नहीं जाता) 

जात बह यो 2584,] (हा जाता था) 

भूलन जैए' 7.8.] (फूलने जायेंगे) 


इसके अतिरिक्त 8 स्थानों पर संयुक्त क्रिया के रुप इस प्रकार के 
भिले हैं - द 
(यह गे - गए का रुप है) 


करिगे 2.32.2 (कर गए) 

छरिगे 2.32.] (छर गए) 

भरिगे 2.32.[ (भर गए) 

तरिये 2.32.4 (पर कर गए) 

तिसरिगे 2.32.3 (निकल गए ) 

परिगे 2.32.4 (पड़ गए) 

बिसरिये 2.32.3 (भूल गए ) . 

चढ़िगो 5.48,2 (चढ़ गया) 

(यह गया का रूप हैं ) 

डालना (3) 

वर्तमानकालिक रूप (डारों !) 

भमूतकालिक रूप (डारयो ) 

आ्राज्ञार्थक रूप (डारिबी ) 
पूर्वक लिक रूप--डारोौं, डा्यो, डारिबी (3) 

करि डार॒यो 3.8.] (कर डाला) 

डारों बारि 2.29.2 (न्यौछावर करती हूँ) 

डारिबी न विसारि. 7-29.3 (भूल मत जाता) 
देवा (5) 

भूतकालिके रूप (दई, दिये, दियो 3) 


संभावनार्थंक रूप (देतो, दिये 2) 


]70 गीतावली का भाषा शास्त्रीय श्रध्ययन 


पूर्वकालिक क्विया रूप-+ दई, दिये, दियो, देतो (5) 


दई मु दरी डारि 5.2.4 (मुद्विका डाल दी) 

पठइ दिये 7.20.3 (भेज दिये हों) 

ले दिये 3.7.5 (लेकर दिये) 

दियो रोइ 5.5.] (रो दिये) 

देतो पै देखाइ ],85,2 * (दिखा देता) 
परना (पड़ना) (4) 

वतंमान कालिक रूप (परत, परे ) 

भूतकालिक रूप (परि, परी 2) 

भविष्यत कालिक रूप (परिहदै ) 
पूर्वेकालिक क्लिया रूप -- परत, परे, परि, परी, परिहै () 

वूभि परत 5,33.] (जान पड़ता है) 

लखि परे 2.20.2 (दिखाई पड़ता है) 

परि पहिचानि 6.9.4 (पहचान पड़ी) 

अन्मि परी 2,53.3 (उलभन पड़ी है) 

घायी परिहै 6.2.4 (दौड़कर गिरेगा) 
क्रियार्थ संज्ञा+ परत (3) 

परत कहयो 2.84.3 (कहा जा सकता है) 

कह यो न परत .77.2 (कहा नहीं जाता) 
पाना (8) 

मूतकालिक रूप (पाए,पायो,पाई पारे 6) 

शविष्यत कालिक रूप (पहों, पाइहौं 2) 
पूर्वक्ालिक क्रिया + पाई पाइहौं (3) 

जानि मैं पाई ].9 4 (जान गई हूँ) 

विलोक हीं पइहोौ .48.] (देख पाऊं गा) 
झृदन्तीय रूप + पैहों, पारे (2) 

जीवत न पहौं 2.76.4 


(जीवित न पाशओ्रोगे 


चलत न पारे 22.5 (चल न सके) 


क्रियार्थक संझा + गए, पायो (3) 


(न) विलोकन पाए 2.35.] (देवने न पाई) 


(न) देखन पायो. 2.54.4 (न देख पाया ) 
रहना /रसना (43) 
भुत कालिक रूप 


त (रही, रहे, रह यो, राखी राखे, राख्यो 3 8) 
वर्तमान कालिक रूप (रहत, राखत 2 ) 


7] 


पेद विचार 
भविष्यकालिक रूप (रहिहि, रहौंगो 2) 
संभावनाकालिक रूप (रहिये ) 


पूर्व कालिक रूप -- रही, रहे, रह यो, राखी, राखे, राख्या, राखत, रहते, रहति, 
रहिहि, रहोंगो-(4) 


रही छाइ 7.6.5 (छा रहो) 
जगमगि रही 7.9.3 (जगमगा रही) 
रहे रोकि .40.6 (रोक रहे) 
रहयो पूरि 7.2,23 (भरा हुआ है) 
राखी आ्रानिक .5,4 (लाकर रखी) 
राखे गोइ 5.5.3 (छुपाकर रखे) 
जाति राख्यो 7.3.5 (जानकर रखा है) 
सिखाइ राखत .5.4 (सिखाकर रखते हैं) 
लगेइ रहत 2.53.2 (लगे ही रहते हैं) 
रहिहि छाई .6.3 (छाई रहेगी ) 
पाइ रहौंगी 2.77.] (पाकर रहूंगा) 
कृदस्तीय रूप +- रहिए रहति (2) 
देखत ही रहिए ].78.2 (देखते ही रहें) 
करति रहति 5.9.3 (करती रहती है) 
लगता (8) 


भृतकालिक रूप-लगे “० लागे, लगी 22 लागी, लग्यो (8) 
पू्वेलालिक क्विया रूप + लागे (]) 


ललकि लागे ].64.3 (ललक कर लग गये) 
क्रियार्थक संज्ञा झूप +- लगे >> लागे, लगी “० लागी, लग्यों (7) 

होन लगी .84.8 (होते लगी) 

लागी लेखन ].75.2 (खीचने लगी) 

लगे सजन 5.6.3 (सजने लगे) 

लागे चुवत 35.48.2 (चुने लगे) 

बूड़त लग्बो 3.24.2 (डूबने लगा) 

7.8.4 (असीसते लगी) 


ग्रतोसन लागी 


लेता (52) 
भूत कालिक रूप (लई, लए“:लिए, लियो, ल्यायो, लीनन्‍्हीं, लौन्हि 
लायो, लील्हों, लीनहें, आने 3) 
प्राज्ञा्थंक रूप (लोज, लोबी लेंउ, लेहु, श्रानों 40) 


चतंसान कालिक रूप. [लेत, लेहि ) 


(75 गौतावली का भाषा शास्त्रीय श्रेध्ययने 


पुर्वं कालिक क्रिया रूप +- लई, लए“: लिए, लियों, ल्यायो, लीन्हीं, लायो, लीस्हों, 
लीन्हें, लेंउ, लेहु, श्रानों, लीजे, लेत (45) 


माँगि लईं 5.38.2 (माँग ली) 
बाँदि लये .45.] (वांद लिए) 
वोलि लिये .5.2 (बुला लिए) 
माँगि लियो 7.38.] (माँग लिया) 
करि ल्यायों 6.3.2 - (कर लाया था) 
हर लीन्हीं 3.6.3 - (हर ली) 
हरि लायो 6.2.3 (हर लाया) 
(गोद) करि लीन्‍नहों 3.3.] (उठा लिया) 
भरि लीन्हे .02.6 (भर लिया) 
लेंउ उर लाई 2.54.3 (हृदय से लगाऊं) 
लेहु चढ़ाइ 7.27.4 (चढ़ा लो) 
ग्रानों धारि 6.8.3 (ले आऊं) 
मेंगि लीजे 3.]5.,2 (माँग लीजिए) 
हरि लेत 2.37.2 (हर लेते हैं) 
माँगि आने .68.2 (मांग लाया था) 
कृदन्तीय रूप +- लेंहि, लेत (4) 
चोरे लेंहि 3,2.3 (च्रुराए लेती हैं) 
छोरे लेत 3.2.3 (छीन लेता है) 
बोहें लेत 7.4.5 (ड्बोए लेता है) 
लेत चोराए .32.3 (चुराये लेता है) 
क्षियार्थक्न संज्ञा रूप +- लीन्हि, लीजे, लीवी (3) 
छीन लोन्हि 3.8.2 (छीन ली) 
छिनि लीजे 3.7.2 (छीन लीजिए) 
जानि लीवो .96.5 (जान लो) 
सकना (25) 
वर्तमान कालिक (सकत, सकति, सकौ, सके 6) 
भूत कालिक (सके, सकेउ, स्षकी, सकों, सक्‍यो 9) 
पुर्व॑कालिक क्रिया रूप -+- सकत,सकति, सके,सके, सकेउ, सकी, सकौं, सक्‍यो (25) 
ह॒वे न सकत 2.70.] (हो नहीं सकते) 


कहि न सकति 5,9.4 न्‍ (कह नहीं सकती) 


पेदे विचार 


लॉघि न सके 6,,6 
कहि सके .2.4 
सकी कहि हौंन 5.20.] 
देखि न सकेउ 2.5.3 
सहि न सकी 2.5.3 
सहि न सक्‍यो 3.]3.2 
सकक्‍यौ न प्रान पठाई 6.6.2 
घावताह (7) 
भूतकालिक 
भविष्य कालिक 
पुर्वकालिक क्विया रूप + घाए, धायो, धावौंगी 
उर5 धाए ज.02.] 
उठि घायो 2.56.] 
उठि घावौंगी 2.55.3 
क्रियायेक संज्ञा + घाए (।) 
देखन धाए 7.38.8, 6.23.] 
फिरना (4) 


भूत कालिक रूप 
वर्तमान, कालिक रूप 


पूर्वेकालिक क्लिया रूप--फिरे, फिरी 


पहुचाइ फिरे 2,66,5 

पहुंचाइ फिरी 2,84.3 
क्ृदन्ती रूप + फिरत (2) 

गुनत फिरत ].38.4 

खेलत फिरत 3.2.] 
भागना (4) 


भूत कालिक रूप (भगी, भागे, भाग्यो 4) 


पूर्व कालिक क्विया रूप + भगी, भागे, भाग्यो (4) 


भर्भारे भगी 2,57.3 
भगमरि भागे 5.6.6 
निकसि भागे 2.65.3 
ले भाग्यो 2.2.3 
बनता (6) 
भूतकालिक रूप 


(लांघ न सके) 
(कह सकता है) 
(कह नहीं सकता) 
(देख नहीं सकता) 
(सह न सकी) 
(सह न सका) 
(प्राण न भेज सका) 


. (घाए, घायो 6) 


(धा्वोंगी ) 
(5) 

(उठ कर दौड़े) 
(उठकर दौड़ा) 
(उठकर दौड़ूगी) 


(देखने के लिए दौड़े) 


(फिरे, फ्री 2) 
(फिरत 2) 


(पहु'चा कर लौटे) 
(पहुंचा कर लौट झाई) 


(गुनते फिरते हैं) 
(खेलते फिरते हैं) 


(घबरा कर भगी) 


' (मड़भड़ा कर भाग गए) 
-(निकल कर भागे) 


(लेकर भाग गया) + > 


(बनाए, बनाई 2) 


। । ह् न कि अर के हि ५, 
74 गीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 


वर्ततानकालिक रूप (बने, बानति 3) 
भविष्यक्रालिक रूप (वर्नेहों !) 
पूर्वेकालिक क्विया रूप -+- बनाए, बनाई, वनहों (3) 
विरचि बनाए .23.2 (रचकर बनाए हैं) 
विरची बनाई 7.].3 (रचकर बनाई) 
विरचि वर्नहों .8.2 (रचकर बनाऊ गी) 
क्ियार्थक संज्ञा रूप +- वर्ने (2) 
बने न बरने 5.22.9 (वर्णात नहीं बनता) 
फिरिवो न बने. 2.73.3 (लौटना न बने) 
क्ृदन्तीय रूप+- वानति () 
कहत न बानति 7,7.] (कहते नहीं वनती) 
कहना (7) 
भूतकालिक रूप (कहयो, कही 2) 
बतंमान कालिक रूप (कहूँ, कद्टों, कहत्ति, कहत 0) 
भविष्य कालिक रूप *  (कहिहेँ, कहैगो, कहौंगो 4) 
पूर्वकालिक रूप (कहि १) 
पूर्व कालिक क्लिया रूप + कही, कहें, कहौं, कहति, कहिहै, कहत, कहैगो, कहौंगो([4) 
भूलि कही 7.37. (मूलकर कही) 
कहेँ किमि गाइ. 7.33.5 (गाकर कैसे कह सकता है) 
कहीं वरनि .27.] (वर्णोत करके कहता हू) 
कह॒ति हेसि 3.3.2 (हँस कर कहती हैं) 
आइ कहिहै 7.29 .2 (श्राकर कहेगा) 
पुलके कहत 2-45.5 (पुलकित होकर कहते है) 
बाइ कहैगो 2.55.2 (आकर कहेगा) 
चंपरि कहींगो 2«77« (वढकर कहूंगा) 
क्रियार्थक संज्ञा रूप+- कहि, कहिह, कह्मो (3) 
देनकहि 2.59.2 (देने के लिए कहकर ) 
फिरन कहिहै 2570.2 (लौटने के लिए कहेंगे) 
कहयो जान 2.59.2 (जाने के लिए कहा) 
चाहना (5) 
भूत कालिक रूप (चह यो ) 


बतंमान कालिक रूप (चहत>< चाहत, चहे, चाही, 4) 


पद विचार 


]7$ 


क्रियायक संज्ञा +- चह यो, चहत “2 चाहत, चहे. चाहों, चहे (5) 


चहत जीत्त्यो 5.23,] 

चाहत कवि दन .35. 

कहत चहयो.. 5.5.2 

चलनु चहे 5.49.3 

कही चाहौं ,72,2 

कहयौ चहे 6,.]],4 
सुतना (3) 


भूत कालिक हप 
भविष्य कालिक रुप 


(जीतना चाहते हैं) 
(कवि देना चाहता है) 
(कहना चाहा) 
(चलना चाहते हैं) 
(कहना चाहती हूं) 
(कहना चाहते है) 


(सुनायो, चुनाए 2) 
(सुनहैं ।) 


रवें कालिक रूप + सुतायो, सुनाए, सुबह (3) 


कहि न सुनायो 5.44,3 
कहि सुनाए .69.3 
आनि सुनहैं 5.50.] 


(कहकर नहीं सुनाया) 
(कह कर सुनाए) 
(प्राकर सुनायेगी) 


ईन सबके अतिरिक्त 33 संयुक्त क्रियाएँ (पुर्वंकालिक क्रिया रूप+-प्रत्य 
भिन्न-भिन्न क्रिया रुप ) और मिली हैं। कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं। 


लिखि काह़ी 2.55.5 
ले बढ़त ].45.4 
भेंटयो उठाई. 5.6-]2 
करि गही 7.6.6 
बलकि लाले 3.9.3 
पठ5ए बोलि .68.6 
ले सौंपी 7.28. 
आतनि बसाई 2.46.7 


2,4.5.2.2 नामिक + क्किया 


(लिब्ि काढ़ी हो) 
(लेकर बढ़ते हैं) 
(उठाकर मेंठा) 
(करके पकड़ा है) 
(लाड़ से पाला था) 
चुला भेजा) 

लिकर सौंप दिया) 
(लाकर बसा दिया है) 


आलोच्य ग्रन्थ में नासिक के साथ क्रिया संयुक्त हुई है, ऐसे प्रयोगों की 
सेंज्या काफी है। कुल प्रयोग 200 से श्रधिक हैं। कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं। 


आश्या देंहु 2.7.3 
नेवते दिए .5.5 
तृप्ति लहे री 5.49.3 
पार चढ़ि पावत 7.7.6 
कियो सज्जन 7.2.24 
. सुधि करि 5.]2.4 


गेंस ले गही 7.37.2 
ट्हल क्षरें 4 73.2 
प्रमाव करि 2.3.3 
पाले परी 3 7.7 
रही न संभार 2.29 6 
हरष हिए 6,23,2 


76 गीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 


जरनि जाइ 2.6,2 दई हौक 6.9.9 
अ्रसीस दीन्दीं 5.5.3 उपजी प्रीति 2.63.3 
मीत कियो 5,.46.2 बिनती मानि 6.25.3 
दृष्टि परे री .76. सोच नप्ताए 6,22.2 
सुख दीज 3,5.] भोर भयी .36.[ 
लहिही सुख 2.60.3 पासे परिगे 2.32.4 
मरजाद मिठाई ]08.9  बिदया पढ़ाई .52.6 
सावन लाग 78 3 गारि देत 7,229 


2.4, 5.2.3 विशेषण + क्रिया 


गीतावली में विशेषण के साथ भी क्रिया संयुक्त है इस प्रकार के कुल प्रयोग 
55 हैं। कुछ उदद हरण निम्नलिखित हैं- | 


छीन भयो 5.8.2 थिर होहु .90.4 
परिपूरन किये .5.5 बलि जाउ' 2.3.2 
गए सूखि 622.7  सूने परे .94.2 
नीको लागत 2.50.] सांची कही .72.3 
लघु लागहि 2.47.5 मंगल गायो .93.3 
पुलक जनाई .].2 कुसल न देखो 39,4 
भए विकल .85.4. सफल लेखि 2.22.2 
दो क्रियाओं के साथ संयोग 
गिर गिर परनि 4.28.2 फैलि फूलि फरिके ,72.3 
फैलि फलि फलतो.. 5.3.3 वारि फेरि डारि 2-]7.] 
वारि फेरि डारी .09.! वारि फेरि डारे .68.0 


समुझभि सुनि राखी 7.37.3 सींचत देत निराइक॑ 5.28.6 
25 क्रिया विशेषण तथा अव्यय 
2.5.] - क्रियाविशेषण -- गोौतावली में प्रयुक्त क्रियाविशेषणों को दो प्रकार से 
वर्गीकृत किया जा सकता है --- (!) अर्थ के आधार पर, (2) संरचना के 
आ्राघार पर । ह॒ 
2.5..] - श्रर्थ के श्राधार पर - श्र्थ के आधार परे श्रयुक्त क्रिया विशेषण 
निम्नप्रका र के हैं- 
2.5...] - एक पद वाले क्रिया विशेषण - इनको कई वर्गों में विभक्त किया 
जा सकता है- 
2.5.... - काल वाचक क्रिपाविशेषण- 
झव . ' 2.67.4, 6,4,4, 5,3,2, (30 बार) 


पद विचार 


अर्वाह 
अजहु 
गज 
कब 
कबहु 
कबहि 
काल्हि/कालिही 
जब 
तब 
तुरत 
तुरतहि 
नित 
निरंतर 
प्रथम 
पहिलेही 
पुनि 
बहुरि 
बहुरो/बहुरौ 
फिरि 
पर्रो 
सद्य 
संपद्दि 
सदा 
सबारे 
पल 
प्‌ 
बासर 


॥77 


.62.3, 2.3.3 

5.39.6, (अजहु/अजहूँ) 6.., 2.59.4 
2.49.] (]0 बार) आजु 5.24.4 (34 बार) 
5.9.] 5.47 4, 2.55.], (9 बार) 
3.0.। (7 बार), (कबहू /कबह) 7.3 5, 5.9.] 
3.8.4, कबहुक 2.38.3 

2.65-] 7.32-] 

5.2.], 2.66.3, १.23.3 (4 आा0) 
.66.2 5.50.3, 6.4.3 (7] आा०9) 
.6.5, 6.8.2, 6.2.7, .57.] (4 झा०) 
7.27-4 

7.35.4, .45.6, 2.44.3, (23 श्रा०) 
5.2.3, 2.|.4, (2 आ०) 

7.38.2 

.80.2 

2.66.5, 4.50.2, 5.46.2 (7 आा०) 

2.38.3, 7.29.2, .6.24 (7 झा०) 

2.73.4, 5.50.5, 2.87.। (श्रा० 3) 
2.77.3, 4.2.4, 2.63.3 (अश्रा० 4) 

2.39.] 

7.5.4, 5.9.2, 5.42.4 (आ० 3) 
6.9.5 

2.78.3, 5.7.4, .6.2[ (श्रा० 9) 
(सवेरे होना चाहिए) 2.52.2 

7.26.] 

(पहले के अथे में) 5.27. 

7.35.4 


भोर/भोरहि|भोरही 7.2., 7.34.3, 7.27.3, .99.2, 6.9.9 


रैनि 


2.68.2 


निम्नलिखित कालवाचक क्रियाविशेषण दो वाक्यों अथवा वाकक्‍्याशों को 
जोड़ते हैं । कहीं-कहीं उत्तमें से एक क्रियाविशेषण लुप्त भी रहता है। नीचे कुछ 
उदाहरण दिए गए हैं तथा कोष्ठक में भ्रावृतियां दी गई हैं-- 


अजहु * ७०३ ४७४३४ ३०७० 


ज्ासो 2.2.2. 


(अ्रजहु' श्रवनि बिदरत “ “सो झवसर सुचि कीन्हें ) 


878 


गीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 


९०५ ०००००००- कृब "हनन लि 2.5$5.4 


(जनकसुता कब सासु कहें मोहि””''““राम लषन कहें मंया) 

तथा 5.0.4 
कब 3 लगते कब + 5. 0.5 
(राज विभीषन कब पावहिंगे” भेद बुद्धि कब विसरावरहिंगे) 
कब हु हट ल। ५ कबहु 2.52.3 
(कबहुँ कहति यों।। ०* कबहु समुक्ति बन गवन) 
कबहु “नल कबह्‌ .7;2 
(कवहु' पौढि पय पान कराबति कबहुँ राखति लाइहिये ) 
2११३ २००३ जबहि "हल । 2.0.] 
( जबहि रघुतति संग सीय चली” *“ अति अच्याउ अली ) 
खत ० 0 छन 3.]7.3 
(छत भवन छुन बाहर बिलोकति) 
जब जब... /एए०४ तब तब 2.354.] 
( जब जब भवन बिलोकति सूनो तब तब बिकल होति) 
जब... **/********* तबतें ].4. 
(मुनिवर जब जोए तबतें राम .... सुख सोए) 
जब... //* तब .90.] 
(जर्वाह सब नृपति निरास भए तब” रघुपति *”* गए) 
जबतें. ००४+ तबतें 7.33.] 
(जबतें जानकी रहो “"” तबतें'**** सकल मंगल दाइ) 

तथा 5.48.4, 2.46.], 2.4.], 2.40.. .0. 
( आ०-6) 

७००० ००० जौलौं ७००००००० 6 "9.2 
(आन्यो सदव सहित सोबत ही जौनौ पलक परै न ) 
जोलीं ........ तौलों 7.37. 
(कैंकेई जौलौ जियति रही ““ तौलों ** कही) 
तब, ८४६४-०३ अबहु 7.3] .3 
(हेतु हौ सिय हरन को तब अबहु' भयो सहाय) 
तब ५५७: जब .35.] 


(कमल सकुचत तब जब उपमा चाहत कवि दैन) 
2.77-3 ].26.6 


तबके ...,... ल्‍ तबके ,... अ्रवके १,95,4 


पंद विचार 79 
तबके देखेया ” तबके “ अबके “““”“ ) 
तबके ४०७० अजहु .9.6 
(तबके से अजहु देखिबे ) 
तबकी डे जन अबकी 5.8.[ 
(तबकी तुम्ही जानति अबकी हो ही कहुत्त 
तबको "४ *०* | अजहु .30.6 
अनुभवत तबको सो अजहँ_ अघाई) 
तबतें "४ जबतें .98.2 
(तबतें दित दिन उदय जनक को जबवतें जानकी जाई) 
तदवि कबहु कबहुक ऐसेहि अरत जब॒ " * तीके .2.2 
सो ७००५४ ०००० ०००००००० जा 5.50.] 
(सो दिन सोने को कब ऐहें जा दिन बंघ्यो सिंधु) 
सो ३३०३१०००७ ००००९०७०+ अजहु' ॥77 5 
(सुमिरि सो तुलसी प्रजहु हरप होत विसाल) 
2.5...[-2 - स्थानवाचक क्वियाविशेषण- ये दो प्रकार के हैं - 
2.5..]..2.] - स्थिति वाचक् 
अगमनो 5.5].5 
अनत 2.88.], 2.40.2, 7.2.5 (द्रा० 3) 
इहाँ 5.25.3 
उपर“: ऊपर .08.4, 3.4.2, 7..2 (झ्रा० 3) 
ऊचे 2.4.] 
अ्ग्ु 6.].9 
अगहु ड़ 2.69.3 
आगे 2.68.3, .84.3. 2.5.2, 2.-29.2, 
.26.5 (झ्रा०5) 
झोर (अंत तक) 6.6.7 
कह “2 कहां 2.68.4, ).62.4. 2.62., 5.28.8, 3.!3.4 
2.5.3 (झा० 6) 
कहे 2.84.3, 6..8, .89.7, 2 9.3, 2.24.2, !.05.2 
2.44.] (आरा० प्र ) 
कतहु 5.45.,2 
जहे जहाँ 2-46.9, 2.43.[, 2.47.2, 7.82.2, 2.2.] 


हँं/तहाँ 


7.9.] (आ० ०9) 
7.34.3, ,2.4. 5.20.3, 5.2.2. 6.7.2(झ्रा०5) 


80 


2.5.. 


गौतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 


तहई 5 27.2 

तल 7.]7.5. 7.]6.2 

दूरि 3.6., 3.7.), 2.3.] 

निकट 5.444., 6,20.3, 5.36.3, .26., 5,2.3, 2.069.2 
(आ० 6) 

नियरे .43.3 

पाछे 3222.7., 2:29. 

बाहर 2.23.] 

बाहिरो 6,8.2 

घिच 3.4.3, 2.]5.2, 7,.]2.2, 7.3.3 

भीतर .7.2 

ठौरही 6.97 

प्रथम (आगे) .49.] 

सनमुख 2 65-2 


सामुहे/सामुहँ. 2.70.], 2.73.2 

दो वाक्यों अथवा वाव्याशों को जोडने वाले स्थान व'चक क्रियाविशेषण- 
सी 33३४६ जहा 2.3.] 

( सो विषिन है धो केतिक दुर जहा गवत कियो ) 

जहेँ जहेँ "१०० तहँ तहेँ 3.].2 

(जहेँ जहें प्रभु विचरत तहँ तहेँ सुख ) 

जहँ जहेँ 3३8०३ ०००० तहँ 5, 

(थाहन जहेँ जहं तहेँ घई ) 

१३००७०००० जहा जहा #०० ०००७ 2,3 ट 
(लोचननि लाहु देत जहा जहा जैहैं ) 

तह «० ७००६ ०७०७ जहेँ 2.44.3 
(विराचत तहूँ परनस.ल निवसत जहेँ ) 


38 4 


.].2.2 दिशावाचक क्रियाविशेषण-- 
इत ] 78.3 
उते 286.2, 7.22.4 
ग्ति 6.8.] 
जित .78.2 
श्रोही 2.8.4 


रुख (ओर) .68.7 


पद विचार 8] 


दो चाक्यों या वाक्यांशों को जोड़ने वाले दिशावाचक क्रियाविशेषण- 


इतहि “. *उत 6.0.4 
(आयप्ु इतहि स्वामि संकट उत) 

इ्त ०००५ ०४०० ००५०७ उत्त 5 हि 3 6 हि / 
(भयो विदेह विभीषण इत, उत प्रमु अपनपों बिसारिके ) 
उत "० इतको 2.34.4 
(उत कीन्हों पीछि इतको सुडीठि भई है) 

(उतहि ऋ ३७७ नअं००% ४ ४६ इतहि 7.30.3 
(इतहि सीय संकट उतहि राम रजाइ ) 

इक और "०० ** इक ओर .45.] 


(राम लपत इंक ओर भरत रिपुवत्त लाल इक ओर भये) 
2.5....3 रीतिवाचक क्रियाविशेषण- 

इनके कई प्रकार हैं-- 
2.5....3.! समान्य रीतिवाचक- 


अछत 5:5:35 «० 5 .7:] 

अनायास 2.32,4, 2.34.4, 5.28,.5, .88.3, 
.9.5 (5 आ०) 

अवसि 2.77.],  4.80.6 

आछे 3.3.4... 4.74.] 

ऐसे (ऐसे हि ऐसे ही 5.8.2, 4.2.2, 5.39.6 

ऐसी .82.3 

उचित 2.83.3, 7.35.3 

किमि 2.7.3, 733.5 


क्यों (कंसे के अर्थ में) .09.3, 6.2.6. 2.72.], 2.60., 
2.62.2 (झ्रा० 25) 


कैसे /कैसेके .99.], 2.86.], 2,60., 2.72.2, 
6.]0.2 (प्रा० [4) 

चोखे .95.] 

ज्यों .00.4, .9.2, (आ० 29) 

जैसे 2.86., .64.4, 5.7.], .94.,2, 
6-]5.2 (6 बार) 

त्तेसिए 2.20.2 


तिरछौंहे .62.4 


82 गीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्यंयते 


तोतरि .32.6 
स्यारो /न्यारे 2.66.5, 2.67., .38-4, 4.39.] (आ० 4) 
निफन 2.32.2 
तीके .6.26,2.45.4,5.8.3,.3.3(झ्रा० 47) 
परसपर 2.42.3, 5.35.], .70.3, 4..4[झ्रा० 9 ) 
बरबस 3.]2,2, 5.2.2, 6.8.3,] -32.2 (प्रा० 4) 
बरिआई 3.6 -2 
वथा 2.74.,4 
बादि (व्यर्थ) 3.]2,] 
बिकल .87.4, .85.4, .92.3, 2.58.2(ञ्र।० 4) 
भाल 7.7.45 
भली | भलो | भलोई 3.6-3, .49.3,5.28.3, .79,,(प्रा० ]) 
भूरि 3,7-] 
भूलि 7.37.] 
भोरे (भूल से) 52.2 (भोरेह) 5.20.3 
मीठी 2.82. 
यों 6.45.] (आ० 4) 
सही 5.24.4,. .87.4 
संभ्रम 2,55.3 
साँचेहु /सांवहूँ/सांचेहु. 2.56.3, .0.3, 6.7.2 
हुठि 3.6.2, 7,3.3, .6.24, 6.4.3 (ञ्रा०) 
हरुए (धीरे) 3.6.] 

दो बाक्यों अथवा वाक्‍्यांशों को जोड़ने वाले रोतिवाचक क्रियाविशेषण- 
ऐसोइ “४ *४ जऊँसो 2.74.3 
(मेरो जीवन जानिय ऐप्तोइ जिये जैसो अहि) 
कैसे "वाह कैसे 2.26.| 
(कैसे पितु-मातु कैसे ते प्रिय परिजन है) 
जैसे धन ४ तैसे .42.] 


(जैसे राम ललित तैसे लेने लपन लाल) 
तथा .67.[ 
जैसे #०००००००००० त्तेसेई ]. 73.2 
(जैसे सुने तंसेई कुवर सिरमौर हैं) 
जैसे तंसिए हि है 


पद विचार ]83 


(जैसे ललित लषन लाल तैसिए ललित उरमिला) 


जैसे ४“ भाँत 2.38 3 

(जैंसे भावते है भाँति जाठि न कही) 

ज्यौं ४००७७+००७ ०» त्पौं ] 4.3 

(ज्यौंँ हुलास रनिवास नरे्साह त्यौ जन पद रजघानी) 

ज्यौ ज्यौं ** +- त्वौ त्यौ 2.79.4 

(तुनसी ज्यौं ज्यों घटत तेज तनु त्यौ त्याँ प्रीति श्रधिकाई) 
त्तथा 5.8.2 

तैसे *०+ >«००+५ «०००० जसे ].व4.2 

तैंसे फल पावत जैसे सुबीज बए है) 

तसेई "०५० तेसिए 3 5.3 

(तैंसेई स्त्रप सीकर“ तैसिए अकुटिन्ह की तवनि) 

तैसेई *+ ० * तसेई .42.] 

(तिसेई भरत: तेसेई सुभग संग सच्रुसाल) 

तैसो तैसो “““" जैसिए [.74.4 


तिसो तैसो मव भयो ज.की जैसिए सगाई है) 
2.5..,.3,2 नि्षेधवाचक- 


ज्‌नि 3.]6,], .22.]4, 2.29.5, 2.76., 
2.47.8 (9 आ ) 

जिनि 5,27.3 

न (263 आआा०) 2.5.3 नहिं (30 झ्रा०) 7.8.5 

नहि (2 बार) 7.26.3, नहीं (। बार) 6..8, ताद्दों 


(2 बर) .0.2, नाहिन (2 बार) 5.45.3 

दो वाक्‍्यों ग्रथव। वाकयांशों को जोड़ने वाले रूप- 

हक 2.22.2 

(हम सी भू+र भागिति नभ न छोनी ) 

तथा ).)., 5.5.3 

हल्टाना ना हि क्म्नननग्न 2.8 2502 

(राम प्रेम-पथ्व तें कवहु डोलति नह डगति) 

नणफइल्व 3,9.2 

(अलि न गुत्नत, कल कुर्ज न मराल) 

3.9.3, 3.0.), 3.)0.2 2.30.6, 2.79.4, ! 87.3, 

2.53.3, तथा .86.5 (0 बार) 

व पम्प न .92.5 

(लख्यो न चढ़ावत न तानत न तोरत हू) 


]84 


गीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 


तथा 2.32 .3, 2.2.! (3 बार) 


निम्न स्थानों पर “न श्रवश्य का श्र्थ दे रहा है- 


केहि केहि गति न दई ? ].59.2 

कहो क्‍यों न विभीषन की बने ? 5.40.] 

किए प्रेम कनौडे कै न ? 2.24.4 

को न परम पद पायो ? 5.44.5 

को न बस।इ उजारो ? 2.66.2 
विशिष्ट प्रयोग- 


“कानन कहां अर्वाह सुनु संदरि” (2.3.3) में “कहाँ अरवहि” नहीं के 


ग्र्थ में आया है- 


2.5.] 


2.5.. 


कहूँ ४ कहें 2.29.5 
(पुनि कहेँ घह शोभा कहें लोचन देह गेह संसार)- 
में 'कहँ दोनों स्थानों पर निषेध सूचक प्रयोग है । 


-.] .3.3-का रणव।च कू- 

कत ].8.], .79.2, 6.].8, 2.9.] (4 बार) 

क्‍यों 3.5.4, 5. 28.4, 2.39.4,5.6.2, (5 बार) 

5.40.] 

(क्यों नहीं) कित 2.74.],  .78.3 

.].3.4-परिमाणवाच +- 

अधिक 7,556 

इतनी 5.7.4 

इतनोइ .06.2 

कद्छु ].68.]2, 5.22 9, 7.]7.], .5.5, (5 शआ्रा०) 

कुछुक 7.25.] 

क्ू 2.64.3, 6.]0.4, 5.5.7, 2.4., 6.6.], 
2.40.] (6 बार) 

कितौ 2.35.,5 

थोरी ].04.2 

नेकु .77., 7.6., .28.], 5.26.3, .68.4, 
6.8.4 (6 बार) 

च्हुत 6.4.. 2.72.], 5.5.3 

निपट *.26.3, 7.22.8, 5.36.3, (7 बार) 

निपटहि 7.29.3 


न 


लघु .55.3, 2.26.2, 2.47. 5 


पद विचार 85 


2.5.].] .2-क्लियाविशेषण के समान प्रयुक्‍त संयुक्त रूप- 
गीतावली में प्रयुक्त दो पदों के मेल से बने क्रियाविशेषण निम्नलिखित हैं- 
2.5...2.]-क्ालवाचक- | 


अनुदित .4.]4 अवलगि 4.2,] 
अवलों 5.49.] अपनी अपनी बार7.]9.5 
अवधिलों 2.77.3 आजु को भोर 2.5. 
आजु कांलिहु परहु (.5.5 ग्रायुभरि ].84.3 
आगेकी 2.77.3 एक बार 2.87.] 
एकहि बार 2.73.2 ए दिन ए खब .75.2 
एक छन 5/57.2 कालिकी 5.2.4 
कबहुँ कबहुंक ]2.2 छव में .47.3, 5.23.2 
छित छिन .20.2, 6.]3.2 जनम जनम 6.23.5 
(छिनहि छिन) 6-3.2 जबतें ].78.4, 2.79.] 
जुग जुग॒ 5.37.5 .22.2] 
तबतें .6,26 तेहि दिसा 7.34.,3 
तेहि समय 6,3.5 तेहि अवसर 7.2.25 
दिन दिन प्रति 2.54.] दित अरु रैव 5.9.2 
दिन राति 2.83.3 दिन दिन .98.2, 2.46.] 
दींद वेरिया .20.] 7.32.4, 7.23.] 
फल में 5.2.3, 622,4 पल आधघ में 5.4.2 
बार कोटि $5.38.3 बडीवार 2.52.3 (बहुत देर) 
बार वार ([7 आ०) पुनि पृत्ति (0 आ०) 2.74.4, 
.38.], ].,92,4, 2.74,[, ].52.5, 6.9.8, 4.23.4 
5.]6.8 फिरि फिरि (4आ०) 7.9.5, 
बारहि वार (8 आ्रा०) 5.22.8, 3.3.3, 2.4.], 2.4.5 
7.34.], 2.79.3, .98.3 वारक वहुरि (एक बार फिर) 
बसर निश्चिि 5.49.] 2.36.. 
विदूयमात बने. 5..3 भरि जनम, 3.5.6, .4.5 
रद दिन 5.0,5 सदा सो 5,7.4 
सब दिन 7,24.2, 5.29.4 
2.5.].].2 .2-स्थान बाचक- 
ये दो प्रकार के हैं- 


2.5.,.2.2.]-स्थिति दाचक- | 
अंग अंग 7.4., ]..2,. झगेलीछे |. .74.] 


2.5. 


2.8. 


| 


.26.7, 5.0.2 
उपरा-उपरी 5.22.4, 
इक ठोरी .405.2, 
(एक ठौरी) .04.3 
घर घर 7.20.4 4.70.2, 
.6.4,  6.23.,2 
जह तहें ..6, .95.3, 
(]6 आ०) 2.70.3, 6.9.4, 
2.47.,[4 
जानु लगि 7.]7.7 
दूरितें 2.69,], 5.35.2 
पुर बाहर .70.2 
मनहि मन 5.28.] 
.2.2 .2-दिशावा चक- 
इत उत 6.4.6, 3.5.2 
चहुँ पास 7.5.6 
दुहुं श्रोर .84.4 
.2.3-रोतिवाचक- 
ये कई प्रकार के हैं-- 


गीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 


इहांते 5.26.3 

ओऔरोक हूं 6.]8.3 

कहते .65., 2.35.3, 
2.)9.4, 6.7., 
7.4.6,  .37.] 

घर घरतनि 7.27.] 

जहाँ तहा। 39.2, 2.4[.4, 

जहाँ जहाँ 3.5.4 


जहंलों /जहांलों .49., 5.24. 


दीप दीप के. 6.23.3 

नख सिख 2.26.2, 5.38.2 
मनमें 5.23.] 

सदन सदव .3.] 

चहुँ ओर 8.30.4, 5.22.9 


दाहिनो ओर तें 5.38.2 


2.5.].].2.3.]-सामान्य रोतिवाचक-- 


अति भांति 7.5.5 
इकटक/एकटक/ .78,, 2.42.3, 


इकटकतें 8.57.3 
और भांति .85.2, 2.9. 
कौन विधि 2.60.4 
चारिहु प्रकार 2.49,5 
जिय जिय. .64.4 


जेहि तेहि (जहाँ जहाँ) 2,68.4 


ब्सैं 


कुन कुक न] .33. 

के के 2.49.]; 2.35.], 
.73.3, .8!.]. 
2,22,2 3.4.| 


हु 


अनबन भांति 2.47.3 


एक भांवि. 3.69.2 

एक संग 2.46.9 

केहि भांति 7.25.3, 5.2.5, 

क्यों करि .08,0 

छेंगन मैंगन 3.30.] 

जेहि भाँति 2.77.3, 6.47.2, 

ज्यों त््यों 3.7.3 

ज्यौंही त्याँही 5.7.4 

तेहि विधि 6.2.6 

ठुंछुकु दुमुकु .33.], .30.3, 
.8.3 

प्रथम ज्यों 2.52,2 


पद विचार 87 


बहु भांति 7.9.4, 2.].3, बहु विधि 6.6.8, ..5, 


2.48.3 3.3.3 
विविध विधि 7.2.22 विविष मांति 7.2].24, 6.23.3 
भत्री भांति 5.5.5, 2.32.4, भली विधि 6.6.] 
.70.9, 2.80.],  मनसहु .8.] (मनसे ) 
5.36.2 2.32.3 
सनभुत .32.2 सब भांति 
यहि भांति .88., 5.50.4, 5.39.[ (सबहिं 
6.4.5 2.7.3 भांति) 
सब विधि 5.7.3, 4.6.27 सहस विधि 7.28.3 
सब प्रकार 5.46.4 सादर ,52.5, ,84.3 
सानंद ].84.3, 2.77.2 
2.5..].2.3 .2-कारणवाचक-- 
काहे को 2.75., 5,8., 2.63.] 
2.5...2.3-3-परिमाण वाचक- 
उहां लो 6.5.4 थोर थोर .73.9 
भरिपूरि 7.६8.6, 5.49.5 


2.5-]. 2-संरचना के आधार पर- 

संरचता के आधार पर क्रियाविशेषणों को दो वर्गों में रखा जा सकता है- 
(]) मूल, (2) संयुक्त । 
2.5..2 .]- मूल- 

इसमें वे क्रियाविज्लेषण आते हैं जो रचना की दृष्टि से केवल एक भाषिक 
इकाई हों-इसके पर्याप्त उदाहरण आलोच्य ग्रन्थ में है-यथा- 


आजु .].] तुरत 6.8.2 
नित .45.6 न्त 3.6.3 
वेगि ].6.]4 


2.5..2 .2- सेंयुक्त- 
इसमें वे क्रियाविशेषशण आते हैं जो एक से अ्रधिक भाषिक इकाइयों से बने 
हुँ-ये निम्न प्रकार के हैं- 
2.5..2 2.!-तासिकों पर आधारित-ये कई प्रकार के हैं- 
() चासिकत न शुत्य 
पल 7.26,7 (पल क्ृपाल॒हि जाहि) 
घासर 7,35.4 (जात बासर बीति) 


गीतावली का भापा शास्त्रीय अध्ययन 


]88 
भोर 7.2. (भोर जानकी जीवन जागे) 
रैनि 2.68-2 (बैठेहि रैनि विहानी) 
(2) चसामिक + परप्रत्यय, परसर्ग 
नेह बस .80.4 (भए विलोकि बिदेह नेह बस) 
बिधि वद्च 7.34.3 (सत्रुसूदन रहे विधि वस झराइ) 
अनलमहे 6.2.4 (.. राम प्रताप- प्रसलमहें हल पतंग परिहे) 
बितानतर .05.2 (ब्वाह्‌ समय सोहति वितानतर ...) 
जानु लगि 7.]7.7 (जानुलगि पहुचति) 
पल में 6.22.4 (....दुख पल में विसराए) 
कालिकी 5.2.4 (कालिकी वात वालिकी सुधि करि .. ) 
आरायुभरि ..3 (जानियत आयु भरि येई निरमए है) 
अवधिलौ 2.77.3 »«भ्रवधिलौं वचन पालि निबहागो) 
(3) प्र॒त्यय + नासिक 
भरि जनम .5.6 
(4) नामिक + पूर्व प्रत्यय 
अनुदिन ].4,4 
सादर 2.6.2 ( - सादर पाद करावोगी) 
सवाथ .50.] (मुनि सनाथ सब कीजे ) 
साननन्‍द 2.77 2 (सुनि सानन्द सहोगो) 
(5) नामिक+ नासिक 
छिन छिन 2.7:2 (प्रभुषद कमल बिलोकिद्द छित छिन) 
जनम जनम 6.23.5 (जनम जनम जानकी नाथ के....गाए) 
जिय जिय .64.4 (जिय जिय जोरत सगाई....) 
दिन दिन 2.46.] (दिन दिन ग्रधिक अधिक अधिकाई) 
विसि वासर 5.2.3 (रठटति निसि वासर निरतर) 
प्रातकाल 7.2.] (प्रातकाल रघुवीर बदन छवि चित 
(तीन का संयोग) झाजु कालिहु परहु !.5.5 
2.5.4.2.2-2- सा्वनामिक अंगों के आधार पर रचित क्रिया विशेषण- 
य,श्र,इ व,उ जे क्‌ त्त 
(यह) (वह) (जो) (कोंन) (तिस) 
स्थान-ह्या 5.34.2  - . जहा 2.2.] कहां 3.3.4 तहाँ 5-2.2 
इहा 5.25.3  . -. जहेँ 2.46.9 कहाँ 2.68-4 तहाँँ 2.20-3 
द् क्र द् कहूँ 6..8 - 
काल-प्रव 6.4.4 _ -. जब -23.3 कब 5.9.] तब .66.2 


पद विचार 89 


रीति-ऐसे 5.8.2 - जैसे 2.86.] क्से 2.86.] तैसे .42.] 
यों 6-]5.] - ज्यों ].00.4 क्‍यों 6.2.6 त्थों .4.3 

दिशा-इत 4-78.3 उतत 7,22.4 जित 4.78.। कित 6.]8.]- 

परिमाण-इतनी 5.7.4- कितो 2.35 .4- 


2.5..2.2.3-विशेषण के आधार पर बने क्विया विशेषण- 
विशेषण+ ए, झ्रो 


आचछे 3.3.4 नीके .6.26 
पहले (ही) !.80.2 भझलो 5 28.3 
विशेषण + शून्य 

भलि 4.]7.5 (भाल' भलि अ्र।/जति) 
मीठी 2.82. (सुनत मीठी लागति) 
बिकल -85.4 (जनक भए विव ल) 
भूरि 3.7.] (विलपति भूरि बिसूरि) 
उचित. 7.35.3 (उचित अ्रचल प्रतीति) 
बहुत 2.42.2 (इन्हहि बहुत भ्रादरत) 
विशेषण + विशेषण 


छुगन मगन .30.] 
2.5..2,2.4-क्विया पर आधारित क्वियाविशेषण- 


गीतावलो में प्रयुक्त क्रिया पर आधारित क्रिप्रा विशेषण निम्न हैं- 
पूर्वकालिक कृदच्त- 


अधाइके ].70.] (लोग लूटिहै लोचन लाभ अधघाइक ) 
बिसूरि 3.7.] (विलपति भूरि बिसूरि) 
रिसाइक ].84.9 '. (भाषे मृदु परुष सुभायन रिसाइक) 
ललाइक 5.28.8 (मरतो कहां जाई .. लटि लालची ललाइक ) 
हरपिकी .6.23 (लगे देन हिय हरपिक) 
वर्तमान कालिक कृदच्त- 
गनत .68.6 (नृपहि गनत गए तारे) 
गावउ-ताचत .4.8 (गावतत-ताचत मो सन मावत) 
चढ़ावत ].92.5 (लड््यो न चढ़ावत न तानत न तोरत हू) 
भुतफा लिक कृदन्त- 
बैठी 6.9.] (बैठी समुन्त मनावति माता) 
बऊेहि 2.68.2 (वठेहि रंति विहानी) 


2.5.].2.2.5-क्वियाविशेषणों से रचित क्वियाविशेषण-- 
क्विया विशेष + निपात, परसर्ग, परप्रत्यय 
अजहेूँ 6-]-] श्रब लगि 4.2.] 


90 गीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययने 


अब लौ 5.49.] आगे की 2.77.3 
जबतें ].78.] 
द्विरूक्ति 
कबहुं कबहँ क 0.॥2-] ठुमुकु ठमुकु .33.] 
फिरि फिरि 7.9.5 बार बार .38.] 
क्रियाविशेषण +- क्रियाविशेषण --- 
आगे पाछे .74. इत उत 7.4.6 
जहँ तहेँ ..6 


5.].2,3-इपके अतिरिक्त क्रियाविशेषणों को संरचना के निम्न आधार भी हैं - 
(।) नामिक + विशेषण 5 क्रियाविशेषण 


पल ग्राध (में ) 5.4.2 बार कोटि 5.38.< (करोड़ों बार) 
(2) सर्वेनास +- सर्वेवाम -+- शासिक र क्रियाविशेषण 

ग्रपती अपनी बार 7.9.5 (प्रपने अपने ओसरों पर) 
(3) सर्वताम + नासिक ऊ क्रिवि० 

तेहि अब्रसर 7.2.25 तेहि समय 6-3.5 
(4) विशे0 + नासिक 5 क्रिवि0 

बड़ी बार 2.52.3 (बह तदेर) 

सब दित 7.24.] 
(5) समुच्चय बोधक + क्रिबि0 5 क्रिवि० 

ऑऔरो कहें 6.]8.3 
2.5.2 - अव्यध - 


2.5.2.] - सामान्य अ यय - 
2.5.2..[ - समुच्यप बोधक अव्यध -- 

समुच्यय बोधक ग्रव्यथ्र दो वाकयों, वाक्‍्यांशों श्रथवा शब्द समूहों को परस्पर 
जोड़ने का कार्य करते हैं। गीतावलो में प्रयुक्त समुच्यय बोधक अव्यय अर्थ की 
दृष्टि से सतोजक, जिभाजक, विरोधवाचक, परिमाणव।चक, उद्देश्यवा चबक, संकेत- 
वाचक झीर स्वहप वाचक है | नीचे सभो का उदाहरण सहित वर्णान है - 
2.5.2...] - संयोजक 


अछ (20 आ०) 7.2.2, .22 ]], 5.9.2, 6.6.3 
ञ्ौ (3 शग्रा०) 525.), .79.3, .88. 

कै >.2.2 (शोर के प्र्थ के) तपबल भुजवल की सनेहवल 
कहा. +८ कित .78.3 


(कुलिस कठोर कहां संकर धनु, मृदु मूरति किसोर कित ए री ) 
कह ........ कह 5.].2 


पद विचार 9] 


(कहे रघुपति सायक रवि, तम अनीक कहें जातुधानकी ) 
कहूँ ........ कहें 5..3 
(कह हम पसु साक्षाभृग चचल....कहें हरि सिव गज पूज्य .. ) 
2.5.2,.].2 विभाजक - 
कि 7.25.4 
किधों 2.23 3, 7.4.5, 6.7.), 2.70.2, 6.4.2, 7,0-, 
2 28.3, 2.53.]. .89,7, 2 30.2 (0 आ०) 
कंधों 3.]7 4, .95.2 
कै 6.8 2, 2.64.5, 5.28.6, 2.65.2, 3 74 (5 आ्रा०) 
नतु 5.].2 (नही तो) 
नतरू (नही तो) | 85 2, | 68 9, 5.23.3, (3 बार) 
नाहित (नही तो ) 6.2-4, 5 28.4 
दी वाक्‍्यों श्रथवा वाक्यांशों को जोड़ने वाले रूप - 


कि .....-- नतरू 2.57.4 

(कि श्लान सु दर-जिश्म।उ... दतरू मोको मरव झमिय विश्वाउ) 

किघो .... किधौ 2.24 3 

(किधो सिगार .-.मिलि चले.... अ्रद्भुत चयी किधो पठई है) .65 2 
किधी .. .... किधों ...... किधौ .65.3 

(छिधौ रवि .... किंधौ हरि ....किधो - ) 

कैदो ........ कंधों 6 ]. 

(कैधौ मोहि भ्रम केघौ काहू कपट ठयो हैं) तथा 24।.] 

के .... . कंयौ .... ... कैचो . . .... कंधों ]86.4 


(के है कोऊ कियो छुल, कंधों कुल को प्रभाव, कंधों लरिफई है ...केघौ- 
करतार इन्हही को निरमई है) 


कै,... ..... कैधौ 82 2 
(तनु घरे के अनंग नैतनि को फल कैधौ) 
के ७ ४: के .78.2 


(क ए सदा वसहु इन्ह नयनन्हि के ए नथन जाहु जित एरी) 
2.5.2...3 विरोधसुलूक - 


पै (पर के अथ्थे मे) .8.5, 2.4.2, 2.28 2, .85.2, 5,20.] 
ताएर 2.64-2 (तापर मौको प्रभु कर चाहत ) 

2-5.2..4 -परिमाणवाचक- 
ताते|वातें 26-] (ताते हो देत न दूषन तोही) तथा 2.74.4 


3.44.3. 7.3.35 


92 गीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 


ताहितें 2.9.3 (ताहितें बारहि बार कहति तोही) 
ताहीतें 5.]5.4 (तुलसी रसना रुखी, ताहीतें परत गायो) 
सो 3.7.2. (कहेक्ट्रु बचन रेख नांघी मै तात छमा सो कीज ) 


तथा 3.2.2, .2., 2.63.2 (8 बार) 
2.5,2.. ,5- उद्देश्य वाचक- 


जातें/जाते. 2.2 | (वारों सत्य वचन श्र्‌त सम्मत जाते 
हों विछुरत चरन तिहारे) 2.25.3, 6.2.4 
ज्यो 5.30.] (करिहौ सोइ, ज्यों साहिबहि सुहाउँगों ) 
2.5,2,., ],5-संकेत व।चक्त- 
तोः 20505 जौ .26.7 
(087: रघुनाथ रूप गुन तौ क्हौ जो विधि हो ह बनाए) 
जौ हक १०००००० तौं 2.6 5 


(जौ हठि नाथ रा|खहौं मो कह तौ सग प्रान पठावौंगी) 
तथा 2.9,2, 6.2,.], 2,6.3, 6 8,व, 5.3,], 2,59.3, 
2,73,3, 2.76,4, 2,74,3 


जोप ********ती 2.62. 

(जौ मातु मते मह द्वँहों तो जननी “ “') 

जद्यपि”' ४” * तड 5.9,3 

(जद्याप निश्चि वासर “5 ४ मिटति न ४४“तउ7 | ४८ ) 
जदयपि “““““तथावि 6,2.5 

(जद्यपि *“““कह यो तथापि न कछु "४४ ) 

जद्यपे "४ ० ** तदपि .6.2 

(जद्‌यपि वुधिवल 7“ तदयि लोक लोचन) तथा 2,2,4 
तो हा त्तौ 2.,54,4 

(जीवों तो विपति सहौँ *४*८ मरो तो मन पछितायो) तथा 2.3.4 
“7  जदपि: ४ :०* .80.5 

(प्रनगाप बढ़त कुवरन को जद॒पि संकोची बानि है) 

22 जद यपि ४४४ 6,3.3 


(रघुनदन बविनु वंधु कु्रबसर जद्य॒पि घजनु दुसरे हैं) 
तथा 2.65.2, 2.74,2 


“जु(+ 5 ] 58.2 

(जो चलिहै रघुनाथ पयदेहि सिल। न रहिहि अ्वदी ) 
तथा .50.], ],89,8, 2.3,], 2.86,2, 2.87.4 
००००००७ जौ ०००५ 5.6,3 


पद विचार 793 


(निदरि झरि रघुवीर वल ले जऊ जाँ हठि आज) 2.83.3, 2.72.2 


३०३७ “*जोप ७०७ ०००७ 2 हर 
(505०६ सरपुर समान मोको जो पै पिय परिहर॒यो राजु ) 
०००५ *"तदापि'"**** 22 हक || है १ 


(वदपि कृपालु करों विन॒ी ४४“) 
2,87,5, 5,49.3, 2 53.2 
ब्ब्न्कबननन- वो नमक ] हि | धर 9 
( “४ ““भंजों मृनाल ज्यों तौ प्रभु अनुग कहावों ) 
3.5.4, 2.].3, 6.8.3, 5.3.4, 2..3 
जूब ११३ 3०222 
(४० ““जूप राम रब रोपे) 
2.5.2..] .7-स्वरूप वाचक्ष- 
जो- 2.59.2 (राज दंन कहे दोलि नारि वस मैं जो 
कह यो बन जान) तथा 2.53.2, 6.4.4 
मनहु ०2 मनहु “० सनु ०: मनो “० मानों “८ मानहु 2 मानहेँ - 
( 29--55--6-+- 25-34 +-3-:- 6-- 9 ) # (747) 


भू सु दर करुनारस पूरन मनहुं जुगल जल जाए- .26.4 
रहे घेरे राजीव उभय मनो चंचरीक कछु हृदय डेराई- .08.8 
जिमि [:37 2 (तन द्ुति मोरचंद जिमि ऋलके) 
जचु- 7.5.2 जन रविसुता सारदा सुरसरि मिलि 
चली ललित त्रियेनी ) 
बरू- .29.4.. (हवे वरु विहंग दिलोकिय वालक ) 
5.9.4 (तुलतिदास यह त्रास जातसि जिय बहू 


दुख दुमह सह) 


2,5.2.] .2-विस्मय सूचक अच्यय- 
हा- 2.5 6.4 (हा रघुपति कहि पर्‌यो अवनि) 
5,20.2 (हा! घुनि खगी लाज गिजरी नहं) 
हहा- 2.64.3 (चित्रकूट चलिए सब मिलि वलि छमिए 
मोहि हहा है) 
हाय! हाथ! 2.39.4 ।हाथा हाथो राय बाम विधि भरमाए)- 
ठथा 2-28.5 


2.5.2.2-विस्मय सुचक्कत के समान पयोग- 
घ्हा- 2,6.3 (चौ तोरी करतूति मातु ! सुनि प्रीति 
प्रतीति कहा ही “ ४“) (झा० 7) 


]94 भगीतावली का भाषा थाक्वीय अध्ययन 


धच्य- 6.][.4 (घन्य भरत ! घन्य भरत 7 करत भयो) 
घिग- 2.56.3 (सांचेहु चुत वियोग सुनिठे कह घिय विधि 

: मोहि जिन्नायो ) 
जननी ! तू जननी ! 2.60.2 (जननी ! तू जनदो ! तो कहा कहाँ ४४४“) 
साधु, साधु .86.6 कहि' साधु, स घु' गाधिसुवन सराहे राउ) 


स्वीकार बोधक्त प्रयोग-मलेहि नाथ 7.27.5; 'मले तात' 5.25.4 
2.5.2-3-परसर्गो के रूप सें प्रयुक्त अव्यय पदावलो- 


भारि .5.6 (सरिजनस) 3.4.2, 5.6.9, .9.3, 
..3 (6 बार) 

लौं 2.59.3, 2.77.3, (2 बार) (अवधिलों) 

लगि 4-2.2, 4.2.), .]40.2, 7.!7.7 


2.5.2.4-पादपुरक्ष पदावलोी- 
घौं-इसका प्रयोग सर्वत्र संदेह की स्थिति में प्रश्न चा दक वादयों के साथ 


हुआ है-बथा- 
(कही सो विपिन है घों केतिक दूर) 2.3., 
(कंकयी करी धौं चतुराई कौन)-. 2.83.] (9 ब्या०) 


सही-(भुवन प्रभिराम वहुकाम सोभा सही) 7.6.] 
(तुलसो भरत समु के सुनि राखी राम-सनेह सही) 7.37.3 
2.5.2.5-पअ्रवधारस बोधक प्रयोग- 


हर 2-30.] (तापस हू वेष किये कोटि काम फीके हैं) 

हूं .6.23 (भरत लपन स्पुदवन हूं घरे नाम विचारो) 

ऊ .6].3. [विनय बड़,ई ऋषि राजऊ परसप्र “४“४) 

ही 7.3.] (सौते मौच हो बारहि वार परि परि पांय) 

हु 2.32.2 (मुनिहु सनोरय को अ्गम पलम्य लाभ) 

तो 2.83.2 (पुरुमसिन्ह के नयन नीर विनु कबहुं तो देखतिहींन) 
चौ 3.9.4 (समुक्ति सहमे सूठि, प्रिया तौ न आई उठि) 


| 
डॉ 


2.37.] (ओआली ! काहू तौ वूफ़ो न पथिक क्हाँवों सिघहं) 


33 वाक्य विचार 


-! ० 


आलोच्य पुस्तक में प्र.प्त वाक््यों को संरचना की दृष्टि से तीन भागों में 
विभाजित किया गया है । 

(!) वाक्य, (2) उपवाक्य, (3) वाक्यांश, 
3.].] वाक्य -+ किपी एक विचार या भाव (पर्थात्‌ अर्थ) को व्यक्त करने वाली 
भाषिक इकाई वाक्य हैं। 
3...] विश्लेज्य पुस्तक के वरक्ष्च- 


३ 5 ल्‍ 


पे नल सेरचता को ख्हझिति मे को न्‍त हेड दाद ले ले 
गीताउली में मेरचता की दष्टि से दो प्रकार के वाक्य मिले हैं.-- 


3.4..] 4 एक्र उपदाक्‍्यीय बाकप- एक उपवाक्यीय वाक्यों का विश्लेषरा उपवाक्य 
संरचना के साथ किया जाएगा। यहां केवन बहु-उपवाक्थीय वाक्‍्यों का ही विश्लेशरा 
किया जा रहा है । 


3 ..] 2 बहु उपवाक्यीय बक्ष्य- 





इस प्रकार के वाक्यों में एक से अधिक्र उपवाक्यीय वाक्य मिले है- 
गीतावली में प्राप्त बहु उपवाक्योय व।क्यों को सुविधा की दुष्टि से तीन वर्गों में रखा 
गया हैं- 

], दिव उपदाक््यीय वाक्य 

2. त्रि उपवाक्यीय वाक्य 

3, अधिक उपवानंरीय बावंब 
3.4..4.2.] दिव उपवाज्प्रीय बाक्‍य-- 

इस कोटि के उपवाक्थों में एक अनिवार्यतः प्रवात उपवाक्य द्वीता हैं जो 
वाक्य का आधार होता है। दूसरा उपवाक्य उसका समावाधिकरण अथवा आश्रित 
उपवाक्य होता हैं -- 
इनके मुख्यतया दो प्रकार हैं:- 


ना जिपडि: ना जापदाल्याई ० प बज, 
. संयुक्त दिव उपवाक्यीय वाक्य 


96 गीतावली का भपा शास्त्रीय अध्ययन 


3.,..2..] संयुक्त दिवउपवाक्यीय वाक्य- 

इस प्रकार के वाक्‍्यों मे ( एक तो प्रधान हं ता ही है ) दूसरा उपवावय 
प्रधान उपवाक्य का समानाधिकरणा होता है | गीतावली मे प्राप्त इन वाकक्‍यों से से 
बहुत कम उपवाक्यों मे सयोजक अरू, के, मनहूुं, जहे, तेसेई मिले हैं। अन्य उपवाबय 
ऐसे हैं जिनमे सयोजक के लिए कोई अन्य तत्व नहीं जुड़ा अथवा शुन्य संयोजक है । 
प्राप्त सभी प्रकार के वाक्णे की साख्या साथ ही दी गई है, तथा कुछ वाक्य उदाहरण 
स्वरुप दिए गए है - यया 


प्रधान उपवाक्य सयोजक्र प्रधावय उपवाकय सं० 450 
मोती जायो सीप में श्र प्रदिति जन्यो जग भावु .22.] 
के ए सदा वसहु इन नयनन्हि की ए नयन जाहु जिन एरी .78.22 
मैं देखी जब जाइ जानकी. मनहुँ.. विरह मूरति मन मारे 5.8.] 
तैसे कल भावत जैसे मुवीज बए हैं ..2 
जैसे सुने तंसेिई कुवर सिरमौर हैं ].73.2 
बोले राज देते को - रज'यसु मो कावन को 2.33.] 
तब की तुही जानति - प्रवको हो ही कहत 5.8.] 


3.| ].2 2 मिश्न द्व उपवाक्यीय वबप- 

इन उपवाकयों में एक तो प्रत्रात उपवाक्ध होता और दूसरा उपवादय प्रधान 
का आश्रित होता है, इन्हे मिश्र दिव उपवाक्यीय वाक्य कहा गय। है। ये मिश्र द्व 
उपवाक्यीय वाक्य तीन प्रकार के हैं- 

]. तामिक उपवाक्य युक्त 

2, विशेपर उपवाक्‍य युक्त 

3. क्रियाविश्येपण उपवाक्य युक्त 
3.4..].2,!.2.। नामिक उपवास्य युक्त सिश्व वाक्य- 

ऐसे वावय जिनमे एक प्रध।न उपवकक्‍्य हो भर दूसरा आश्रित उपवावय 
नामिक हो प्रस्तुत पुस्तक मे दो प्रकार के हैं- 


3.,.],2.].2.).! प्रधान उपव'क्‍्ध चामिक उपदावप्र संख्या 39 
प्रेम विवस मागत महेस सो देखत ही रहिए नित एरी .78.2 
सुस्त नींद कहूति आली आाइहो .24.4 
वन देवनि सिय कहन क़हृति यो छल करि मीच हरी हो 3,7.3 
कोठ समझाइ कहे किन सूर्पाह बड़े भाग आए इत एरी .78.3 

3..]..2.।.2.4.2 नामिक उपवाक्ष्य प्रधान उपवाक्‍्य संस्या 2 
कव ऐहीौ मेरे वाल कुसचल घर॒ कहहु कग फुरि बाता 6.]9.] 


निरखि मनोहरताई सुखणई  कहै एक एक सों .75.2 


वादप घिचार [97 


हैं कहा विभीपत की गति रही सोच भरि छात्ती 6.7.3 
इन्हहि बहुत आदरत महामुति समाचार मेरे नाह कहे री 2.42.2 
3....2..2.2 विशेषण उपवाक्‍्य युक्त मिश्र वाक्य- 
इन उपवाक्‍्यों में आश्रित उपवाक्य कोई विशेषण होता है। इनके दो 
प्रकार हैं - 


3..]..2..2.2.! प्रधात उपवाक्य विशेषण उपवाक्‍्य संल्या 25 
अपनों अ्रदिव देखिहों डरपत्त जेहि विप वेलिवई है 2.78.2 
टर॒यो न चाप विन्हतें जिन्हे सुभटनि कौतुक कुघर उखारे .68.8 
जाने सोई जाके उर कसके करक सी ].44.2 
एउ देखिहैं पिनाकु नेक जेहि नृत्रति लाज ज्वर जारे. !.68.4 
3....2..2.2.2 विशेषण उपवावय प्रधान उयवाबंद सख्या 9 
महाराज आाययसु भो जोई सोई सही है 5,24.4 
काचन पठाए वितु मातु कंसे दी के हैं 2.30.3 


विरह विपम विप बेल बढ़ी उर ते सुख सकल सुभाव बहू गो. 5.49.2 
निगम अपम समू रति महेस मति सोई मूरति भई जानि नयव पथ इकठक 
जुबति बराय बरी तन ८९ 8 82 


3.4...2..2.3 क्रिया विशेषण उपवाक्य युक्त मिश्र वक्य 
इस प्रकार के वाक्‍्यों में आश्वित उपवाक्य कोई क्रित्रा विशेपण उपव.क्य 


3....2..2.3.] प्रधान उपवाक्य क्विया विशेषण उपवाक्य सख्या 45. 
विवुध बैंद वरवस आतों धरि ती प्रभु अनुग कहाबी 6.8.3 
उपमा एक अभूत भई जब जननी पट पीत ओोढ़ाए 8.26.6 
बार बार हिहिनात हेरि उत जो बोले कोड द्वारे 2.86.2 
बरपिहँँ युमत भानुकुल मति पर तव मोको पवनपूत ले जहैं 5.50.3 
3.],,.2.-2.3.2 क्रियाविशेषण प्रधान उपवादय स० 2] 
उपदाक्य 
जौ तनु रहै वरप बीते वलि कहा प्रीति इंहि लेखे 2.4.4 
चलनिहैं रघनाथ पयादेहि सिला न रहिहि झंवनी .58.2 
छ दाहिनो होइ तो सब मिलि जनम लाहु लुटि लीजे 2.।.3 
रे कहना भरें चयत विलोकहि तव जानों अपनायों 5.44.3 
3.] 4. द्विउपवाक्यीय वाक्य 


इत उद्वाक्‍यों के तीन उपवाबयों में से एक अनिर्वायत: प्रधान उपबाक्‍्य होता 


98 गीत।वलो का भाषा शास्त्रीय अध्यंयर्े 


है । शेप दो उपवाक्यों में से एक प्रधान एक आश्चित, या दोनों प्रधान अथवा दोनों 
प्राश्चित हो सकते हैं- 

त्रि उपवाक्यीय वाक्य दो प्रकार के हैं- 

]. संयुक्त त्रि उपवाक्यथीय वाक्य 

2. मिश्न त्रि उपवाक्यीय वाक्य 
3..] .2.2.] संयुवत ज्रि उपवाक्धीय वाक्य 

एक से अधिक प्रधान उपवाक्यों वाले वाक्य को संयुक्त वाक्य कहते हैं । ये 
संयुक्त उपवाक्‍्पीय वाक्य दो प्रकार के हो सकते हैं-- 


3..7..2.2-4 -2 

प्रधान उपचाक्य। +- प्रधान उपदाक्य/५ -न प्रधान उपवाक्य: संख्या 92. 
ऐमी ललना सलौनी न भई न है न होनी 2.2.] 
अ्ंवलोकहु भार नैंन. विकल जनि होड ढ्रहु सुविचार 2.29.5 
पट उड़त भूपन खसत हसि हंसि अपर रखी भूलावही 7.9.4 


3.7...2.2..2प्रधाव उपचाक्य +- अधान उपवाक्य, + आश्वित उपवाक्य 
इन वाक्यों में दो उउवाक्य प्रधान व तीवरा कोई आश्चित उपव!क्य होता 
है। ये श्राश्चित उपवाक्‍य तीन प्रकार के मिले हैं। जो निम्तलिखित हैं - 
3...] 2.2..2.] प्रध!व उपब,कक्‍्य। + प्रधान उपवाक्य, +- नामिक उपवाक्य 
3....2,2..2.] .] प्रधान उपवाक्य। + प्रशान उपवाक्‍्य , न-ना सिक उयवाक्य से. 4 
मातु मुदित मगल सर्जे कहे मुनि प्रसाद भएु सकल सुमंगलम।ई 
.0.3.5 
प्र0 उपवाक्‍्य, प्र0 उपवाक्य/ ना0 उपवा0 


3...]..2,,2. .2 प्र0 उयवा0, + नामिक उपवक्य, + प्र0उयवाक्यसं0 24, 


कह यो लपन ह॒त्यों हरिंन कोषि सिय हूठि पठयो बरियाई 
3.6.2 

0 
3...' .? 


[ >> ५८ क्ष 


बा0, ना0 उपवा0 ध्र0 उपबा0५ 
|| 


भधान उपचाक्‍्य। + प्रधान उपवाक्‍्य, +- विशेषण उपवाध्य 
गठन की हृप्ट से इसके निम्न प्रकार है,- 
3..].].2.2.].2.2 


भधन उपयवाकक्‍्प| +- प्रधान उपचाक्य/ + विशेपण उपचाक्य सं0 7 
मेरो जीवन जानिय ऐमसोइ जियीडौसो अ्रहि जासु गई सनिफनकी 2.7-3 


वाक्य चिवार.  - 99 


प्र0 उपब।04 प्र0 उपवा0, व्शि0 उपबा0 
3.,.2.2..2.2,2 
विशेषण उपवःद्य के प्रधाव उपदावया + प्रधान उप बावय, सं0 4. 
याके चरन सरोज कपट तजि- ते बुल जुग्ल सहित- यह न कछू 
जे भजिह मनलई तरिदे भव अधिकाई .6.4 
विशे0 उपवाक्य प्र) उपवा0] प्र0 उपवा0, 
प्रधान उपचाकय| + प्रधान उप वाबय/ +- क्लिया विशेषण उप वाक्य 
आलोच्य ग्रन्थ में इसके निम्न प्रकार मिले हैं- 
3.]..].2.2.].2.3 .] 
प्रधाव उपदाक्य, + प्रधान उपदाक्य/ -- क्रिशानिशेषण उपणाक्य संझ्या 8. 


दूधभात की दोनी सोने चोच मड़ैशों जब सिय सहित बिलोकि नयन- 
देहौं भरि राम लपन उर लेहैं। 6.9.2 
प्र0 उपवा04 प्र0 उपवा0५ क्रियावि० उपवा0 
3»5:4,2,2.7. 2.3:2 
प्रधान उपवाक्य, +- 'क्रियाविशेषण उपवाक्य + 
सुनहु पथिक जौ राम मिल्हि वन कहिंयो मात संदेसों 2.87.4 
प्र0 उपचा0] क्रियावि0 उपवा0 प्र0 उपबा0५ 
3...' .2.2..2.3.3 
क्रियाविशेषण उपदाक्य + प्रधान उपवाक्य|+ प्रधान उपयाक्य, सं0. 2: 
जौ चलिह तो चलौ चलिके वन सुत्ति सिब मन अवलंब लही 
2.9- 


॥० 6५% 


क्रियावि0 उपदा0 प्र0 उपवा0एय प्र0 उपबा0५ 
3....2,2.2 थिश्व त्वि उपवराक्यीय वाक्य 
इन उपवाबयों में एक उपवावय प्रधान और शेप दो उपबाक्य आ्राश्वित होते 
हैं। ये आश्चित उपवाक्य नामिक, विशेपरणा क्रिया विशेयण में से कोई भी दो 
हो सकते हैं और साथ ही इनक, क्रम भी वदल सकता है। गीतावली में 
प्राप्त इस प्रकार के वाक्‍्यों का प्रमुख सूत्र यह हैं- 
मिश्र वाकक्‍्य-- प्रधान उपयवाक्य -+ आश्रित उपयवाक्य। न झाश्चित उपवावय:७ 
इसके तीन प्रकार अ.लोच ग्रन्थ नें मिले है- 
3.]...2.2.2. 
प्रधान उपवाक्य + आश्वित उपवाक्‍्या के आ्लाश्चित उपवाक्य, 
इसके दो प्रकार हैं- 
(झ) नासिक उपवाकय, + नामिक उपयाक्‍्य/ + भ्रधाव उपदाक्य सं0 2. 
आशोसरत भजो न तजौ तिहि बह जानत रिपिराउ 5.45.2 


200 


गीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 


ना0 उपवा0+] ना0 उपवा0५ प्र0 उपवा0 

(ब) प्रधान उपवाक्य +- नामिक उपवाक्‍य + क्रियाविशेषध उपवाक्य सं0 2. 

अनुज दियो भरोसो तौनो है सोचु खरो सो सिथ समाचार प्रश्चु जौली न लहै 
3.0. 3 

प्र0 उपया 0 ना0 उपवा0 क्रियावि0 उपवा0 


3.].].].2.2.2.2 


प्रधान उपवाक्य -+ गआाश्चित उपवाक्या ने आश्चित उपवा0५ 
इसके दो प्रकार मिले हैं--- 


(श्र) विशेषण उपवाक्य। -- विशेषण उपवाक्य५ +- प्रधान उपवाक्य सं. 3. 


गावहि सुनहि नारि नर पावहिं सब भ्रभराम 2.47,22 

विशे0 उपवा0, विशे0 उपवा0५ प्र0 उपवा0 

(व) विशेषण उपवाक्‍्य + प्रधान उपवाक्य |- क्रियाविशेषण उपधावय सं, 4. 

मोको जोइ लाइय लगगे सोइ उत्पति है कुमातु ते तनको 
2.7].4. 

विशे0 उपवा0 प्र0 उपवा0... क्रियावि0 उपवा0 

3»]. 52.2, 2 &3 


प्रधान उपवाक्ध + श्रश्रित उपवाक्य। + श्राशित उपवावय, 

इसके तीन प्रकार है-- 

(अ) प्रधान उपवा. + क्रिया विशेषण उपवा + क्रियाविशेषण उपवा. सं. 6. 
गुहू वशिष्ठ समुकाय कह यो तव हिय हरपाने जाने शैप सयत .5].2 


प्र0 उपवा0 क्रियावि0 उपवा0, क्रिपावि0 उपवा0५ 

(व) प्रधान उपदा0 + क्रियाविशेषण उपवा0 -- चामिक उपवा0 सं. 2. 

राम कामहरू .. रहौगी कहोगी तव साँची कही अंबा। सिय 
].72.3 

प्र0 उपवा0 क्रियावि0 उपवा0. ना0 उपवा0 

(स) प्रधात उपवाबय +- क्रियाविशेषण उपवाक्य +- विशेषण उपवाक्य 


सं. . 
जानत हो सवहीके मनकी तदपि क्ृपाल करो विनती सोइ सादर सुनहु दीन 
हित जानकी 2.7.] 
प्र0 उपव, 0 क्रियावि उपवा0 विशे0 उपवा0 


3..,.2.3 श्रघिक्न उपवाययीय वाक्य 


तीन से अधिक उपवाक्यों वाले ब,क्य को अधिक उपवाक्यीय वाक्य के ग्रन्तर्गंत 
रखा जा सकता है इसकीभी कई कोटियाँ हो सकतो है। गीतावली में इसकी 
खत निम्न कोटियाँ प्राप्त हुई हैं- 


वाक्य विचार हे 20 


], चनु। उपवावयीय वाक्य 

2. पंच उपवाक्‍्यीय वाक्य 
3...].2.3,] चतुः उपबाक्यीय वाक्य 

इन वाक्पों के चार उपवाक्यों में से एक प्रधान दो आश्चित, दो प्रधान एक 

आखित तीनों प्रधान अथवा तीनों आश्वित हो सकते हैं - 

ये दो प्रकार के हैं-- 

, संयुक्त चतु:ः उपवाक्यीय वाक्य 

2. मिश्न चतुः उपवाक्यीय वाक्य 
3...].2.3.].] संयुवत चतु उपवाक्यीय वावप 

एक से अधिक प्रधान उपवाक्यों वाले वाक्य को संयुक्त उपवाक्यीय वाक्य 
कहा जाता है। अलोच्य प्रन्य में संयुक्त चतु: उपव!क्य/य वाक्य तीन प्रकार के हैं- 
3,..].]-2.3.]..] प्र.उपवा-! + प्र.उपवा 2 + प्र .उपचा.3 + प्र.उपवा 4 सं. 6 
इन्हही ताडका मारी मगमुनितिय तारी ऋषि मख र।र्यो रत दले हैं दुवत -83.2 

प्र. उपवा- 4 प्र. उपवा, 2 प्र. उपवा. 3 प्र. उपवा, 4 


3....2-3...2 प्र.उपवा. +प्र.उपवा.2 + प्र.उपचा.3 +-श्राश्चित उपवाकध 
इसके तीन प्रकार हैं- 
3..-].2.3...2.] प्र. उपचा-+- ना. उपवा.--प्र. उपया. 2 प्र. उपवा, 3 सं.] 


जाचत व को है। कहा कीबो सो बिप्तरिगे 2.32.3 
प्र उपया, ] ना. उपयवा. प्र. उपबा, 2 प्र: उपवा, 3 
3....2-3.],.2.2प्र. उयवा.] + करिवि. उपया. + प्र.उयवा.2 + प्र.उप.3 सं-3 
कहन तरह यो संदेस नहि कहयो पिय के जिय की हृदय दुसह 5-5.2 
जानि दुख दुरायो 
प्र. उयवा, । क्रिवि., उपवा,. प्र. उपचा. 2 प्र. उपवा, 3 


3,]. ..2.3..] .2.3« 


फिवि. उपचा.-- प्र. उपवा [+ प्र. उपवा.2-- प्र.उपवा.3 सं. 
जब रघुवीरपयानों क्षुभित सिंधु डगमगत महीधर सजिसारंग कर 5.22. 
कीन्हौं लीन्हों 

क्रिवि. उपया. प्र. उपया- ! प्र. उपवा, 2 प्र. उपवा, 3 


3..,.2.3,] ..3« 


202 गीतावली का भाषा शास्त्रीय श्रध्ययन 


प्र. उपवा. ।+ प्र. उपवा- 2|-. आश्वित उपवा, !+  झाश्चित उपया- 2 
इसके तीन प्रकार प्राप्त हुए है- 

3....2.3.]..3.]- 

बिशे. उपवा. [+- .विशे, उपबा- 2+ प्र. उपया. [+ प्र. उपवा-2 सं 2 
जे सुक सारिका मतुज्यों ललकि तेऊ न पढ़त न पढ़ाव मुनिवाल 3 9.3 
पाले-विशे. उपवा. ! लाले-विशे उपवा. 2 प्र. उपवा, | प्र. उपया 2 
3.]..].2.3.]..3.2- 

प्र. उपया, ! +- प्र- उपया- 2-+- क्विवि- उपया, ]+ क्विवि. उपदा, 2 सं-2 
विरथ विकल फ्ियों छीन लोन्हि सिथ घन घायति झकु- तब अ्सि काढ़ि 3.8.2 


लान्यो काटि पर पांवर 
ले प्रभु सिया 
प्रान्यो 
प्र उपवा, ! प्र. उपवा, 2 क्रिवि. उपबत्रा. ! क़्िवि, उपवा: 2 


3..7..2.3,]. 3.3- 
क्रित्र. उपबान ॥ + प्र, उपबा,  +- क्विवि, उपवा, 2+ प्र. उपवा: 2सा. ] 


जीवों तो विपतति सहौं- मरों तो मन पछि- 2 54.4 
किवि. उपव।. ! निप्ति वासर क्रिवि, उपवा, 2 तायो-प्र.उपव . 2 
प्र. उपवा, ! 


3.।.]..2.3..2-मिश्र चतु उपववधीय वाक्य- 

इस श्र णी के उपवाक्यों में एक उतव,क्य प्रध/व और शेप तीन उपवाक्य 
आश्रित होते हैँ जो नामिक, विशेषण अथवा क्रिया विशेषण कुछ भी, कहीं भी 
हो सकते है- 

प्रस्तुत ग्रन्थ में इस प्रकार के वाक्य निम्नलिखित हैं- 
3.].].].2.3.4 . 2. ) - 
ता. उपवा. !+ ना. उपवा- 2-+- ना, उपवा, 3+ प्र. उपचा,. सा! 
अवध गए घौ फिरि कंधों चढे विध्य कंधों कहुँ रहे सो कछू न 2.4!.] 
ता. उपवा, । गिरि-ता. उपया, 2 ना. उपवा, 3 काहू कही है-प्र. उपवा- 
3..].। 2.3..2.2- 
प्र उपवा. + क्रिवि. उपवा. !+ क्रिवि. उपया,. 2- क्लिधि. उपया, 3 सा, 
करुनाकार की करुना मिटीमीच लहिलंक संक गई काहुसोंन खुनिस 5.37. 


भई खई 
प्र. उपवा, क्रिवि, उपवा, । क्रिवि, उपवा 2 क्रिबि, उपवा, 3 


वीवक्य विचार 203 


3.4..[.2.3.2-पंच उयव .क्यीय वाक्‍्य- 

इन वाक्यों के पांच उपवाक्पों में से एक अनिवार्यत: प्रघान होता है। शेप 
चार में से कोई भी प्रवाव व आश्रित हो सकते हैं । प्रस्तुत सामग्री में प्राप्त इन 
वाक्यों की संरचना इस प्रकार है- 
3....2.3.2.]- 
प्र. उपदा, + प्र. उपया, 2 +- प्र.उयचा. 3-+- प्र-झपबा, 4+- प्र.उपवा. 5 तं. 2 
यह जलनिधि मथ्यो खनन्‍्यो लंध्यो बांघ्यो अंचयो है. 6..5 
प्र. उपया, | प्र. उउा. 2 प्र उयवरा, 3 प्र. उपया. 4 प्र. उपबा, 5 
3..,,ल्‍2.3.2., 8- 
प्रउयवा, + ना-एयबा, | + ना.उपया, 2+ ना.उपवा- 3+ ना.उपवा. 4 सं.] 
सीता राम हेरि रि्‌ हेरि हेली हिय के 
लपतनिहारि हरन हैं. 2.26.3 
ग्रापत नारिकहैं 
प्र. उपवा ना. उपवा. | ना. उपयवा. 2 ता. उपया. 3 ना. उपया: 4 
3.] ,2-उपवाक्‍य - 

वह वहिऊ्रेन्द्रिक संरचना है जो गठन एवं अर्ये की दृष्टि से पूर्ण इकाई है । 
किसी व क्य में एक प्रथवा अधिक उपवाक्य होते हैं- 
3.] 2.]-विश्लेष्य पुस्तक के उपवाक्य-- 

संरचना की इृप्टि से गीतावली में दो प्रकार के उपवाक्य हैं । साधारण 
बाक्‍पों (जिनमें एक है। क्रिवापद है) का भी विश्लेषण उपत्राक्यों के साथ ही किया 
जा रह है- 

. पूर्ण उपवाक्य 

2. अपुर्ण उपवाक्य 


जि 


3..2.]-पूरण उपवाक््य- 

वे उपवाक्य जो संरचना की दृष्टि से पूर्ण हैं श्र्थात्‌ जिनमें अनिवार्य घटक 
(कर्ता एवं क्रियापद) या तो उपस्थित रहेते हैं या उनमें से किसी एक (दोनों नहों) 
की अनुपस्यिति अनुभव की जाती हैं । 

क्रिया की पूर्णाथं करता के विचार से पूर्ण उपवाक्य दो प्रकार के हैं- 

पूर्णार्थ क्ञ क्रिया युक्त पूरा ववय 

2. अपुणर्थिक क्रिय्रा युक्ष इसे उपवाक्य 
3.,2...]-पूर्णार्थक किया युक्त पूर्ण उप्बान्‍य-- 

जिन उपवादयों में किसी पु कक की झ्ावश्यकृता नहीं होती वे इस कोटि के 
अस्तर्गत झाते हैं । पूर्णार्थ क क्रिपायुक्त पूर्ण उपवाक् दो प्रकार के हैं- 


204 गौतावलो का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 


!. सकसेंक पूर्णार्थक क्रिया युक्त पूरों उपवाक्य 

2. अकमंक पूरणार्थिक क्रिया युक्त पूर्णा उपवावय 
2.].2.]..] .-सकमंक् पूर्णर्थिक्त क्विया घुक्त पूर्ण उपवाक्य- 

ये वे उादाक्य है जिनमें क्रितापद एवं कर्म अनिवाये रूप से हों - इनके 
दो प्रकार हैं -- 

]. कर्ता सहित सक्मंक पूर्यार्थक क्रियायुक्त पूर्ण उपवाक्य 

2. कर्ता रहित सकर्मक पूर्णार्थक क्रियायुक्त पूर्ण उपवाक्य 
3..2.];:...] कर्ता सहित सकते ह पूर्णा्यक क्रियायुक्तपूर्ण उपवासय 

वे उपवाक्य जिसमें कर्ता, कर्म और क्रियापद अनिवार्य घटक हों । इदके चार 

प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थ में प्राप्त हुए है - 


3..2......] कर्ता + कर्म + क्ियासंरचना 
गठन की दृष्टि से इसके निम्त प्रकार प्राप्त हुए हैं - 
. राम राज्नीव लेचन उचधारे .37.5 सं, 42 
कर्ता कस क्रिया 
2. ब्रहमादि प्रन॑स्तत अवधवास 7.22.] सं- 38 
कर्ता क्रिया दस 
3. पंथ कथा रघुनाथ चरित की छुलसीदास सुचि गाई. 2.89.4 सं- 3] 
कस र्कर्ता क्रिया 
4. मुनि मन हरत मंजु मप्ति बुदा 7.3.4 सं. 3] 
कर्म क्रिया कर्ता 
5. लाॉँधिन सके लोक विजयी तुम जासु अनुज कृत रेघु 6-.6 सं. 5 
क्रिया कर्ता कम 
6. लगे पढ़न रक्षा ऋचा ऋषिराज .6.6 सं. 2 
क्रिया कर्म कर्ता 
3..2..]...].2 कर्ता +कर्म + क्रियाविशेषण + क्रियासंरचदा 
गठन की हृष्टि से आलोच्य ग्रन्य में इसके निम्न प्रकार मिले हैं 
तापसकिरातिन कोल मृदुमूरति मवोहर मन घरी 3.7.7 से. 
कता कम क्रिवि० क्ति० 
प्रिय निदुर वचन कहे कारन कवन 2.8.] सं.3 
कर्ता कर्म क्रि० क्रिदि० 
सिष्प सचिद सेवक सखा सादर सिर नाए .6.2 चं. 5 
कर्ता... क्रिवि० कम क्कि० 


मुनिवर करि छठी कोन्ही वारहे को रीति 7.35.] स॑ 5 


वाक्‍्क विचार 205 


कर्ता क्रिवि० क्रि० कर्म 
मुनि पदरेतु. रघुनाथ मार्थ घरी है .92.[ से.9 
कर्म कर्ता क्रिविग.. क्ि० 
स्थामल गौर सुमुखि तिरखु भरि नेंन 2.24.] से 3 
किसोर पथ्चिक दोउ 
के कर्ता क्रि० क्रिवि० 
कौतल्या के विरह सुनि रोइ उढठी सब रानी 2.53.4 सं.5 
वचन कम॑ ऋरिवि० क्रिवि० र्क्ता 
सेरोइ हिय. कठोर करिवे कहँ विधि कहु कुलिस लहयो सं. 3 
कम, क्रिवि० कर्ता कर्म; क्रि० 2,84.3 
प्रम निधि कहें में परुषवचन अघाइ 7.30.4 सं 5 
पितु को 
कम क््ि० कर्ता कर्म; क्रि०्वि० 
विध्र वचत्त सुति सखी सुप्राप्तिति चली जावडिहि ल्थाय सं. 2 
कम 4 . क्रिवि, कर्ता कमें 2 .90.]0 
एकहि वार झ्राजु विधि मेरों सील सनेह निवेरों 2.73.2 सं. 24 
क्रिवि. कर्ता. कर्म क्रिः 
विविध भाँति जाचक पाए भूषन चीर 7.2!,24 सं. 3 
जन 
क्रि. वि. कर्ता क्कि, कमें 
प्रम पुलकि सुबन सब कहति सुमित्रा मैया .9.] सं. 8 
उर ल.इ॒ 
क्रि, वि. कर्म क्रि. कर्ता 
राखी भगति भली भांति भरत 2.80. से. 5 
भलाई 
क्रि. कर्म क्रिवि. कर्ता 


3-4.2.4..] . . .3-- 
वे उपवाक्प जिनकी संरचना में +कर्ता + कर्म + क्रिया +-अनुबंध अ।वश्यक रूप से 
हो | गठन की हृष्टि से इसके निम्न प्रकार मिले हैं- 


पुरवासिन्‍्ह॒ प्रिय नाथ निजनिज संपदा लुढाई ..5 सं. 5 
हेतु 
कर्ता अनु. कर्म क्रि. 


चरचा चरनिसों चरची जातमनि रघुराइ 7.27.] सं. 5 


206 गीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 


कम अनु० क्क्ि० कर्ता 

काहू सों.. काहू समाचार ऐसे. पाए 2.88.] सं. 9 
प्रनु० कर्ता कर्म क्रि० 

मुदित मन आारतो करें माता .80.] सं. 4 
अनु० कर्म क्रि० कर्ता 

निज हित मांगि आने मैं धरमंसेतु रखवारे 3.68.2 सं. 3 
लागि 

अनु० क्रि० कर्ता कमे 

दूरि कर को भूरि कृपा जिनु सोक जनित रुज मेरो सं. 2 
क्रि० कर्ता अनु ० कस 2.54.5 


3.4.2..]..., .4-- 

वे उपवाक्य जिनकी संरचना में +कर्ता+ कर्म + क्रियाविशेषण + अनुबंध + क्रिय/ 
ये तत्व पाए जाते हैं- 

गठन की दृष्टि से ये निम्न प्रकार के हैं- 


रावन रिपुहि राखि रघुवर विनु को त्रिभुवत पति पाइडै सं. 2 
कर्म 2 क्रिवि, अनुछ कर्ता. कम [ क्रि. 5.34.2 
अंब अनुज गति लखि पवन भरतादि गलानि गरे हैं सं. 3 
कमे क्रिवि. कर्ना अनु० क्रि, 6.3.5 
बार कोटि घिरि काटिसाटि रावत संकरपै लई स.2 
लटि 
क्रिवि. कम क्रिवि, कर्ता अबचु. क्रि. 5.38.3 
जनम जनम जातकि गुतगन तुलसिदास गाए सं. 2 
नाथ के 

क्रिवि, अनु० कर्म कर्ता क्रि. 6.23.5 
मेरे जाना जानकी काहू खल छल करि हरि लीन्‍्हीं स.3 
अनु० फर्म कर्ता क्रिवि.. क्रि० 3.6.3 
एक एक समाचार सूनि नगर लोग सब धायो सं. 2 
सो जहेँ तहेँ 

अनु० कर्म क्रिवि० कर्ता क्रिवि, क्रि. 6.2].4 


3..2..]...2-कर्ता रहित सकमंक पूसार्थिक क्रियायुवत पूर्णा उपवाक्य 

ये वे उपवाबय है जिनमे कर्ता उपस्थित नही रहता हैं इस प्रकार के वाक्य 
निम्न प्रकार के हैं- 
3..2.]..] .2.] +कर्म + क्रिया संरचना 

गठन की हृष्ठि से ये सरचना दो प्रकार की है- 


वाक्य विचार 


खेम कुसल रघुवीर लघत की ललित पत्षिका ल्याए. .-02:3 सं. 
कर्म क्रि० 

बरनों किमि तितकी दसहि. 2-7.3 सं. 

क्रि० कर्म 


3..2..]...2.2 +कर्म+ क्रिया विशेषण + किया संरचरा 
गठन की हृष्ठि से ये कई प्रकार के हैं- 


कांच मति ले अमल मानिक गंवाए सं. 

कर्म | क्रिवि०. कर्म 2 कि०.. 2.39.5 

पंचवटी पहिचानि ठाड़ेई रहे 3.0. 

कर्म क्रिवि०. क्ि० 

सोभा सुधा. पिए करिअंखियां दोदी 222.2 सं. 

कर्म क््ि० क्रि० वि० 

तय सगर बसाए विपिन मझारि 2.49.2 

कर्म । क्लि०... कम 2 क्रिवि० 

क्‍यों मारीच सुवाहु महावल प्रवल मारी. !-09.2 सं. 

क्रिवि० कर्म ताड़का क्रि० 

काहे को खोरि. कैकयथिहि लावा. 2.63. 

क्रिवि० कम [ कम 2 क्रि० 

पचवटी बर कहें कछु कथा पुनीता 3.3. सः 

परन कुटी तर 

क्रिवि० क्रि० कर्म 

दिए दिव्य सुपास सावकास .84.3.. से. 
आसन  अ्रति 

क्रि० कर्म क्रिवि० 

डारों वारि अंग अंगनि कोटि कोटि सत 2.29.2.. सं. 
पर मार 

क्रि० क्रि० वि० कर्म 


3.4.2.]....2.3 +अलुबंध + कर्म + क्रिया सरचता 
गठन की हृष्टि से इसके निम्त प्रकार हैं- 


राम लप्तन उर लाय बए हैं 6.5.] सं. 
कर्म अनु० क्रि० 
इनके विमल गुत गनत पुलकि तनु - [.74.4 सं. 
करमे क्रि० अनु ० 
धरनति घेनू. सव सोच नसाए 6.22,2.. सं, 


महिदेव साधु 


207 


73 


47 


22 


49 


3व 


2] 


208 गीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 
सबके 

अनु० कम क्रि० 

मानों मख रुज पठए पतंग सं. 0 
निसिचर हरिवे 

को सुतपावक 

के संग 

अनु० क्रि० कर्म .53.2 

क्यों तोरुयो.._ कोमल कर कमल संभु सरासन भारी सं. 3 
क्रि० अनु ० कर्म ].09. 


3..2,....2.4 --कर्म |- क्रिया विशेषण + अनुबंध + क्रिया संरचना 
गठन की दृष्टि से ये निम्न प्रकार के हैं- 


गनक बोलाय पांय परि पृछति 
कर्म क्रिवि० क्रि० 
कौपिक कथा एक एकनि सों. कहते 
कर्म अनु ० क्रि० 
गुरू आयसू मंदप रच्यो 
अनु ० कर्म क्कि० 
बहु राच्छसी- तर के तर तुम्हरे- विज जनम 
सहित विरह 
अनु ० क्रि० बि० कर्म 
मोसे वीर सों चहन जीत्यो र(रि 
प्रनु ० क्रि० कर्म 
पौढाए पटु पालने सिसु 
क्रि० क्रि०वि० कर्म 


प्रेस मगन भृदुबानी सं. 2 


अतु० 6,]9.3 
प्रभाउ जनाइके. सं. 3 
क्रिण्वि० .70.6 


सब साज सजाई .03.6 सं. 3 
क्रि० वि० 


विगोवति सं. 2 

क्ति० 5.47.3 

रत में 5.23.] सं. 2 
क्रिण्वि० 

निरखि मगतन सत्र भोद सं 3 
क्रिण्वि० अनु० .22.2 


3..2.]..].2 अकर्सक पुणार्थिक क्रियायुक्तत पूर्ण उपवाकय 
इस कोटि उपवक्यों में केवल कर्ता और क्रियापद ही ग्रनिवायं घटक होते 


है -- 
इनके मुख्य दो प्रकार हैं -- 


. सामान्य अ्रकमेक पूरणर्थिक क्रिया युक्त पूर्ण उपवाक्य 
2. गत्यथंक अकर्म कु पूर्ार्थक क्रियायुक्त पूर्ण उपवाक्य 
3.].2....2.] सामान्य अ्रकर्मक पुणर्थिक क्रियायुवत पुर्ण उपवावय 
इसमें कर्ता एवं क्रियापद अनिवार्य रूप से होते हैं प्न्य तत्व जेसे अनुबंध, 


क्रिया विशेपण ऐ चेछक रूपेण हो सकते है - 


इसे चार भागों में बांदा जा सकता है-- 


वाद्य विचार 209 


3,,.2,.2,.2..] + कर्ता + क्रियापद संरचना- 
गठन की हृष्ठि से इसके दो प्रकार हैं-- 
चामर पताक वितान तोरन कलस दीपावली वनी .5, सं, 7] 


कर्ता क्रि 
बैठे हैं राम लपन अ्रु सीता 3.3. सं, 77, 
क्रि० कर्ता 
3..2....2..2 + कर्ता + क्रिपाविशेषण -+- किपासतरचना 
गठन की दृष्टि से इसके निम्न प्रकार हैं-- 
भरत झए ठाड़े कर जोरि 2.70. सं, 59 
कर्ता क्रिया क्रिवि० 
कोलिनि कोलकि रात जहां तहाँ विलखात 3.9.2 सं. 46 
कर्ता क्रिण्वि० क्रि० 
भोर जानकी जीवन जागे 7.2.] सं. 69 
क्रिवि० कर्ता क्रि० 
मुनि के संग विराजत वीर .54.4 सं. 48 
क्रिंवि० क्रि० कर्ता 
ठाड़े हूँ लपन कमल कर जोरे 2..] सं. 29 
क्रि० र्कर्ता क्रिवि० 
लगेइ रहत मेरे नैतनि आगे राम लपन अरु सीता 2.53.2 सं. 2 
क्रि० ऋरधि० कर्ता 
3..2...].2..3 + कर्ता + अनुवन्ध +- क्रियासं रचना 
गठन की दृष्टि से इसके निम्त प्रकार हैं - 
देह गेह नेह नाते मन निसरिये 2.32.3 सं. 22 
कर्ता अनु ० क्कि० 
हों तो समुक्ति रही ग्रपनो सो 2.85.] सं, 22 
कर्ता क्ि० अनु० 
सीय राम की- तुलसीदास वलि जाइ .90.]] सं. 23 
सुंदरता पर 
अनु० कर्ता क्रि० 
सत्र के जिय की जानत प्रभु प्रवीन 5.8.] सं, 6 


अनु० क्कि० कर्ता 


20 गीतावली का भाषा शास्त्रीय अ्रध्ययन 


3,,2.,..2..4 +-क्रर्ता + क्रियाविशेषण + अनुवंध + कियासंरचना 
गठन की दृष्टि से इसके सिम्न प्रकार हैं -- 


नृष कर जोरि कह यो गुरणही 2-. से. 4 
कर्ता क्रिवि० क्रि० अनु० 
मं . तुमसो .सतिभाव कही है. 2.9. सं. 2 
कर्ता श्रनु० क्रिवि० क्रि० 
सुरति बिसरि गई आपनी बोही 2.]9.4. सं, ] 
कर्ता क्रि० प्रनु० क्रिवि० 
सिय वियोग सागर नागर मनु धूड़न लग्यो सहित चित चैन सं. 3 

क्रिवि० कर्ता क्रि० अनु० 5.2].2 
राम कृपा ते सोइ सुख अवध गलिन्ह रहयो पुरि. 7.2.23 सं.4 
श्रनु० कर्ता क्रिवि० क्रि० 
सुकसों गहबरहिये . कहै सारो 2,66.] सं. 2 
प्रनु० क्रिवि० ... क्रि० कर्ता 
धवल' घामतें निकर्साह जहूं तहं तारि बर्थ सं. 2 
अग्र९ क्रि० क्रिवि० कर्ता 7.2.20 
कहें गाधिनंदन मुदित रघुनंदन सो. .87.2 सं.2 
कि० कर्ता ० क्रिवि० अनु ० 


3..2..]-.2.2 गत्यर्थक अकर्मक पूर्णार्थक क्रियायुक्‍त पूर्ण उपनाकप 

इन उपवाक्यों में गन्तव्य श्रौर क्रियापद आवश्यक तत्व है कर्ता की उपस्थिति 
के विचार ने गत्यथंक उपवाबयों के दो प्रकार हैं -- 

! कर्ता सहित गत्यर्थक प्रकमेंक पृणार्थिक क्रियायुक्त पूर्णो उपवाक्ध 

2. कर्ता रहित गत्यर्थक अ्रकर्क पूररार्थिक क्रियायुक्त पूर्णा उपवाक्ध 
3..2....2.2.] कर्ता सहित गत्यर्थक्ष अकसेक पूर्णार्थक क्रियायुक्त पूर्ण 

उपवाक्य 

इनमें कर्ता की उपस्थिति श्रावश्यक होती है - इसके मुख्य तीन प्रकार हैं 


3.]-2.-..2.2.].] -- कर्ता + गन्‍्तव्य -- क्रिया संरचना 
गठन की हृष्टि से ये इस प्रकार के हैं -- 


है तो राम लपन अ्रवध ते आए, 2.39.] सं.2 

कर्ता ग० क्रि० 

जेहि जेहि मग सिय राम लपत गए 2.02,] सं. 2 
ग. कर्ता क्कि. 

बाजत श्रवध गहागहे आनंद .6.] सं. 3 
कि, ग्‌. वधाए-ऊर्ता 


धार्य विचार 2| 


3०६2 4:..:2.2.]:2-- 
+ कर्ता + कियाविशेषण + गन्तव्य + क्रिया संरचना-गाठत की हृष्ठि से ये इस 


भ्कार हैं- 

सानुज भरत भवन उठि धाए .]02.] स॑ ॥] 
क्रिवि, कर्ता गे. क्रि. ५ 

पंथ चलत मृदु पद कमलनि दोउ सील रूप 2.29... सं. 2 
ग्‌ क्रि, क्रिवि. आगार-कर्ता 

3.व,2...].2.2 .. 3-- 


अतु.+- कि +ग +कर्ता संरचना 

जनक सुता समेत श्रावत ग़्ह परसुराम अ्रतिमदहारी 7.38.3 सं. 
अनु. क्रि. ग. कर्ता 

3.].2,..],2.2.2.-- 

कर्ता रहित गत्पर्थक श्रकर्मक पूर्णार्थक् कियायुक्त (पूर्ण उपवाक्य-इववाक्यों में कर्ता 


उपस्थित नहीं रहता है-इसके दो प्रकार मिले हैं- 
3..2..].],2.2,2. [-क्रि. वि.+ग-+क्रि, गठत की इष्टि से ये दो प्रकार 


के हैं- 
ता दिन श्रंगवेरपुर भ्राए 2.68.]... सं. 4 
क्रिवि, ग क्रि. 
एई बातें कहत गवत कियो घर को .69.] सं. 2 
क्रिवि. क्लि. गे 
3..2.. .] .2,2,2, 2-अनु. + ग. + किया- 
यथा- 
कपिकुल लखन सुयत्त सहत कुमल तिजनगर सिध हैं संड3 
जय जावरकि- अनु. गई क्रिड् 5.5].7 


3..2.].] .2-अपुर्णार्थ क्र किया युक्त पूर्ण उयवाक्य- 

जिन वाक्यों में पुरक की श्रावश्यकता होती है वे इस कोटि में श्राते हैं- 
अपूर्णार्थक क्रियायुक्त पूर्ण उपवाक्य दो प्रकार के हैं- 

. सकमंक अपूर्णार्थक क्रिप्रायुक्त पूर्ण उपवाक्य 

2. प्रकर्मक अपूर्णार्थक क्रियायुक्त पूर्णो उपवाक्‍्य 
3.].2..] .2.]-सकर्म क अपुणणर्थिक क्रियायु क्‍्त पुर्णे डपवाक्य- 

इन उपवाक्यों में अपूर्ण क्रिया के साथ अर्थ की पुर्णाता किसी पूरक के द्वारा 
की जातो है साथ ही इनमें कर्मे करी उयस्थित्रि प्रतिवायें झूपेण होती है 

ऐसे उपवाक्य दो प्रकार के हैं-- 

, कर्ता सहित सकतंक श्रपुर्णार्थक क्रिया युक्त पूरा उपवानय 


[22 गीतावली का भाषा शास्त्रीय प्रध्ययन 


2, कर्ता रहित सकर्मक अपुरर्थिक क्रिया युक्त पूर्णो उपवाक्य 
3..2...2..]-कर्ता सहित सकर्मक अपूर्णार्थंक क्रियायुकत पूर्ण उपबावय- 

इस प्रकार के उपवाक्यों की सख्या अति न्‍्यूब है-इसके तीन प्रकार हैं- 
3..2...2 .,-+ कर्ता + कर्म - पुरक + क्विया संरचना- 

गठन को दृष्टि से ये तीन प्रकार के हैं-- 
]. +कर्ता + कर्म +- पुरक + छ्विया संरचना- 


तापसी कहि कहा पठवति नृपति को मनुहारि 7.29.2 सं. 3 
कर्ता क्रि, कर्म पर 
पालागनि दुलहियनि. सिखावति सरिस रासु सत साता सं.2 
पू. कम क्ति. कर्ता .0.2 
3..2...2..].2- 
+॑ कर्ता + कर्म + पुरक्र + क्विया विशेषण + क्विया-- 
प्रमु रुख निरखि निरास भरत भए 2.72.3 सं.2 
कर्म क्रिवि० पू० कर्त्ता. क्रि० 


3..2..].2.].] .3--कर्तता +- कर्म + पूरक +- क्रिया विशेषण -- किया +- अनु० 
तेहि मातु ज्यों रघुनाथ पझपने हाथ जल अन्जलि दई सं3 
कर्म त्रिवि० कर्ता अनु० पु० क्वि० 3.7.8 
3.!.2...2.' ,2--कर्त्ता रहित सकमंक श्रपूर्णार्थक क्तियायुक्त पूर्ण उपचावय 
गठन को हृप्टि से इसके निम्न*प्रकार हैं-- 


3..2..].2.] .2.--- + कम + प्रक + क्विया' संरचना 
तेहि कुलहि कालिमा लावों 2.72.3... सं-4 
के कमें पू० क्रि० 


3.].2..]-2.].2.2-- + क्रिधाविशेषण + कर्म + पूरक + क्रिया संरचना 
यह दो प्रकार के हैं-- 
तुव दरसन संदेश सुनि हरिको बहुत भई श्रवलंव प्रान की सं.2 


कम। क्रिवि* कर्म: क्कि० पू० 5.].4 
ऐसी झ्ौ मूरति देखे रहयो पहिलो विचारू .82.3. सं.2 
कर्म क्रिवि०ण क्रि०. पू० 

जान्यो हैं सवहि भांति विधि वाँवीं 2,72.3. सं. 
क्कि० क्लिचि० कम पु० 


3..2..].2,.2.3 + श्रनुवंध + कर्म + पूरक + क्रिया 
तापस हू वेप किए काम कोटि. फीके हर 2,30, 


रु 


श्र तु कि क्रम हे 0 क्नि 6 


सं.3 


वावेय विचार 2] 3 


3 .2..].2.2 अकर्मक अपूर्णायक्र क्षियापुक्त पूर्ण उपदावय 

इन उपवाक्यों में अपूर्सा क्रिया के साथ झ्रर्थ को पूर्णाता किसी पूरक के द्वारा 
की जाती है लेकिन कर्म प्रतुपस्थित रहता है । ये उपवाक्य दो प्रकार के है -- 

. कर्ता सहित अकर्मक अपूरर्थिक करियायुक्त उपवाक्ध 

2. कर्ता रहित अकमक अपधूर्णार्थक क्रियायुक्त पूर्ण उपवाक्‍य 
3,.2 .].2.2.[ कर्ता सहित अकर्मक अप्रार्थक क्रियायुकत पूर्ण उपयावय 

इन वाकक्‍्यों में कर्ता अनिवायं रूप से रहता है - 

इसके निम्त प्रकार गठन की दृष्टि से श्रालोच्य पुस्तक में मिले हैं- 
3..2...2.2..] + कर्ता + क्रिया +- प्रक 

गठन की दृष्टि से इसके निम्न प्रकार हैं- 


जरठ जठेरिव्ह आसिरवाद दए हैँ .84.4 सं. 9 

कर्ता पु० क्रि० 

कैकेयी करी घौं चतुराई कौंन 2.83.] सं, 7 

कर्ता क्रि० पु० 

भूरिभाग भए (है) सव नीच नारि नर 2.45.5 स 3 

पु० क्रि० कर्ता 

चहत महामुर्ति जाग जयो ].47.] सं, 2 

क्र्णि कर्ता पू० 

3.,2..,2.2..2 + क्रियाविशेषण +॑ कर्ता +क॑ क्रिया +॑ पूरक 
इसके निम्त प्रकार मिले है- 

मागध मृत - जहूँँ तहे,... करत बड़ाई ..6 रस. 2 

दूवार बंदीजन 

कर्ता क्रिवि० क्रि० पू० 

ऋषि तृपसीस ठ्योरी सी डारी .800.4 सं. 4 

्क््ता क्रिवि० पू० क्रि० 

देखत लोनाई लघु (हैं). लागत मदन 2.26.2 ल॑ं, 6 

क्रिवि0 पू० क्रि० कर्ता 

सव दिन... चित्रकूट... नीको लागत. 2.50.7 सं. 2 

क्रिवि० कर्ता पु० क्रि० 

करत राउ मनमों प्रनुभाव 2-59.] सं. 7 

क्रिठ कर्ता क्रिवि० पु्‌० 

3.4.2,.].2.2..3 + छर्ता + क्रिया +अनुबंध + पूरक ना संरचदा 


इसके निम्त प्रकार मिले हूँ क्र 


24 गीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 


सो तुलसी चातक भयो. जाचक राम श्याम 35.40.4 सं. 2 
सु दर घर्ने 
कर्ता पू० कि. अनु० 
विप्र साधु सुरधेत धरनि हरि अवतार लगो व.47.2 सं.3 
हित 
अत्तु ० कर्ता पू० क्रि० 
3..2...2.2..4. + कर्ता + क्रिप्रा + अनुबंध +- क्रिय्रानिशेषण 
न प्‌० संरचना 
काम कौतुकी यहि विधि प्रभु हित कौतुक कीन्ह 2.47.]7 सं. 2 
कर्ता क्रिवि० अनु० पू० क्कि० 
3,.2...2,2.2 कर्ता रहित अकर्मक अयूर्णार्थक क्रियायुक्‍त पूर्ण उपवाक्य 
इन वाकयों में कर्ता अनुपस्थित रहता है, इसके निम्न प्रकार मिले हैं- 
3,.2...2.2.2.] + प्ूरक्त + क्रिया सुरचना 
इसके दो प्रकार हैं - 
स्वारथ रहित परमारथी कहावत हैं .64.2 सं. 7 
पू० क्रि० 
हौं रघुवंसमनि को दूत 5.6.] सं. 9 
क्रि० मठ 


3..2...2.2.2.2 + क्रिया विशेषण + प्रक +- क्रियासंरचना 
इसके निम्न प्रकार मिले है- 
राम निछावरि लेन को हठि होत भिखारी .6,.24 सं. 4 


क्रिवि० क्रिवि० क्रि० पू० 

हाथ मीं जियो हाथ रहयो 2.84.] सं. 7 
प्‌0 क्रिवि० न्र्ि० 

3..2.]..2.2.2.3 + अनुबंध +- क्रिया + पूरकसंरचना 

इसके निम्न प्रकार मिले है--- 

करुनाकर की करुना भई 5.37.] सं.7 
0 गे क्रि० 

दूसरों . नदेखतु साहिब सम रामे 5.25... सं. ] 

पू० क्रि० अनु० 

परत दृष्टि दुष्ट तीके .2,2 सै. 2 


क्र 0 पूछ अनु ७ 


वाद्य विचार 25 


3.,2...2.2.2.4 + क्वियाविशेषण + अनुबंध +- क्रिया + पूरक संरचता 
गठन की दृष्टि से इसके निम्न प्रकार हैं- 

जिय जिय. जोरत सगाई राम लपन सों .64.4 सं. 2 

क्रिवि० क्रि० पु० भ्रनु० 

तुलसी को सब भांति सुखद समाज भो सं. ! 

अनु ० क्रि० वि० पु० क्रि० 2.33.3 

3..2..2 अपूर्ण उपवाक्य 


जो उपवाक्य संरचना की दृष्टि से पूर्ण न हो उन्हें अशों उपवाक्य कहते हैं । 
इस प्रक'र के उपव क्यों में कर्ता अथवा क्रिया दोनों में से किसी एक की अनुपस्थित 
अनिवार्य होती है। कहीं कहीं दोतों भी अनुपस्थित हो सऊते हैं श्पूर्णो उपवावय 
दो प्रक्नार के हैं- 

]. अंशतः अपर उपवाक्य 

2. पूर्णतः अपरोी उपवाक्‍्य 
3.].2..2.] श्रंशतः अपूर्ण उपवाक्य-वे उपवाक्य जिनमें क्रिया उपस्थित हो अंशतः 
अपूरो उपचाक्य हैं। ये तोन प्रकार के हँ- 
3.],2..2..] +क्िपा विशेषण + क्रिया संरचना 

इसके दो प्रकार मिले हैं- 


काज के कुःल फिर एहि्‌ सम ऐंह 2,.37.] सं. 43 
क्रिवि० क्रि० 

लगे देव हिय हरि क॑ हेरि हेरि हंकारी .6.23 सं 3 
क्रि० क्रिवि० 


3..2.].2.].2 + अनुबंध + किया संरचना 
इसके दो प्रकार हैं- 


वंचु अपमान. चाहत गरन 5.43.3 सं. 20 
गुरु गलानि 

अनु ० क्र्ि० 

चले बूभत बन बेलि बिटय खगमृग अलि अवलि सुहाई सं. 9 
कि झनु० 3.]].3 


3..2..2..3 +क्रिया विशेषण +- अनुबंध + क्रिया संरचता 
गठन की दृष्टि से थे इस प्रकार हँ- 


सब भांति विभीपन की बनी 5,39.] सं. 2] 
क्रिब्रि० अनु० क्कि० 
हिय विहृंध्ति कहते हनुमान सों 5,33.,] सं. 6 


क्रिवि० क्त्ण झनु० 


2]6 गीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 
मतसा प्रनूप राम रूप रई है ,9 6.3 

रंग 
प्रनु ० क्रि० वि० क्रि० से. 4 
सुत्दर वदन ठाड़े सुरतरु प्रियरे ,43.2 सं. 3 
पनु० क्रि० क्रि० वि० 
चलत महि मृदुचरन अठून 2,8.,] सं. 5 

वारिजि वरन 

क्रि० क्रि० वि० अनु० 


3..2..2.2 पूर्णत. अपूर्ण वाक्य 


वे उपवावय जिनमें क्रिया उपस्थित न हो सर्वेथा अपूर्णों हैं। आलोच्य पुस्तक 


में इस प्रक्नार के वाक्यों की संख्या वावय एवं उपवाक्य दोतों ही स्तरों पर अत्यधिक 
है । इसका प्रमुख कारण कविता में छन्दाग्रह अथवा कहीं कहीं तुक के कारण क्रिया 
का लोप होना है । 


3.5] 


कुछ उदाह रण इस प्रकार हैं- 

इस प्रकार के कुल वाक्‍यों की संख्या 55 है 

छन भवन, छन बाहर बिलोकति पथ भूपर पाति के 3.7.3 

कर सर धनु कटि स्चिर निपंग 3.4. 

कियौ रवि सुवन मदन ऋतुपति, क्थिं हरि हरदेप बन'ए .65.3 
अवध नगर अ्रति सुन्दर बर सरिता के तीर 7.2.] 

तुलमी गलिन भीर, दरसत लगि लोग अठनि आरोहेँ 4.62.4 
दूलह राम सीय दुचही री .06. ] 

हृदय घाच मेरे पीर रघुवीर 6.5.] 

नभ तल कौतुक, लंका विलाप 5.6.7 

मतो नाथ सोई, जातें भल परिनामे 5.25.3 

सबको सासकु सब मैं, सब जामैं 5.25.2 

चारयो वेटा भले देव दसरथ राय के .67. 

ताते न तरनितें न सीरे सुधाकरहूनें |.87.3 

कैसे पितु मातु प्रिय परिजन भाई 2.40 4 

मातु माँसी बहिनहू तें सास ते अधिकाइ 7.34.4 

हम सी भूरि भागिनि नभ न छींनी 2.22.2 

वाक्यांश 

वाक्यांश शब्दों का ऐस' समूह है जे उपवाक्‍्य के समान पूर्ण न होते हुए भी 


कभी कभी एक उपवाक्य के व्याकरशिक कार्य को पूरा करता है- 
उदाहरणार्थ- 


वाक्य विचार 2]7 


चित्र विचित्र विविध मृग डोलत डोंगर डांग 2,47.2 
महामद अंध दसकंध न करत कान 5.24.2 
वध्याश की व्याकरशिक्त कोटि का निर्धारण उत्त शब्द की व्याकरशिक 
कोटि से किया जाता है जिपके द्वारा वाक्यांश के स्थान की पूर्ति की जाती है- 
यथा- 
दीन बंधु दीतदयाल देवर देखि अ्रति अकुलानि 7.28.4 देवर-तामिक 
3..3.] निकठस्थ अवयब के विचार से वाक्यांश के भेद- 
निकटस्थ अवयव-गठन की दृष्टि से प्रस्तुत ग्रंथ में निम्न भेई प्राप्त हुंए 
हैं- 
3.4,3..! शीर्ष विशेषक वाक्यांश- 
इन वाबयांशों में वह भाग शीर्ष कहलाता है जो अ्कैला ही पूरे वाक्यांश के 
व्य|करशिक कार्य को पूरा कर सक्के । इस क्रोदि के वाक्यांश नामिक, विशेष, क्रिया 
झौर क्रिया विशेषण का कार्य करते हैं । ः 
इन वाक्यांशों को संरचना के विचार से अच्तः केन्द्रक भावना चाहिए । 
3..3...] शीर्ष विशेषक चाधिक वाक्यांश 
इन वाकक्‍्यांशों में शीर्ष भाग न।मिक होता है। वाक्यांश के शेष शब्द उसी 
नामिक के विशेषक होते हैं। इन वाकक्‍्यांशों के निम्न भेद प्राप्त हुए हैं- 
3.4.3...].] द्विपदीस शीर्ष विशेषकु नासिक वाक्यांश 
इसके तिम्त प्रकार हो सकते हैं- 
3..3..]...] ग्रुणवाचक विशेषक युक्त 
यथा-रहिं चलिए सु दर रघुनायक 2.4.] 
श्रमिय वचन सुनाई मेटहि विरह ज्वाला जालु 5.3.] 
3..3....!.2-परिमाण वाचक विशेषक युवत- 
यथा-मेरे जान ! तात कछू दिव जीज 3.5.] 
रावरे पुण्य प्रताप अवल महू अलप दिवनि रियु दहिहँ 3.6.2 
9..3.....3-संख्या चाचक विशेषक्ष युक्त 
यथा-वैहि औसर सुत तीनि प्रगट भए मंगल मुद कल्यान .2.7 
बघू समेत कुसल सुत दूबे हैं 6.8.] 
3..3.... .4-सम्बन्ध वाचक विशेष युक्त 
यथा-क्नोसल राय के कुञ्न रोढा .62. 
भली भांति साहब तुलसी के चलिहेँ व्याहि वजाइक .70.9 
3..3...-.5-संक्त वाचक विशेषक्त युक्‍त- 
यथा-था सिसु के गुन नाम बड़ाई -6.] 
इन्हू सयवन्हि यहि भांति प्रोदपति निरखि हृदय आनन्द न समैहँ 5.50,4 


28 गीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 


3.].3.....6-प्रबर्धक विशेषक युदत- 

जैसे-तव की तुही जानति अबकी हां ही कहत 5.8- 

हों ही दसन तोरिबे लायक कहा कहाँ जो न आयसु पायो 6-4.4 

3..3...] ]-7-आदर सूचक विशेषक युकत- 

जैसे-गिरिजा जू पूजिवे को जानकी जू आई हैं .7-3 

राधौ जू श्री जावकी लोचन मिलिवे को मोद -7-4 

3..3,..--8-प्रकार सूचक विशेषक युकत- 

जैसे-तु दसक़ंठ भले कुल जायो 6-2-] 
3..3.]..].2-बहुपदीय शोर्ष विशेषक नासिक वाक्यांश 

इस कोटि के वाक्यांशों में एक से अधिक विशेषक होते हैं । ये विशेषक एक 
ही कार्य करने वाले भी हो सकते हैं और भिन्न-भिन्न काये करने वाले भी हो 
सकते हँ--- 
उदाहरणायथे -- 

प्रजाहु को कुटिल दुसह दह्मा दई है 2-34 2 

ध्वज पताक तोरन वितान वर विविध भांति बाजन वाजे 6.23.2 
3..3. [. .2-शीष॑ विशेषक क्लिया वाक्यांश 

इन वाक्‍्यांशों में क्रिय शीर्ष होती है ओर क्रियाविशेषण, निषेधात्मक तत्व 
आदि विशेषक होते हैं। प्रालोच्य ग्रन्थ में इसके निम्त उपभेद मिले हैं-- 
3.-3...2- [-द्विपदीय शीर्ष विशेषक क्रिया चारक््याश 

मे कई प्रकार के हो सकते हैं - 
3..3.-].2..] परिसाण वोधक विशेषके युक्त 

जैसे - मेरेजान इम्हे बोलिवे कारन चतुर जनक ठयो ठाठट इतौरी .77.3 


सुनु खल ! मैं तोहि बहुत बुकायों 6.4-] 
3..3...2..2 कारण बोधक विशेषक युक्त 
जैसे - कहा भो चढ़ाए चाप व्याह हज हैं बड़े खाए , 95.] 
तात ! विचारों घौं हों क्यों श्रावों 2.72.] 
3.3.],].2. 3-- विधि वाचक विशेषक युक्त 
जैसे-- पथिक पयादे जात पंकज से पाय हैं 2.28 | 
कैसे तु मातु क॑से ते प्रिय परिजन हैं 2-26.] 
3..3...2 . ].4--स्थान बाचक विशेषक युक्त 
यथा-- चौतनी च्ोलना क,छे सख्ि सोहें श्रागे पाछे ].74.] 
नख सिख प्रगति ठगौरी ठौर ठौर है .73.4 


3.,3...2.].5-- दिशा वाचक विशेषक युफ्त 
जुसे--जानों न कौन, कहां तें धीं आए 2.35.3 


वाक्य विचार 29 


आली ! काहु तो वूकौ न पथिक कहां थो सिये हैं. 2.37. 


3..3.[..2.4 .6,.--निघेध वाचक विशेषक युक्त 
जैसे--मोपें तौ न कछ हवे आई 6 6.[ 
मेरो कहयो मानि बांधे जिनि बेरें 3«27.3 
3.4.3.[..2.2---बहुपदीय शीर्ष विशेषक क्विया वाक्यांश 


नामिक वाकक्‍्यांशों की भाँति ही क्रिया वाक्याँश भी वहुपदीय हो सकता है । 
न पदों में क्रिया शीपे तथा झेष विशेषक होंगे -यथा-- 
भली भांति साहव तुलसी के चतलिहेँ व्याहि बजाइके .70.9 : 
रि चौंच चंगुल हय हृति रथ खंड खंड करि डारुयो 3.8.व 
3.4.3.[.].3 --झीब॑ विशेषज्ञ विशेषण वाक्ष्यांश 
इस कोटि के वाक्यांशों में विशेषण शीर्ष होता हैं और श्रन्य पद उसके 
विजेपक के रूप में होते हैं। आलोच्य ग्न्य में इस कोटि के वाक्यांश निम्नलिखित 
उपभेदों में मिले हैं-- 
3.4.3 ..3.]- परिमारझ वोधक विशेषक युक्त > 
यथा--भरतस सौगुतती सार करत है ब्रति प्रिय जानि तिहारे. 2.87.3 


प्रजाहू को कुटिल दइुसह दसा दई है 2.34.2 
3..3..4.3-2 - संल्या वाचक विशेषक युक्त 
यथा -- एके एक कहुत प्रगद एक प्रे मवस १.88.5 


पालागनि दुलहियति सिख्ावति सरिस सासु सत साता 3.| 0.2 
3.4.3...3.3--तुलतात्मक्ष विशेषक युक्त 


यथा - प्रेम हु के प्रेस रह कृपिन के घन हैं 2.26.4 
राम के सुलाभ सुत्र जीवन से जी के हैं 2,30.4 
3..3.]..3.4 -- श्रेष्ठत्व बोधक्त विशेषक युक्त 

मथा--स्ीय राम बड़े ही संकोच संग लई हैं 2,34-] 

मेरे मन नाने राउ निपट सयाने हैं .6!,4 

..3..].3.5 - संकेत धाचक विशेषक युक्त 

ये दोझ दप्तरथ के बारे .68.( 

ये अवधेस के सुत दौऊ .63.] 


3..3..].4--ज्ञोर्ष विशेषक्त क्विया विशेषण वाक्यांश 
इन वाक्‍्याशों में शीर्ष कोई क्रिया विशेषण पद रहता है और विशेषक प्रायः 
उसमें प्रवर्धद प्रकट करता है। 


अथा--कहों सो विपिन है धो क्रेतिक दूर 2.3.] 


प्् 


झालोच्य ग्रन्थ में इसके निम्न उपभेद मिले हैं-- 


220 गौतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययने 


3,.3,..4.] प्रवर्धक विशेषक युवत 
जैसे - तुव दरसन संदेस सुनि हरि को बहुत भई अबलंव प्रात की 5.].4 
समय समाज की ठवनि भलोी ठई है .96.2 
3.].3.]..4.2 सांबंध वाजाक विशेषक युवत 
यथा- मेरे एकौ हाथ न लागी 3.2.] 
मोप॑ तौ न कछु ह वे राई 6.6.] 
3.,3...4.3 स्थिति सूचक विशेषक युक्त 
धथा- यातें दिपरीत .अ्रनहितत की जानि लीवी .96:5 
जनक मुदित मन दृट्त पिनाक के .94.] 
3..3...4.4 स्थान सूचक विशेषक युक्त 
यथा- चित्र विचित्र विविध मृग डोलत डोंगर डाँग 2.47.]2 
सिरस सुमन सुकमार मनोहर बालक विध्य चढ़ाए 2.88.3 
3..3...4,5 समय सूचक विशेषक युक्त 
यथा- तेहि निसा तहं सत्र सृदन रहे विधिवस आई 7.34.3 
जो पहिले ही पिनाक जनक कहूँ गए सौंपि जिय जानि हैं .80.2 
3. .3.।.4.6 विधि सूचक विशेषक युक्त 
यथा- बहुत कहा कहि कहि समुझावों 2.72.व 
मधुप मराल मोर चातक ह वे लोचन बहु प्रकार धावहिंगे 5.0.2 
3 ].3.]..4.7 संकेत सुचक विशेषक युक्त 
यथा - रास गए श्रजहूँ हों जीवत समुभत हिय अकुलान 2.59.4 
तेहि औसर सुत तीन प्रगट भए मंगल मुद कल्यान .2.7 
3..3..2 अक्ष संबंध वाक्यांश 


. इन वाक्यांशों में दो अनिवर्य युक्तग्राम रहते हैं जिनमें से एक को अक्ष कहते 
उस युक्तग्राम में नामिक, विशेषण, या क्रिया विशेषण हो सकते है । दूसरा एक 
परसर्ग होता है; जो वाक्यांश को वाक्‍प के अन्य वाक्‍यांशों से सम्बदूघ करता है । 
इस कोटि के वाकक्‍्यांशों के तीन भेद प्राप्त हुए हैं - 

3 4.3..2.] अक्ष संबंध तामिक वाक्यांश 
उदाहरणाथे - 
क्है गाधिनंदव मुदित रधुनंदन सौ. .87.2 
, » वार कोटि सिर काटि साटि ल.ट रावन संकर प॑ लही 5.38-3 
ते तो राम लपन शअ्रवघ तें आए 2.39. 
3..3..2.2 ग्रक्ष संबंध चिशेषण वाक्यांश 


बावय विचार 325 


उदाहरणार्थ 
बृझत जनक नाथ ढोटा दोउ काके हैं ].64 । 
झाली ! काहू तो बूझौ व पथिक कहां घो सिघ है 2.37.] 
काहू सो काहु समाचार ऐसे पाए 288. 
3..3.,2.3 अ्क्ष संदांध क्विया विशेषर वावपांश 
उदाहरणार्थ - 
परसुराम से शूर सिरोमनि पल सें भए खेत के धोखे 5,2.3 
सखि ! तीके के निरक्लि कोऊ सुठि सुन्दर वढोही 2.9.] 
मन सें मंजु मनोरथ हो री .04.] 
3. .3..3 समावयवी वावयांश 
इस प्रकार के वाक्‍्यांशों में दो शीर्ष होते हैं और किसी संयोजक के दुवारा 
एक दृुपरे से संबद्ध रहते हैं- 
उद हरणा।र्थ- 
लगेइ रहत मेरे नैंनमि भाग राम लपन अरु सीता 2.53.2 
अति बल जल वरपत दोड लोचन, दिन पश्ररु रन रहत एकहि तक 5.9.2 
चल्यो नभ सुन राम कल कोरति अरु निज भाग बड़ाई 3.6.3 
3..3..4 शीर्ष विश्लेषक वाक्यांश 


इन वाक्यांशों में दो अनिवार्य युक्‍तग्राम होने हैं जिनमें से एक दूसरे का 
विश्लेषण करने वाला होता है. 


उदाहरणाथ्थे- 
ऐसे समय, समर संकट हीं तज्यों लपव सो आता 6.7.2 
गेहिनी गुव गेहिती गरुठ सुमिरि सोच समाहि 7.26.3 
रे कपि कुटिल ढोठ पसु पावंर मोहि दास ज्यों डाटन 
आयो 6.3.] 


3..3..5 संग्ुफित क्विया वाक्यांश 

इस प्रकार के व बयाँशों के अच्तर्गद संयुक्त काल रचना का अध्ययन किया 
जाता है। प्रस्तुत पुस्तक की संयुक्त काल रचना को इस प्रकार दिल्लाबा जा 
सकता है- 
संगुफित क्विया वावयांश 

+मूल : वातु) ऊ काल तत्व 


कप 


222 गीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 


सर 
नहिन हर रह लिये | हा | हों | 
न । हि | न-घातु | सक | + अचुरूपक | बचत 3: काल तत्व 
मत ६ चुक पुरुष क॑ 
मर क्किई 
ः ह॥ है ६5 घर या 5 


$९७०७०००५ ०००५ 2००० ३)७०७+ ४०३० 


न्म्न्न्ब 0७०३०००७०००००५००१० ००५०७ ७०५० ०७ *००० सेब 


निर्धारक तत्व के अन्तर्गत उन क्रियाओं को रखा गया है जो सातत्य, शक्यत्ता 
आदि का वोध करातो है। 

अनुहपक तत्व वे प्रत्यय हैं जो क्रिया के लिंग, वचन, पुरुष को कर्ता 
या कर्म के अनुरूप बनाते है । संगुकित किया सूत्र से अनेक सरल सूत्र बत 
सकते हें । 
यथा 
[. + मूल : (ध.तु) +काल तत्व (गए चल्यो) 

काल तत्व मध्यम पुष्प आ्राज्ञार्थक में नहीं लगता है । 


2... क॑ ! चातु । +निर्घारष्ठ : ! | + अनुरूपक : लिग | 


वचन 
पुरुष 
। 
न सहायक क्रिया दस | न+- काल तत्व 
उद्दाह रणार्थ- 
ठाड़े है लपव"***** ७०२%२७+९७३७ ०९०७७ ७५७७७ ७७++७ ७७७ ७७ ६७३७ ५०३७७ #०३१० ४७७ ०७५७०» 2, ) ४ 


लग 


घातु + निर्घारक +- | | + सहायक किया + | 





पुरुष वचन 
इसी प्रकार के अन्य उदाहरण हो सकते है- 


जब तें चित्रकूट ते आए 2.79.] अवलोौ मैं तोसों न कहे री 5.49.॥ 


प्रवर्सि हो ग्रयययु पाई रहौगो 2.77. प्रमुों मैं ढीठो बहुत दई हैं 2.78.॥ 
मतर्म संजु मनोरथ हो री .04.] 


नि. 3 जिनओ>--+% 


बोलीगत वेद्धित 


4 -गीतावलो में बोलीगत वैविध्य- 

साषा प्रयोग के आवार पर गोस्वामी तुलसीदास की रचनाओं को दो वर्गों मे 
विभक्त किया जा सकता है-- 

(।) अश्रवंधी की रचनाञ्रीं का वर्ग । 
(2) ब्रजभाषा को रचनाओं का वर्ग । 

अवधी की रचनाओं में रामचरितमान्स, रामहूला नह॒छू, वरवेरामाय्ण, 
पाबंतीमंगल, जानकीमंगल तथा रामाज्ञाप्रश्न अ ते हैं । 

ब्रजभाषा-वर्ग में कृष्ण गीतावली, कवितावलो, विनयपत्रिका, गीतावली, 
दोहावली त्था वैराग्य संदपनी को रखा गया है | 

डॉ० देवकीनन्दव श्रीवास्तव के अनुसार ब्रजमापा वर्ग की रचनाप्रों के दो 
उपवर्ग हैं। (]) पूर्वी ब्रजभाषा की रचनाओं का वर्ग - जिसमें कवितावली और 
श्रीकृष्ण गीतावली की गिना जा रुकता है तथा (2) पश्चिमों त्रजभाषा की रचताश्रों 
का वर्ग -जिसमें गीतावली, विनय पत्रिका, दोद्ावली झोर बैराग्य संदीपनी के नाम 
लिए जा सकते हैं | इसमें पूर्वी त्रजभाषा से भिश्व पश्चिमी ब्रजभाषा की समस्त 
विशेषताएं मिलती हैं | 

डा० घीरेन्द्र वर्मा: ने पश्चिमी ब्रजमापा की कुछ प्रवृत्तियों का उल्लेख इस 
प्रकार किया है-- 

“पूर्व कालिक कृदल्त के 'य' सहित रूप ज॑से 'चल्यो' या 'चल्यौ', 'व' लगाकर 
क्रियात्मक संज्ञा बनाना, जँसे 'चलियो,, 'ग' भविष्य ज॑से 'चलंगो', सहायक क्रिया के 
भूतकाल 'हो' आदि रूप, उत्तम पुरुष, एकवचन सर्वंताम हों, तथा प्श्ववाचक सर्व- 
नाम का 'को' रूप पश्चिसी ब्रजभापा-प्रदेश को कुछ विशेषत,एं हैं |” 

गीतावली के संदर्भ में उपयु क्त विशेषताएँ पुर्णछप से विद्यमान है। इसके 
अतिरिक्त गीतावली में अ्रन्य॒ बोलियों के प्रयोग भी मिलते हैं। भाषा-निश्कर्पों के 
प्राधार पर गीतावलो में प्रयुक्त त्रजभाषा के अतिरिक्त अन्य बोलोगत चैविध्पों को 
निम्नलिखित वर्गों मे विभाजित किया जा सकता है-- 





]. डॉ० देवकीनन्दन श्रीवास्तव : तुलस्नीदास की भाषा, पृष्ठ 362. 
2. डॉ० घीरेन्द्र वर्मा : त्जसापा व्याकरण, पृष्ठ 6, 


224 गीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 


4 [.]-संस्कृत के पद-प्रयोग- 

आ।लोच्य ग्रन्य में सस्कृत के शब्दों का प्रयोग बहुलता से मिलता है। कुछ 
प्रयोग उदाहरणीय है-- 

तनरुह | । 2, सुखसिधु सुकृत सीकर .].|, दस स्थंदन .2.6, कुकुम 
अगर अरगजा .2.6 अंबुद .7.3, दृष्टि दुष्ट ].]2.2, डिभ ..4, मति 
मृगनयनि -8.2, कुटिल ललित लटकन श्र, नीलनलिंव .23.2, कामधुक 
.22 9, हाटक मनि रत्न खचित रचित इन्द्र मदिराभ .25.2, षडंप्रि मंडली, 
रसभंग .25.5, जलज संपुट, भनुभवति .27.5-6, रूप करह व-29.2, दसरथ 
सुकृत विवृुध विरवा विलमत .30.4, पूप । 32.6, तमचुर मुखर, गत व्यलीक 
].36 2-], इं दिरावंद मंदिर .37.4, प्रीति व।पिकामराल .38.], वपुप वारिद 
बरपि .40.2, क्ृतकृत्य .48.3, रूज 4.53.2, लसति ललित .55.5, 
विदेहता ].64.2, नील पीत पाथोज .65.], ब्रह्म जीव .65.2, मधा जल 
.68.7, चलदल .69.3, कोदंडकला .74.2, हेनुवाद, जातुधान पत्ति 
.86.3 2, तुलभीस .87.4, अनुमवत, दीपक विहान .88.2-4, प्रलय पयोद 
].90.8, हुलसति .96.6, केलिशएह .07.3, मुख मयंक छवि 2.6.2, मधुप 
मृग विहग 2.7.3, श्रवति द्रोही 2.8.3, सोमा सिधु संभव 2.27.2, सींव 
4.34.], आलबाल 2:34.2, मलनिकदिनी लोक लोचना।मराम, जनकनंदिनी 
243,|-4. मदाकिनि तटनि तीर, मधुकर पिक वरहि मुखर 2.44.]-2, मज्जत 
2.46,2, क्दलि, कदब, सुचंपक, पाटल, पनस, रस्ताल, ललित लता द्वूम संकुल, 
मन।ज निकेत 2.47.4-9, भ्राजत 2.48.4, स्थाम तामरस 2.54 3, विष वारूनी 
बधु 2.6.2, हथ हृति 3.8.], पल्‍लव सालन. प्रान वललमा 3.0.2, पुण्य प्रताप 
पग्रनल 3.6.2; मव दधिनिधि 4.2.4, समीर सुत्त 5.2.], क्रोध विध्य, कलप्त भव 
5.5.2, वचन पियूप 5.6.6, सरिस 5.7.2, मोहजनित भ्रम, भेद बुद्ध 5.0.5, 
रसराज, पुटपाक 5.3.2, सौमित्रि बंधु करूतानिधि 5.7.।, सुर तिमेष 
सुस्नावक व्यन भार, दिग्गज क्मठ क्रोल 5.22.6-8, उपल केवट गीध सबरो संसूति 
समन 5.43.[, जातुधानेस आता 5.43.3, सिरसि जढटा कलाप, पानि स यक चाप, 
उरति रुविर बनमाल 5.47.2, रिपुघातक, कंदुक 6.3.2, गिरि कानन साखामृग 
6.7.3, व्वालावलि, मूपक्र 6.8. अंब अनुज गति. पवनज भरतादि 6.]3.5, 
खतद्योत निकर, श्र.जत, कुसुमित किंसुक तरु समूह 6 [6,2-3, अभिपेक, प्रभु प्रताप 
रवि ग्रहित अ्रमंगल प्रध उलुक तम 6.22.5-8, करूनारस अयन, सत कंज 
कानन, ब्रह्म मडलो घमुनीन्‍्द्र वुंद मध्य, इंदुबरन, चिद्रुक अश्रधर, द्विज रमाल , हृद 
पुडरीक, चंचरीक निव्यंलीक मानस ग्रह, 7.3., चंचला कल प, कनक निकर अलि, 
सज्जन चपभप॒निकेत, रूप, जलधि वपुप, मन गयंद 7-4.5, उरसि राजत पदिक 
7.5 6, गज़ मनि माल 7 6.4, राज राज मोलि, दिनमणि, कंबु कठ, कलिदजा 


बीलीगत वे विध्य 225 


7.7., झरूचिर चियुक रद ज्योति 7.0, कच मेचक कुटिल. चारू चिघुक, सुक तुड 
विनिदक भव त्ञासा 7.2, त्रपा 7.3.5, रोम राजि, चामीकर, रविसुत मदन 
सोम दूति 7.7, पाटीर, 7.8.2, लोहित पुर 7.20.3, असिधार ब्रत, सहस 
द्वादस पंचसत 7.25, पुत्रि, तव, देवसरि, प्रवाधि 7.32, मख 7.38.2 
4, ,2-४चनिक्ृत-पद -- 

संसक्षत शब्दों के समान ही ध्वनिकृत १दों की बहुलता भी गीतावली में 
मिलती है--कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं-- 

पाख (पक्ष), हुलास (उल्लास), गलानी (ग्लानि), जाचक (याच्क), 
उछाह (उत्साह), !.4, जागरव (जागरण), मुलिकामनि (सुलिका मश्णि) जंत्र 
(यंत्र), सिधि (सिद्धि), .5, भ्रथरवरणी (प्रथवंणी ), रच्छा ऋचा (रक्षाऋचा), .6 
दियो (दीपक), लाहु ( लाभ ) .0, ब्रासिरवाद ( आशीर्वाद ) !.], अवरस 
(अव्यमतस्क), ती ( तिय ) ,2, पखारि [ प्रक्षालित) ,7, बेरिया ( बेला ) 
सुरगैया ( सुरगाय न्‍ कामघेन ) .20, ऐत ( अयन ), मत (मयत्त) -35, कीटभारे 
( कैटभारि ), दारे ( विदरित ); भारे ( भारिल ) .38, सब्रुसालु ( शत्रुशालक ) 
.42. मुवालु ( भूपाल ) .42.4. पेखक ( श्रेक्षक ) .45.3 कीरति ( कीति ) 
.50.3., पानि ( पारिय ) , जग्य ( यज्ञ ) .52.2-6, कंघ ( स्केध ) .56.3 
आरोहै (आरोहरा) .62.4, उपबीति ( यज्ञोपवीत ) ,7.; भाग ( भाग्य ), 
खन (क्षण), सनेह (स्लेह), चित्रसार ( चित्रशाला ), ।.75, खयकारी ( क्षयकारी ) 
.09.4, अहिवात (अविधवात्व ) !,]0.2, जनम लाहु ( जन्म लाभ ) 2. 3, 
दुति ( दूयुति ) 2.5.3, निदुर ( विप्दुर ) 2.8.] प्रान कृषान ( प्राण कृपाण ) 
2..2, ग्रोऊ (ग्रुप्त), सुठि (सुष्ठि) 2.6, सोही ( शोभित ) 2,8.2, विछोही 
( वियोगी ) 2.9.2, लोनी ( लावप्य युक्त ) 2.22., छुर ( छल ) 2.32.व, 
अजीरन ( अजीरणं ) 2.32.3, अहेरी ( झ्राखेटक ) 2.42.[, विद्रयो ( विदीर्ण ) 
2,57.2, वांवी ( बाम ) 2.63., सारो ( सारिका ) 2-66., घाम ( धर्म ) 
2.68.3, तिवेरों (निर्बाह) 2-73.2, ढीठो (छुष्टता) 2.78., मसान (श्मशान) 
2.84,2, पोखि ( पोषण ) 2.87.2, परत ( पर्णा ) 2.89.4, प्रकति ( श्रकर्ण्य ) 
3.].4, अंबक्त (अम्ब) 3.7.3, भौन (भवन) 5.20.3, जाभति (जन्मति ) 
5.38.5, छति लाहु (क्षति लाभ) 6.5.2, गौने (गन) 7.3[.] 
4..3 - विदेशी भाषाओं के पद- 

आनोच्य माषा में केवल श्ररवी-फारसो शब्दों का ही प्रयोग मिला है , कुछ 
प्रयोग इस प्रकार है- 

बजार .2.5, खसम .67.3, नेवति !.00.], सुसाहिब 5.3.4, गरीब 
निवाज 5.29., जहाज, वाज 5.29.3, कप्तम 5-39,6, गनी गरीब 5.42., 


सीपर 6,5.4.- 


226 गीतावलो का भाषा शास्त्रीय अध्ययव 


4,.4 अच्य क्षेत्रीप भाषाओं के पद - 
गीतावली में यत्र-तत्र क्षेत्रीय म षाप्रों के पदों का प्रयोग भी भिलता है - 
यथा 
4..4.] गुजराती - सौंगी - सुनु खग कहत अंब्र मौंगी रहि 
समुझि प्रेम पथ न्‍्यारो - 2.66.5 --.-: 
4..4;2 राजस्थादी - पूछो -- पूजा मन कामना ,72.2 
सेलि - गाल मेलि मुद्विका 5..] - 
सारयो - लंकायुरी तिलक सार यो 7.38.7 
डॉ० श्रीदास्तव के अनुसार - 'ठोकि ठोकि खये' मुहावरा भी राजस्थानी के 
प्रभाव को व्यक्त करता छ्ठे यथा 
'कंदुक केलि कुसल हय चढ़ि चढ़ि मन कप्नि कसि ठोंकि ठोकि खये! 
.45.2 
4 ].5 हिन्दी की बोलियों तथा उपबोलियों के प्रयोग 
इसके अतर्गत अरदधी वुन्देलखंडी, भोजपुरी ओर खड़ी बोली के प्रयोग भी 
गीतावलो भें मिले हैं - 
4..5.] - अवधो - . डॉ० देवकोनन्दन श्रीवास्तव ने अवधी की कुछ प्रभुख 
प्रवत्तियां बताई है जिनका प्रयोग गीत,वली में मिला है जो इसप्त प्रकार है 
(क) प्रवची में संज्ञा के हस्व प्रकारान्त रूपों का बाहुल्य पाया जाता हैं । 
गीतावली में भी ऐसे प्रयोग देखने में आते है । यथ:- 


माला < माल .72.2, पताका < पताक 7.48.], 
ध्वजा < घ्वज 8.8. कोकिला < कोकिल 7.49.2, 
भौंरा < भौर 7.79.3, खंभा < खंभ 7.48.2, 


(ख) अवधी में विक्रारी वहुबचन रूपों के लिए “नह प्रत्यय मिलता है। 
गीतावली मे इस प्रत्यय का प्रयोग अत्यधिक है | यथा - 
जुबतिन्ह .3.4, वंदिन्ह .3.4, ग्राम बधुन्ह 2.24-4, रितुन्ह 7.2.2, भोलिन्ह 
7.22.2, सिसुन्ह 7.36.2 आदि" 

(व) अवधी में बहुत से नामिक व विशेषणों के अकारान्त रूपों को उकारान्त 
रूप में प्रयोग करने की परम्परा पाई जाती है | गीतावली में मी ऐसे प्रयोग मिलते 
हैं - यथा - 

अनुरागु, फागु 2.47-9, वेपु, दवेपु, सेपु, नरेपु-विसेपु, पेपु “ 7.9 


(घ) अवधी में भूत निश्चयार्थ क्रिगओं में - कतकिारक “ने का व्यवहार 
नहीं है - भोतावली में मी इस प्रवृत्ति का प्रयोग मिलता है - 
यधा - 


बोलीगत वैविध्य 227 


सुनी में सखि मंगल चाह सुहाई 2.89.] 
में सुनी बातें असेली 5,6.2 
श्रवलों मै तोसौं न कहे री 5.49.[ 
तें मेरो मरम कछु नहिं पायो 6.3.] 
में तोहि बहुत बुकायौं 6.4.] 


आदि 0040 %०९० 
(ड-) मूल धातु के साथ अन्त में 'ऐया' प्रत्यय जोड़कर अवधी में कतृवा- 
संक सेज्ञाएं बनाई जाती है गीताउलो में भी इम् प्रकार के प्रयोग मिले हैं यधा- 
उखरैया .85.3, लुटेया, सुनेया, अन्हवेया, वस्ीया. .9, देखवेया 2.37.2 
आदि 
(च) क्ियार्थक्ष संज्ञाओं के अवधी रूप गवतु, देन, करन, लेत आदि का 
व्यवहार भी गीतावलो में मिला है यथा 


विपिन गवन्‌ भले भूले को धुताजु भो 2.33,2 
पठई हैं विधि मग लोगन्दि सुख देन 2,24.3 
अमर द व रविकिरति ल्थाए करन जनु उनमेखु 7.9.3 


किज्रों विगार सुखमा सुप्रेम मिलि चले जग चित वितर्लेब 2.24.3 
(छ) प्रवद्दी में संयुक्त क्रियाग्नों का निर्माण कृुदन्तों के आधार पर होता है 
गीतावली में भी यह्‌ प्रदत्ति मिलती हैं - अथा - 


लगे सजन सेव 5.6.3 
लागी असीसन राम सीतहि 7.8.4 


मु हा चाही होन लगी .84.8 
(ज) भविष्य काल के ग्रधिक्रांग रूप अवबी में मूल घातु के साथ “ब प्रत्यय 


5 


के योग से बनते हैं - गीतावली में भी ऐसे प्रयोग मिले हैं - यधा- 


तात  जानिबे न ए दिन- 2.7:.2 
““ परम मुद मंगल लहिबो 5.4.3 
“*- देद्ियों बारि बिलोचनि बहियी 5.8+4.3 


(मम) छिय्रा के सामान्य वर्तेमात काल में केवल मूल धातु के व्यवहार को 
गी 


2 
ावलो में भी ऐसे प्रयोग मिलते 


(+ बाज 


प्रदर्चि भी अवबी की एक विज्येपता है यत्र-त्रत्र 
हैं, यया- 
जेहि राख राम राजीव नेन 2 48.5. वहुविधि बाज बब:ई ..5 
वरप पत्रव सुखदाई .55.4 लस मज़तित्रिंदु बदत विद्यु दीक़ोी .24.6 


०६ ६ 


अवबी द्षोत्र में प्रचलित कुछ दिश्वेय शब्दों का प्रयोग भी गीतावली में देखने 


228 गीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्येयर्न 


- स्याल £ ख्याल दली ताडुका, देखि ऋषि देत अतीस अझधघाई 4.55,6 

स्वांग ; जनपुरवीथिव बिहरत छेल संवारे स्वांग 2,47.2 

डोगर डांग; चित्र विचित्र विविध मृग डोलत डोंगर डांग 2.47.2 

गीतांवली में 'इया और “इयाँ” प्रत्यय के योग से बने हुए कुछ रूप ऐसे 
मिलते हैं जो विशेषतः लघुत्व का बोध कराने में प्रयुक्त हुए हैं और ये प्रवृत्ति ठेठ 
पूर्वी प्रयोगों से प्रभावित हैं - यथा- 

छोटी छोटी,गोडियां अग्रुरियां छुबीली छोटी, 

नख ज्यौति मोणे कमल दलनि पर, 

किकिनी कलित कटि हाटक जटित मनि, 

मंजु कर कंजनि पहु चियो रूचिर तर, .33 

यहाँ गोडियां, अंगुरियां, पहुचियां क्रमशः गोड, अंग्रुरी. पहुची शब्दों से बने 
है - इसी प्रकार पैजनियाँ, नथुनियां, और चौत्तनियां कृमशः पैजनी ॥ 34.2 
नथुनी | 34,3, और चौतनी  34,4 के स्थान पर ग्रयुक्त हैं - 

सर्ववाम के अन्तगंत अवधी के संबंध कारक रूप कुछ विशेष प्रकार वे” मिलते 
हैं यथा - मोर तो” आदि गीताघनी में भी ऐसे प्रयोग मिलते हैं, यथा- 

दुखवहु मोरे दास जनि मानेहु मोरि रजाइ 2-47.8 

हल 82828 8 उपमा कहूँ, न लहृति मति मोरी ].05 2 

तो तोरी करतूति मातु | सुनि प्रीति प्रतीति कहा ही. 2.64.3 

अ्वधी भाषा में प्रयुक्त 'जौताः सर्वेताम का प्रयोग भी गीतावली 

में हुआ हैं - यथा - 

तुम्हरे विरह भई गत जींत 5.20.] 

तुलसीक्ृत गीतावली में प्रयुक्त 'सब दिन” का प्रयोग पूर्वी क्षेत्रों से प्रभावित 
प्रयोग है - यथा- 

सब दिन चित्रकूट नीको लागत 2.50.] 
4.].5.2 - बुन्देल वण्डी- गीतावलो में कहीं कही बुन्देली प्रयोगों का व्यवहार भी 

देखने को मिला है - यथा - 

क्रियाप्रों के प्रन्तर्गत 'डारिवी' , “ करिवी' , 'पालबी” आ्रादि रूप बुन्देलो क्षेत्र 

के अन्तर्गत विशेष रूप से व्यवह त होते हैं जिनका प्रयोग गोौतावलो में भी मिला है- 


लपन लाल कृपाल । निपटहि डारिदी न विसारि 7.29.3 
तौलों वलि, श्रापुह्दो कीवी विनय समुक्ति सुधारि 7.29.] 
पालबी सब तापतनि ज्योँ राज घरम विचारि 7.29.3 


इसके अतिरिक्त ड' घ्वनि का 'र' में रूपास्तंर हो जाना भी बुन्देली प्रभाव 
का द्योतक है । गीतावली में ऐसे प्रयोग मिलते मैं ! लैशे- 


बोौलीगत व॑विध्य 229 


लर॒यो (लड्यो', खरो (खड़ा हुआ) आदि 


रामकाज खगराज आजु लरयो, जियत त जानकि त्यागी-.. 3.8.3 
अनुज दियो भरोसो, तौलों है सोचु खरो सो 3.0.3 
4.[ .5.3-भोजपुरी--- 
. प्रभु कोमल चित चलत न पारे/ 2.2.5 
में 'पारे! भोजपुरी क्षेत्र में व्यवहृत विशेष प्रयोग है।जो गीतावली में 
प्रयुक्त है-- 


- आदरार्थ मध्यम पुरुष वाचक सर्वताम रूप “राउर', “राबरी”, “रावरे', 
'रावरो' ग्रादि भोजपुरी रूपों का व्यवहार भी गीतावली में मिला है, यथा-- 


चित्रकूट पर 'राउर' जानि अधिक अनुराग 2,47,9 
मेरे विसेषि गति रावरी .43.3 
देखि मुनि रावरे पद ब्नाज ,49.] 
जप्त रावरों लाम ढोटिनहू .50.] 


4.].5.4-खड़ी बोली--गीतावली में यत्र-तत्र खड़ी वोली के प्रयोग भी मिलते हैं-- 
सर्वनामों के अन्तर्गत अन्य पुरुष एक वचत में खड़ी बोली का व्यापक एवं 
प्रचलित रूप 'वह' का प्रयोग गीतावली में मिलता हैं। यथा-- 
कब देखोगी नयन वह मधुर मुरति 5.47.] 
नहिं विसरति वह लगनि कान की 5..3 
खड़ी वोली में प्रयुक्त स्वेत्ताम-मेरी, मेरे, हमारे, तेरी, तेरे, तुम्हारी आदि 
का व्यवहार गीतावली में भिला है-- 


कहत हिय मेरी कठिनई लखि गई प्रीति लगाई 7.30.2 
हृदय घाव मेरे पीर रघुवीर 6.5.] 
एक कहै कछु होउ सफल सए जीवन जनम हमारे .68.2 
ताके अपमान तेरी वड़िए बड़ाई है 5,26.2 
होंहि विवेक विलोचन निरमल सुफल सुसीतल तेरे 7.42.] 


वेद विदित यह बानि तुम्हारी रघुपति सदा संत सुखदायक 2.3,2 
क्रिया रूपों के अ््तगंत देखो” 'करती है! ग्रादि विशुद्ध आधुनिक खड़ी बोली 
मं ब्यवहृत क्रिया रूपों का व्यवहार गीतावली में मिला है। यथा-- 
देखो रघुपति छवि अतुलित अति 7.47. 
करि ग्राई, करिहँ, करती हैं तुलसीदास दासति पर छा 7.]3.9 
इप्ती प्रकार 'रहिए' 'पूजिए' आए' तथा सहायक क्रिया हैं! आदि रूप भी 
खडी बोली से प्रभावित लगते हैं। बथा-- 
.. देखत ही रहिए नित ए, री .78.2 
देव पितर ग्रह पूजिए .74.2 


230 गीतावली का भाषा शास्त्रीय अ्रध्ययैन 


कहां तें आए हैं, को हैं 2.37. 
नामभिकों के तियंक रूप 'वधाए” 'चौके' आदि खड़ी बोली के रूपों का प्रयोग 
भी आलोचय ग्रन्थ में मिला है । यथा-- 


चित्र चारू चोंके रचीं लिखि नाम जनाए .6.7 
वाजत अवध गहागहे झआनद बधाए .6. 
आदि--- 


डॉ० घीरेन्द्र वर्मी ने ब्रजभाषा को तीन प्रमुख भागों में बांदा है--पूर्वी, 
पश्चिमी श्रौर दक्षिणी । मैंनपुरी, एटा, इटावा, बद्ायू, बरेली, पीलीभीत, फरुखा- 
बाद, शाहजहाँपुर, हरदोई श्रौर कानपुर की बोलियाँ पूर्वी ब्रज के अन्तर्गत आती हैं । 
इनमें भी शाहजहांपुर, हरदोई और कानपुर अवधी क्षेत्र के निकट हैं । अतः यहां पर 
अवधी रूपों का विशेष मिश्रण मिलता है। पीलीभीत और फरुखाबाद जिलों की 
बोलियों पर भी कहीं-कहीं अ्रवधी का प्रभाव पाया जाता है लेकिन मैनपुरी, एटा, 
इटावा, बदायू” और बरेली वाह्म प्रभाव से स्वतन्त्र हैं। 

मथुरा. आगरा, अलीगढ़ और बुलन्दशहर की बोली पश्चिमी अथवा केन्द्रीय 
ब्रज के अन्तगँत श्राती हैं इसे विशुद्ध त्रज भी कहा जा सकता है। 


भरतपुर, घौलपुर, करोली, पश्चिमी ग्वालियर और पूर्वी जयपुर की बोली 
पश्चिमी ब्रज से मिलती जुलती है किन्तु उसमें कुछ राजस्थानी के चिन्ह मिलने लगते 
हैं इसी कारण इसे दक्षिणी ब्रजभाषा कहा जाता है । 

गीतावली को पश्चिमी ब्रजभाषा के अन्तर्गत स्थान दिया जाता है परन्तु 
फिर भी भौगोलिक ०रिस्थितियों के कारण होने वाले रूपान्तरों के कारण गीतावली 
में त्रजभापा से अलग अन्य बोली रूपों का प्रयोग प्िलता है | इसके अतिरिक्त तुलसी 
के जीवन का श्रधिक्रांश भाग शायद देशाटन में बीता है। जहां विभिन्न प्रान्तीय, 
क्षेत्रीय भापा भाषियों, विभिन्न संप्रदाय एवं घर्मं के लोगों का जमघट रहता था इसी 
कारण उनकी भापा में अन्य बोली रूपों की व्याप्ति मिलती है। इन सब के अतिरिक्त 
तुलसी के ज्ञान की विशालता, व्यापक परिचय झादि भी इसमें सहायक रहे होगे । 
4.2-मुलाधार बोली- 


“ गीतावली में प्रयुक्त बोली रूपों के आधार पर निष्कर्ष यह निकलता है कि 
यद्यपि इसमें अनेक वोलियों के रूप मिले हैं परन्तु उस्तकी मूलाधार बोली ब्रज है जो 
विशुद्ध केन्द्रीय या पश्चिमी ब्रज के अन्तर्गत झाती है । 


यद्यपि गौतावली में न्ज के अतिरिक्त संस्कृत, अरवी, फारसी, गुजराती, 
राजस्थानी, अववी, वुन्देली, भोजपुरी पश्ौर खड़ो वोली के रूपों के प्रयोग मिले हैं 
लेकिन इन रूपों की प्रयोगावृत्तियाँ बहुत कम है। संस्कृत रूपों के प्रयोग तुलसी की 





- ]. डॉ. घीरेन्द्र वर्मा : ब्रजभाषा, पृष्ठ 35. 


बोलीगत वैविध्य 23] 


सभी रचनाओं में दिखाई देते हैं सम्भव है देववाणी की पवित्रता के प्रति अपनी श्रद्धा 
व्यक्त करने के लिए अथवा आदर की भावना से अथवा सांस्कृतिक आदान के कारण 
इन रूपों का प्रयोग तुलसी ने किया हो । 

अरबी, फारसी के पदों का प्रयोग भी तुलसी कौ सभी रचनाश्रों में सिला है 
जिसका कारण तुलसी का समन्वयात्मक दृष्टिकोण हो सकता है। अथवा सम्भव है 
कवि के रचनाकाल में ये जनभाषा के स्वाभाविक अंग रहे हों । गुजराती, राजस्थानी 
के रूपों का प्रयोग गीतावली में न्यूनतम है । 

हिन्दी की बोलियों तथा उपबोलियों के अन्तगेत तुलसी ने गीतावली में केवल 
अवधी, वुन्देली, भोजपुरी और खड़ी बोली के रूपों का ही प्रयोग किया है--सबसे 
अ्रध्िक प्रयोगावृत्तियाँ भ्रवधी रूपों को हैं। इसका कारण यह हैं कि तुलती का ब्रज 
के समान ही प्रवधी पर भी अ्रधिकार था अतः अवधी रूपों करा प्रयोग गीतावली में 
होना स्वाभाविक ही है। सम्भवतः यह उनकी अन्तश्वेदना का प्रतिफल हो जो 
उनकी जन्मभुमि या पोपण भूमि को इन्गित करता हो । 

तुलसी ने जहां अपनी ब्रज भाषा की रचनाओं में अवधी भाषा के प्रयोग किए 
हैं वहां श्रवधी की रचनाओं में न्नज के रूपों के प्रयोग भी वराबर किए हैं- 

भोजपुरी, बुन्देली झ्रादि के प्रयोगों का कारण क्षेत्रीय प्रभाव हो सकता है 
सकता है लेकिन इन रूपों की प्रयोगावृत्तियाँ बहुत कम है । 

अतः भाषा शः्त्रीय प्रध्ययन के झ्राधार पर यह स्पष्टतः कहा जा सकता है 
कि गोठावली ब्रजभापा की रचता है अथवा इसकी मूलाघार बोली ब्रज है। अन्य 
भाषाओं झौर बोलियों के प्रयोग इसके ही परिप्रेक्ष्य का प्रतिपल है। उनमें अपनी 
स्वतन्त्रता की बात नहीं है । वे सब ब्रज रूपों से या तो प्रभावित हैं या उसे सरल 
और रमणीय वंताने में सहायक । 


5.] उपसंहार - 


“तुलसी कृत गीतावली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन एवं वैज्ञानिक पद-पाठ' पर 

विस्तार से विचार के फलस्वरूप उसके विषय में निष्कर्षंतः निम्नलिखित बातें कहो 
जा सकती हैं- 
5..] अध्ययन में प्रयुक्त हस्तलिखित प्रति “'क' (जिसको प्रमाणित प्रति बना लिया 
गया है) में दप्त सत्र, छब्ब्रीस व्यंजन, दो भअर्वस्वर, श्रनुसवार, प्ननुनासिक, शब्द 
संधिक, सुरसरणिया और सुरसरणि परिवर्तक मिले हुैं-ऋ स्वर का प्रयोग कम है। 
ऋ के स्थान में (रे! का व्यवहार प्रचुर मात्रा में हुआ है । उच्चारण के स्तर पर तो 
ऋ है ही नहीं क्योंकि तुलसी से पूर्व प्राचीन ब्रज में लिखित पोथियों में भी 'रि' का 
व्यवहार “ऋ"” के स्थान पर मिलता है । लेकिन उप्तके मात्रा रूप (() का प्रयोग 
गीतावली में सवंत्र मिलता है । उच्चारण के स्तर पर “अ्र' केवल संयुक्त व्यंजनान्त 
शब्दों में ही शेष है-ऐसा अनुमान कर (जिसके लिए पर्याप्त कारण अध्ययन के वीच 
मौजूद हैं) शेष अकारान्त को व्यंजनांत माना गया है फिर भी उन्हें हलन्त के चिह्न 
से सूचित नहीं किया गया है। 

हमारे आलोच्य ग्रंथ में कुछ ध्वनि संबंधी परिवर्तन मिलते हैं जो सव्वेत्र नहीं 
दीख पड़ते हैं। निदर्शव बतौर कुछ परिवतेत इस प्रकार हैं- 

(।) मुक्ता के स्थान पर मुकुता 7.7.6 
मर्म और निश्चर के स्थान पर मरम और निसिचर 6.3. 
आदि-ये स्वर भक्ति के लोव का परिणाम है । 

(2) कहीं कहीं अ्ग्रागम के सहारे भी ध्वनि परिवर्तन हुआ है-यथा- 

नह॒ल,इके के स्थान पर अन्हृवाइके .0.] 

स्तुति के स्थान पर अस्तुति 7.38.9 
(3) कहीं कहीं संयुक्त अक्षरों में भी ध्वनि परिवर्तन मिले हैं- 

(क) क्ष का चउछ में रूपान्तर-यथा 


काकपक्ष के स्थान में काकपच्छ .60.2 
(ख) ग्य का ग में रूपान्त र-यथा 
'भूमितल भूष के बड़े भाग .29.] 


में भाग्य के स्थान में भाग का प्रयोग 
(ग) त्स का छ रूप में ग्रहरा भी कई स्थानों में मिला है जैसे-वत्स तथा 


उपसंहार 


(4) 


233 
उत्साह के स्थान में बछुरु तथा डछाह झ्ादि का प्रयोग 
बछरु छवीलो ].9,5 
अ्रनुदित उदय उछाह .4,4 


स्फुट रूप से भी कुछ. व्यंजनों में परिवरतंत मिले हैं- 


(क) मूर्ध-्य 'च' का अन्तस्थ ध्वनि 'य! में रूपान्त र-यया- 


लोचननि के स्थान पर लोयतवनि 2.37.,2 
बचती के स्थान पर बयती .8. 


(ख) 'ज' ध्वनिं का लोप-'राजा! के स्वाव पर 'राउ--जैप्ते- 


करत राउ मत मों अनुमान 2.59,] 


(ग) शा के स्थान में 'न का प्रयोग- 


प्राण के स्थान में प्रान-जैसे- 
बसति हृदय जोरी प्रिय परम प्रान की' 2.44.4 


(घ) “थ' तथा 'ध' के स्थान में 'ह का व्यवहार- 


नाथ के स्थान में नाह- 


समाचार मेरे नाह कहे री” 2,42.2 
ऋषधी के स्थान में कोही- 
'कौसिक से कोही वस किए दुृहु माई हैं' .7.2 


(8) “भा ध्वनि का हू में रूपान्तर- 


लाभ के स्थान पर लाहु-यथा- 
“'लोयननि लाहु देत जहाँ जहाँ जहैं' 2.37.2 
ये सब व्यंजन लोप के उदाहरण हैं। अल्पप्नाण के स्थान पर श्र्‌ति 


झागई हैे। 


[च) 'म! के स्थान में 'व का व्यवहार- 


गमन के स्थान में गवन-यथा- 
'तिन्‍्ह श्रवतनि बन गवन सुनति हों 2.4-3 


(छ) व का “ब' ध्वनि में रूपान्तर- 


दिव्य के स्थान में दिव्य-यथा- 
अहिल्या भई दिव्य देह .67.3 


(ज) य! का “ज' ध्वनि में रूपान्तर- 


योग्य, यग्य के स्थान में जोग, जग्य का प्रयोग- 

सुनिके जोग वियोग राम को हौ न होड मेरे प्यारे 2.63.2 
जग्योपवीत विचित्र हेममय .08.6 
यह मायघी वर्ग का प्रचलत बाहुल्‍व भौर क्नादान-प्रदान का फल 
प्रतीत होता है । 


234 भीतावली का भाषा शास्त्रीय प्रध्ययन 


हमारे कवि ने उक्त प्रन्थ में कहीं-ऋहीं एक ही पद का प्रयोग दो अ्र्थों में 
किया है जिसका निर्णाय वाक्य के स्तर पर ही होता है | यथा- 


झ्ुग- 
(7). अरझूत कंज महं जनु जुग पाति रुचिर गज मोति' 7.2.8 
(दो के अर्थ में) 


(2) जु्ग सम निमिप जांह रघुनंदन बदन कमल वितु देखे 2.4.4 
(युग के अर्थ में) 

जोग- 

(।) चनिंवे जोग वियोग राम को हीं न होउ मेरे प्यारि। 2.63.2 
(योग्य के अर्थ में) 

(2) “जो सुख जोग, जाग, जप श्ररु तीरथ तें दूरि' 7.2.23 
(योग के अ्रर्थ में ) 

तीर-एक कहै चित्रकूट निकट नदी के तीर परनकुटी करि बसे” 2.4].2 
(तट के अर्थ में) 


'एक तीर तकि हती ताड़का विद्या विप्र पढ़ाई .52.6 
(तीर के अर्थ में) 
बान-'पीत पत कटि तून बर कर लल्पि लघु धनु-बान' .4.,2 
(वाण के अर्थ में) 

'वान जातुधान पति भूप दीप सातह के! .86.2 
(वाणासुर के श्रर्थ में) 
विधि-'सखिन सहित तेहि औसर बिधि के संजोग' .7.3 
( विधाता के अर्थ में) 

तू जनम कौन विधि भरिहें! 2.60.4 


(तरीका के थ्र्थ में) 

हमारे विवेच्य ग्रन्य में प्रयुक्तःसभी स्वर पद की प्राथमिक, माध्यमिक और 
श्रन्तिम स्थितियों में मिलते हैं-सभी स्वरों में संस्वनात्मक वैविध्य भी मिला है- 
गीतावली में प्रयुक्त दो अ्रधंस्वर य और व है विभिन्न स्व॒रों के मध्य य' के चौवीस 
सयोग और “व' के सत्तरह सयोग मिले है अ्रनुनासिक स्वरों के साथ भी या और 
'व के क्रश: तीन और गझ्राठ संयोग मिलते हैं- 

स्वर संयोगों के अग्तगंत पैसठ प्रकार वे स्वर संयोग मिले हैं त्था उक्त ग्रन्थ 
की प्राक्षरिक सरचना के अन्तर्गत एक से पाच अक्षर तक के श्रयोग मिले हैं । 

अ लोच्य ग्रन्थ में अनुस्वार . श्रनुनासिकता दोनों के लिए अलग अलग संकेत 
हैं-सानुन सिर स्वर-स्वनिम पद के आदि, मध्य और अन्त सर्वत्र स्थित हैँ । केवल 


उपसंहॉर् - 235 


|ई। [६ ॥, [एँ, एऐ। । ।उ।, ऑन; श्रौर ।प्रीं। स्वर स्वनिम पद की आदि स्थिति _ 
में नहीं हैं- 

झालोच्य ग्रत्थ में दो- प्रकार के व्यंजत स्वतिम मिलते हैं खंडीय एवं खंडेतर । 
संडीय व्यंजन स्वनिम छब्बीस हैं सभी पद की प्राथमिक, माध्यमिक शोर अन्तिम 
स्थितियों में वशित हैं केवल ड़, ढ़, और रा प्राथमिक स्थिति में नही है । सभी स्व- 
निमों में संस्वनात्मक वैविध्य मिले हैं। गीतावली में प्रयुक्त न्ह,म्ह आदि को सुक्त 
व्यंजन रूप में स्वीकार किया गया है। संयुक्त व्यंजनों के अन्तगंत दो और तीन ब्यं 
जनों के संयोग मिले हैं | दो व्यंजवों के संयोग प्रायमिक स्थिति में अठ ठाईस, माध्य- 
विक स्थिति में तरेसठ है-तीन व्यंजनों के संयोग संख्या में झ्राठ हैं इस प्रकार कुल 
नित्यानवें व्यंजन संयोग मिलते हैं। खण्डेत्र स्वनिमों के अन्तर्गत विभाजक सुरप्त र- 
णियाँ और सुरसररिणि परिवर्तक मिलते हैं- 
3..2-आलोच्य ग्रन्थ में प्राप्त नामिकों के अन्तर्गत दो प्रकार के प्रातिपदिक 
मिले हैं-- 
(2) एक भाषिक इकाई वाले प्रातिपदिक 
(2) एक से अधिक भाषिक इकाई के योग से विभित प्रात्तिपदिक । 

एक भापषिक इकाई वाले प्रातिपदिक व्यंजनान्त और स्वरान्त दो प्रकार के 
हैं। स्वरान्त प्रातिपदिकों मे अकारान्त [संयुक्त व्यंजनान्त), श्राकारान्त, इकारास्त, 
ईकारान्त, उकारान्त, ओकारान्त और झौकारान्‍्त प्रातिपदिक मिले हैं । एकारान्त व 
ऐकारान्त ऋतिपदिक नहीं मिलि-कुल एक भाषिक इकाई वाले आतिपदिक संल्या में 
पच्दधरहू सो झद्ठावन हैं । प्रातिपदिकों में मुक्त-वविध्य, स्वरीभूतरूप एवं अवधारण 
बोधक रूप मिले हैं । है 

गीतावली में प्राप्त प्रातिपदिकों की कारक्ीय संरचना दो प्रक्नार की है () 
विभनक्ति मुलक संरचना, (2) चिह चक मूलक संरचना । 

विभक्ति मलक संरचना वियोगात्मक व संयोगात्मक दो प्रकार की हैं- 
वियोगात्मक संस्चना के अन्तर्गत पुल्लिग एवं स्त्रीलिंग दोनों रूपो में मूलरूप 
एकवचन में -0 रूपिम तथा मूलरूप बहुवचन में -0, -ए, ऐँ, -अन, -अ्रनि, -इन, 
-इन्ह श्रौर इयाँ रूपिम संग्रुक्त है । 

तिर्थक्र रूप एक वचन में दोसों लिगों में -0 रूपिम तथा -ए रूपिम मिला है 
-तिर्यक रूप बहव॒॑चन में पुल्लिय रूपों में -व्तंजवान्त में -अन, -अ्रति, आन्ह रूपिम 
आकाराल्त में -नि रूपिम, इकारान्त में -प्रति, “इन, -इन्ह रूपिम ईकारान्त में 
-इस, -इन्ह रूपिम उकारान्त में -उव, -उन्हं रूपिम मिले हैं-सभी रूपिस परसर्ग 
रहित व परसर्ग सहित दोनों रूपों के साथ संपुक्त 

स्‍्त्रीलिंग के तिवेक बहुबचन रूपों के अन्तर्गत व्यंजवान्त एवं अकारान्त में 
-प्रतमि झूपिम, इकारान्त में -इच्ह -इन्हि रूपिम,, उकारान्त व ऊकारान्त में 


236 गौतावली का भाषा शास्त्रीय प्रध्ययन 


-उत्त, और -उनन्‍्ह रूपिम मिले हैं जो परसर्ग रहित एवं परसर्ग सहित दोनों 
प्रकार के रूपों के साथ संयुक्त हैं । 
संयोगात्मक संरचना के अन्तगंत दोनों लिगों में संप, में -0 रूपिम 
संप८& न संप, में “| “उ, “ए, नऐ, -एँ. “हि: हिं भर -0 रूपिम 
संयुक्त हैं। संप३+-संप5 में -इ, -ए, -एं और -हि रूपिम मिले हैं 
संप& में -उ, -ऐ, -हि भौर -0 रूपिम संयुक्त हुए हैं । संप; में -ए, -ऐ, -हि”:हिं 
और -0 रूपिम संयुक्त हैं । 
गीतावली के संबोधन एक वचन के रूप तिर्यक रूप के एकबचन के रूपों के 
समान हैं । 
गीतावली में प्रयुक्त चिक्कक मूलक संरचना के अन्तर्गत संप, में कोई 
परसर्ग नहीं है। संप५+संप, में 'को, "कहें परसग, संप८+संप& में 'ते' 
ते, सो, सों, 'सेटर, 'सन! परसगं, संप& में 'कौ', कि, को, परसर्ग तथा 
संप; में 'पर', पं, महँ, 'माहि', माही, 'मे', 'भमौ', ओर 'सि”, परतसर्ग 
मिलते हैं-- 
इसके श्रतिरिक्त भ्न्य परसर्गीय पदावली प्रयुक्त है जिसके अन्तर्गंत परसगेवत 
प्रयुक्त प्रनेक रुप वर्णित हैं--- 
आलोच्य ग्रन्थ में प्राप्त दो रुपिमों के योग से निमित प्रातिपादिक संरचना 
की हृष्टि से तीन कोटियों में विभाजित हैं-. 
(4) बद्धपदग्राम-+ मुक्त पदग्राम 
(2) मुक्त पदग्राम + बद्धपदग्राम 
(3) मुक्त पदग्राम -- मुक्त पदग्राम 
वदघ+ मुक्त संरचना के श्रन्तर्गंत श्र-, भ्रन-; अनु-, अप-, श्रम्ि- पभा-, 
श्रौं-, उप-, कु-, दु-, नि-, निर-, प्र-; पर- परि- प्रति-, वि- स-, सम-, सन-, सु-, 
हु. श्र+ वि- और वि + भ्र- वद्घ रुपग्राम मिले हैं । 
मुक्त बदव संरचना के श्रन्तर्गत झा-, -अ्रनी “<-आ,्रानी, -भ्री “2-आरो, 
“आाई-, “इक “2 इका; -इन>-इनी, -इया“४-इयाँ, -ई, -ईन, -ऐया, -ऊटी, -ऊरी, 
नऔटा, -क, ना, -ज>“-जा, -ता, -द -प्राद, -आ्रात, -थि, -प, और -उप्रा, “:औआा 
बद्ध पदग्नामों के संयोग से मुक्त पदग्रामों की संरचना हुई है। 
मुक्त+मुक्त संरचना के शभ्रन्तर्गत नाभिक--नामिक, विशेषण-+- नामिक, 
नामिक + विशेषण भर नामिक-- क्रियः मिलकर नामिकों का निर्माण करते हैं -- 
5.3 -पआ्रालोच्य ग्रन्य में प्राप्त विशेषणों का अध्ययन तीन हृष्टियों से किया गया 
है--() संरचनात्मक, (2) अ्रयंगत, (3 ) भरकायेंग्रत। संरचना की हृष्टि से 
विज्लेपर पद दो वर्गों में विभाजित हैं, () श्रदपान्त रित, (2) रुपान्तरित । 


उपसंहारे 237 
अझुपास्तरित विशेषश अपने विशेष्य के लिग, वचन, कारक के अनुसार कोई 
विभक्ति प्रत्यय स्वीकार नहीं करते हैं ऐसे विशेषणों का अध्ययन प्रातिपदिक, लिग- 
विघान, वचनविघान, और कारकविधान की दृष्टि से किया गया है । 
वे विशेषण जो विशेष्य के लिग, वचन कारकानुसार प्रत्ययों को ग्रहग॒ए करते 
है, रूपान्तरित विशेषण हैं | आलोच्य पूस्तक में प्राप्त ऐसे विज्येपण मूलपदग्रामीय 
झ्यौर यौगिक पदग्रामीय दो वर्गो में विष्लेष्य है - 
मूलपदग्रामीय विशेषण संख्या से एक सौ अड॒तीस हैं जिनकी लिंग, वचन 
ओझऔर कारकीय स्थिति को निरखा-परखा गया है। यौगिक पदग्रामीय विशेषण तीन 
कोदियों में विभक्त हैं - 
() बद्घ पदग्राम +- मुक्त पदग्राम 
(2) मुक्त पदग्राम -न- बद्घ पदग्राम 
(3) मुक्तपदग्राम +मुक्त पदग्राम 
वबद्व + मुक्त संरचना के अन्तर्गत -श्र, अब, अनु श्रभि, उत, कु, दु“८दुर 
नि८४निर, प्र-४पर,““प्रति>४परि, वि, स““सम““सु, और अवबि बदध पदग्राम 
मिले है । 
मुक्त पदग्राम +- बद्ध पदग्नाम संरचना के अन्तगंत-अनीय, अई, -ईक , 
-ईन, -म्रानी, वाल, -आरी, -इनीं, -इक, -ऐत, -त, -द, न्‍वारी, -तर, -ल,4/लु, 
-ग, और तम“-तमा बद्घपद्ग्राम संयुक्त हुए हैं। 
मुक्तपदग्राम + मुक्त पदग्राम संरचना के अन्तर्गत नामिक+ नार्मिक, नामिक 
+ क्रिया, नामिक +-विशेषरा, विशेषण +- विशेषण तथा विशेषण -वामिक 
मिलकर विशेषपरों का निर्माण करते है । 
विशेषणों का दूसरा वर्गीकरण अर्थ के आ्राधार पर है इसके श्रन्तर्गत 
विशेपषणों के दो वर्ग मिले हैं। () सावंबरामिक विशेषण जो दो प्रकार के है - 
() वे सर्वंताम जो नामिकों के पूर्व आने के कारण विशेषण हो गए हैं- उनका 
अबव्ययन सर्वेनाम के साथ हुआ है, (2) दूसरे प्रकार के वे सार्वतामक विशेषण 
जो मूल सवनामों में श्रन्य त्रत्यय लगाकर बने हैं - ऐसे विशेषण तीन प्रकार के 


मिले हैं। () रीतिवाचक सार्वेतरामिक विशेषण, (2) परिमाण वबाचक 
सार्वतामिक विशेपण, (3) सख्यावाचक सार्वतामिक विशेषण । 

थ्र्थ के भ्रावार पर प्राप्त दूसरे विशेषण सौख्या वाचक हैं जो तीन प्रकार 
से वर्गक्वित हैं - (! ) निश्चित संख्यावाचक्त - जो पूरा, भ्रपूर्ण, क्रम, आवत्ति 
प्लौर समुदाय - पाँच भेदों के अन्तर्गत वर्गक्षित हैं, (2) अनिश्चित संख्यावाचक, 
(3) परिमाण वाचक । 

विशेपरणों का तीसरा वर्गीकरण प्रकार्यंगत है जिसमें विश्लेपणों का अध्ययन 
उनके कार्यों के आधार पर वणित है | गीतावली में विशेषणों के लघु एबं दीघे 
रूप, अवधारण के लिए प्रयुक्त रूप एवं विशेषणों में तुलना भी देखी गई है। 


248 गीतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 


5.[.4 वक्त ग्रन्थ में प्रयुक्त सर्वताम-() पुरुष वाचक (उत्तम पुरुष, 
मध्यम पुरुष), (2) निश्चय वाचक (निकटवर्ती, दूरवर्ती), (3) अभिश्चय वाचक 
(हारखिवाचक, अ्रप्नाशिवाचक), (4) प्रश्ववाचक ( प्राणिवाचक, श्रप्राशिवाचक), 
(5) संबंध वाचक, (6) निजवाचक, (7) आदर वाचक, (8) समुदाय वाचक, 
(9) नित्य संबंधी और (0) संयुक्त स्वत्ताम हैं । 

5.4.5 हमारे कवि के उक्त ग्रन्थ में प्रयुक्त घातुएं दो प्रकार की मिलवी 
हैं-() मूल धातु जो संख्या में कुल दो सौ तिरासी हैं और दो भागों में विभक्त है- 
(क्र) स्वरान्त-जिनकी कुल संख्या इक्तीस हैं और सभी लगभग एकाक्षरी है केवल 
एक-दो बातुएं दृयक्षरी हैं। (ख) व्यंजनासत घातुएं संख्या में दो-सौवावन है जो 
एकक्षरी और दयक्षरी दोनों प्रकार की मिलती हैं । 

(2) यौगिक घातुए दीन वर्गों में विभ।जित हैं- 

(क) सोपसर्गिक घातुए जो सख्या में एक सो तेईस हैं। (ख) नाम धातुएं 
जिसमें नामिक व विशेषण पदों का प्रयोग घ'तु रूप में मिला है ऐसी धातुएं संख्या 
में बासठ मिलो हैं। (ग) अनुकरणपमूलक घातुएं-जो एक ही धातु को दोहेराकर 
प्रयुक्त हुई है ऐसी धातुएं केवल ग्यारह है । 

ग्रालोच्य ग्रन्थ में कत्‌ वाच्य प्रौर च्यू के रूप मिलते हे एवं प्र रणा- 
थक के प्रयो" भी प्रयुक्त हैँ । 

गीतावली में प्रयुक्त सहायक क्रियाओ्रों को दो वर्गों में रखा गया है- 
() एक तो वे सहायक क्रियादु जो मुख्य क्रिया पदों के साथ प्रयुक्त हैं और (2) 
इूसरी वे जो मुख्य क्रिया के समान प्रयुक्त हैँ। दोनों प्रकार की क्रियाड्रों के रूप 
समान है केवल प्रयोग अलग हैं 

उपरोक्त ग्रन्ध में वर्तेमात काल में प्रयुक्त सहायक क्रिय।एं हौं', हो, 'है 
सके, होइ', है', गहै', 'रहे', होता, रहता, और 'होति! है-वतमान 
संभावनाथ में 'होय', 'होइ' होहि', 'होउ', 'होह', और 'होही' है-भूतकाल में 
प्रयुक्त सद्व/यक ककियाएं 'हुतो', भया', 'भे', 'भो', 'भौ', हुते', 'भए, भद, 
'हही, और 'भई, है भूत संभावना में 'होती', होते, सहायक क्रियाएं हैँ तथा 
भविष्य निश्चयार्थ में 'हवेही', हव॑है', होंहि', 'होइहै', 'होइगेफ, और “हाइगी' 
सहायक क्रियाएं बयुक्त हैं जो कि मुख्य क्रिया के साथ ही मिलकर लिवी गई है। 
मख्य क्रिया के समान प्रयुक्त सहायक क्रियाएं ही, हुतों, है, हा, भा, भा, 
भयो, नियो, भें, भये', मई, भई, 'भई”, 'रहि, रही, ओर “रहो! 
हँ-सभी अलग-प्रलग पुरुषों के साथ अलग-अलग कालों मे प्रयुक्त हे । 

आालोच्य ग्रन्य में बतंमानकालिक, तात्कालिक, अपूर्ण क्रिया दयोतक, 
भूतकालिक, क्रिप्रार्थक संज्ञा, पूर्वक/लिक श्रोर कतू वाचक संज्ञा आदि कृदन्तो का 
ध्यवहार हुआ्ना है। वर्तमान क्ालिक, तात्कालिक तथा अपुर्ण लिया दुबोतक इदन्त 


उपसंहार 239 


के लिए -अ्रत्‌ रूपिम का प्रयोग हुआ है और उसके बाद लिंग वचनादि को 
दुयोतित करते वाले रूपिम -0, -इ>2ई तथा अवधारणश बोधक रूप हु: 
हू: हिःही आदि का व्यवहार हग्मा है। भूतकालिक क्ृदनत के लिए-0, 
“ई) “ई, -ए, ज्यों, -भ्रादि रूपिमों का प्रयोग हुआ है । क्रिपार्थक संज्ञा 
फे लिए प्रयुक्त रूपिम-अन, -[आ) वे, -[प्रो बो, -ए, -ओ्रो, -म्र)क, 
>प्राउ और 0 है-कद्ठीं कहीं-अत्‌ आदि प्रत्ययों के पश्चात्‌ भी रूपिम 
संयुक्त हुए है । 

पूर्वकालिक क्रिया के रूप दो प्रक्तार से प्रयुक्त हँ-() घातु+रूषिम (2) 
पातु + रलूपिस+ के आदि परसर्ग युक्त क्रियारूप जिनका श्रध्ययन संयुक्त क्रिया प्रों के 
साथ हुआ हैं- 

पूर्वकालिक क्रिया के लिए घातु के साथ प्रयुक्त होने वाले रूपिम -३८:८ई, 
-ए, नप्रौ, -0 हैं। 

कतृ वाचक संज्ञा के लिए -अ्रन, -हर -धर, -ऐया आदि रूपिम 
संयुक्त हैं-कहीं-कहीं इन रूपिमों के पश्चात्‌ अन्य रूपिम भी संयुक्त हुए हैं । 

आलोच्य ग्रन्थ की काल रचना तीन वर्गों में विभक्त है। (।) क्ृदन्त 
काल, (2) मूल काल, (3) संयुक्त काल । क़दन्त काल वे हैं जिनकी रचना 
कृदनतों से हुई है इनके अन्त्गत-(!) वतंधान, (2) भूतकाल-दो काल 
आते हैं । 

वर्तमान काल के अन्तर्गत उत्तम, मध्यम और अन्य पुरुष के लिए-|[श्रत्‌] 
रूण्मि संयुक्त हैं-स्त्रीलिग के रूपों में-अत्‌ के पश्चात्‌ इय', ई रूपिम और 
लगे हँ-भूतकाल (निश्चयार्थ) के लिए प्रयुक्त होते वाले रूपिम-सभी प्रृपों में 
-9 2 ,चत्रो, -ए और स्व्रीलिंग में-इ०४ई हैँ । भूत संभावनाथ के रूपिस 
-अ्रतू, -अत्‌ + प्रो, -ओ, -ए, -और-ई हैं । 

मूलकाल के रूप न तो कृदन्तों से बने हैं न सहायक क्रिया के योग से-इसी 
कारण इन्हें मूलकाल की संज्ञा दो गई है इसके अच्तर्गत वतंमान, श्राज्ञा्थ और 
भविष्यत काल आते हँ-वर्तमान काल के रूपों में पुर और वचन का अन्तर तो 
मिलता है परन्तु लिंग का नहीं-दोतवों लियों में समान रूप प्रयुक्त हैं-वर्तमान 
निश्चयार्थ में प्रयुक्त होने वाले प्रत्यय- ४2, -उँ“अहुँ, -प्रौ -ऐ, -इ००ई, 
-उ, -ऐ और “>अश्रहि““ग्रही है-वर्तमान संभावनार्थ में -श्रहि और -ऐ 
रूपिम मिलते हैं-आज्ञार्थ में संयुक्त होने वःले रूपिम मध्यम पुरुष में-, -इ, 
-प्रहिं, “अरहु, “इये, "इये, -इथो, >उ“”ऊ, >ऐ, -श्रौ, -इबी, “इवे,- 
इब्रो, -श्ौर-एहु हैं । उत्तम पुरुष प्राज्ञर्थ में -प्लौ और अन्य पुरुष आाज्ञ,र्थे 
में-ऐ, -अहु, -औ्रौ तथा -#2 रूषिए संयुक्त हुए हैं- 

भविष्य काल के रूप तीन प्रकार के हैँ। 'ह वाले रूप, 'ब' वाले रूप और 


242 गौतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययत 


) शी विदेषक वाक्यांश । 
2) अक्ष संबंध वाक्यांश । 

3) समावयवी वाक्यांश । 

4) शीएं विश्लेपक वाक्यांश । 
(5) संग्रुफित क्रिया वाक्याँश । 


न नीाओ, अय5 हॉ 


गीत'वली में कुछ ऐसे विशिष्ट पद प्रयोग भी मिलते हैं जो कहीं स्वेगाम- 
बत्‌ प्रयुक्त है, कही वि्लेषण का कार्य करते हैं और ब्हीं समुच्चय-बोधकवत 
व्यवहृत हैं-यथ'-लखी झ्ौ लखाई, इहाँ किए सुभ सा्ैं 5.25 3 हिय ही और, ओर 
कीन्हीं विधि, राम कृपा और ठती 5.39.2 दिन दस और दुमह दुख सहिबों 
5 ]4.] 

यहां ग्रौर' एद प्रथम वावय में संयोजक, दूसरे वाक्य में अनिष्चियय वाचक 
सर्वेनाम तथा तृतोय वाक्य में सार्वतामिक विजेषशवत्त्‌ व्यवहृत है-- 


5.].9 गीतावली में कुछ बोलीगत रजिस्टर भी मिले है इनके आधार पर 
तुलसी की समस्त रचनाए दो वर्गो में विभक्त की जा सकती हैं ( ) अबधी की 
रचनाओं का वर्ग (2) बच भाष। की रचताओरों का वर्ग । गीतावली क्लो पश्चिमी 
ब्रज मापा वर्ग की रखनाओं में स्थान दिया जा सक्तता है | भाषा रिष्कर्षो के 
आधार पर गीतावली में प्रयुक्त ब्र+/ भापा के अतिरिक्त अ्रन्य खोली गत बविध्य 
मिलते हैं-(।) गीतावली में संस्कृत के पदों का व्यवहार चहुलता से मिला है 
(2) विदेशी भ पा-(क्ेब्ल अरबी, फारसी) के पदों के प्रणोग मिलते है, (3) अन्य 
क्षेत्रीय भःपाश्रो के पद-जिनमें गुजराती और राजस्थानी प्रयोग मिले हैं-(4) हिन्दी 
की बोलियों तथा उपबोलियों के प्रयोग जिसके अन्तर्गत अवधी बुन्देल-खंड़ी 
भोज्पुरी और छड़ी बोली के प्रयोग हैं । 


3..0 इन बोलीगत रजिस्टरों के आघार पर यह कहा जा सकता है कि 
गीतावली की भापा जज है और इसका वेविध्य युगवोघ एवं भौगोलिक कारणों से 
है । हमारे कवि और उसम्नी रचनाओं का संयक विभिन्‍न प्रान्तीय, क्षेत्रीय भाषियों, 
विशभिन्‍त संप्रदाय एवं घर्म के लोगों से बना रहने के क ररा, प्रस्तु* ग्रन्थ की भाषा 
भी धन्य प्रादेशिक बोलिएं के प्रभाव से मृक्तत॒ रह सकी लेकिन दक्त ग्रन्थ की 
मृलाध र वोली ब्रज है और अन्य क्षेत्रीय बोलियों के रजिस्टर ने उसको समर्थ एवं 
संवेद-ीय बनाकर उसमे झ्रपिव्यक्ति और भाषा के एक नए अ्रयाम का सयोग किया 
है जो नर्वाग में स्युत्ण एवं अनुक्र्णीण है। इस अध्ययन के आधार पर कवि का 
भाषा एवं रचना ज्ञान स्प्प्ट होना है तथा उससे संबंधित अनेक विवादों का समाधान 
मिलता है । 


सहायक प्र थानुक्रमणिका 


अशोक केलकर : स्टडीज इन हिन्दी-उद्ू (इकक्‍्क्त कौलेज पूना सन्‌ 968ई. 

अकॉविल्ड हिल ४ एवं इन्ट्रोडक्शन टू लिग्विस्टिक स्टुकचर्स फ्रीम साउन्ड 
टू सेल्टेन्स इत इगजिश, (न्यूयाके, सन्‌ 958 ई.) 

ई. ए. नाइडा ४ मौरफौलोजीद डेस्क्रिप्टिव एनेलिसिस, (यूनीवसिटी औफ 
मिशिगन प्रेस, (सन्‌ !949 ई.) 

एडवर्ड सपीर : एलेंग्वेजः एन इन्ट्रोडक शन टू द स्टडी आफ स्पीच 


(स्यूयार्क सन्‌ 92] ई.) 
एसयर्सन, वेसिल ब्लेक बेल : ग्रोथ एण्ड स्ट्क्चर औफ द इगलिश लेंग्वेज (्रोक्सफोड्ड, 


सत्‌ 938 ई.) 

डॉ. उदयनतारायण तिवारी : हिन्दीभाषा का उद्गम श्लौर विकास (लीडर प्रेस, प्रयाग, 
स. 20[8 वि०) 

डॉ. उदयनारायण तिवारी : भाषाशास्त्र की रूप रेखा, (लीडर प्रेस, प्रयाग, सं. 
2020 वि.) 

आ्रॉटो जेस्पर्सेन ४ एमोडरने इंगलिश प्रामर ऑन हिस्टोरिकल पिंसपल्सपार्ट 
दिवतीय (लंदन एण्ड कापेव, हेगन सन्‌ 9]3 ई. ) 

ग्रॉठो जेस्पर्सव : लेंग्वेज: इट्सः नेचर डेवलपमेंट एण्ड ओरिजिन (लंदन 
एलीन, एण्ड अनविन सत्‌ 927 ई.) 

आवेनय वार फील्ड : हिस्टी इन इगलिश वर्ड स, (फावर, सन्‌ 962 ई. ) 

पं. कामताप्रस'द गुरू : हिन्दी व्याकरण, (ना०प्र०स० वाराणसी, सं. 2027वि. 


पं, क्रिशो रीदास वाजपेई : हिन्दी शब्दानुशासन, (ना०प्र०स० काशी, सं.2023वि. ) 

डॉ. कैलाश चन्द्र भाटिया : ब्रजभाषा और खड़ी योली का तुलनात्मक अध्ययन 
(सरस्वती पुस्तक सदन आगरा, सन्‌ 962 ई.) 

डॉ. कैलाश चर्द्र भाटिया : हिन्दी भाषा में अज्ञलर तया शब्द की सीमा, (काशी ना० 
प्र० स० वाराणसी, सं. 2027 वि.) 

डॉ, कैलाश चन्द्र भादिया : हिन्दी में झंग्र जी के ग्रागत शब्दों का भाषा तात्विक विवे- 
चन (हि. ए. इलाहाबाद, सन्‌ 967ई.) 

डॉ. कैल शचन्द्र अग्रवाल : शेखावादी वोली का वर्णावात्मक अव्ययन, (वि-वि.हि.प्र. 
लखनऊ, सच्‌ 964 ई.) 


2 


के. एल पाइक 


के. एल.पाइक 

ग्रियसंन (भ्रनृवादक) 
निमंलाशर्मा,सु रेन्द्रवर्मा 
गीतावली 

गेंदालाल शर्मा 

डॉ. गोलोक विहारी धल' 


एच. एस' कंलांग 


चाल्से फ्रान्सिस होकेट 


एच. ए. ग्लीसन 
चेंद्रावली पांडेय 
डॉ. चंद्रभान रावत 
डॉ. छोटेलाल शर्मा 


डॉ. जनादंनसिंह 


जान वीम्स 


गीतावली का साथा शास्त्रीय प्रध्ययन 


* फोनेटिक्स: ए क्रिटिकल एनेलेसिस ऑफ फोनेटिक थ्योरी 


एण्ड ए टैकवीक फोर द प्रैक्टिकल डेस्क्रिप्न ऑफ 
साउन्ड्स (यूवीवर्सिटी श्रॉफ मिशिगन प्रेस,सं.]943ई.) 


: फोनेमिक्स: ए टैकनीक फौर रिश्ष्यूसिंग लेंगूरेज टूराइ- 


टिग, ( यूनीवर्सीटी श्रॉफ मिशिगन प्रेस, सन्‌ 947 ई.) 


: भारत का भाषा सर्वेक्षण (भाग 9) 


: हिन्दी समिति ( लखनऊ, सन्‌ 967 ई.) 
: गीताप्रेस गोरखपुर; ना० प्र० स०. वाराणसी; नवल- 


किशोर प्रंस, लखनऊ; खंग विलास प्रेस, वॉँकीपुर; 
सरस्वती भंडार, पटना 


: ब्रजभाषा और खड़ी बोली का तुलनात्मक अव्यग्रन, 


(प्रकाशन प्रतिष्ठान, मेरठ, सन्‌ ॥965 ई.) 


: ध्वनि विज्ञान, (प्रंम बुकडिपो हास्पिटल रोड आगरा, 


सन्‌ 958 ई.) 


: ग्राभर आफ दि हिन्दी लेंग्वेज, (केगन पाल टेच प्रकाशन 


ट्वनर एंड कम्पनी लिमिटेड ज्राडवे हाउस 68-74 
कां्टर लेन ई. सी. 4 सन्‌ 938 ई.) 


: ए कोसे इन मौडर्न लिग्विस्टिक्स, ( श्रावस फोर्ड एण्ड, 


आई. वी. एच.पब्लिशिग कं. प्यू देहली, कलकत्ता, वंवई, 
सन्‌ 964 ई.) 


: एन इंट्रोडक्शन टू डैश्क्रिप्टिव लिग्विस्टिक्स, ( बोल्ट 


रिनेहार्ट एण्ड न्यूयॉर्क, सन्‌ 96]ई. ) 


: तुलसीदास, (ना. प्र. स. वाराणसो, स. 204 वि.) 
मथुरा जिले की बोली, (हि.ए-इलाहावाद, सं. 967.) 
: संस्क्रत साहित्य शास्त्र और महाकवि तुल्नसीदास, (राज- 


स्थान वि. वि., सन्‌ 963 ई.) 


: तुलली की भाषा (सा० सं० 06/54 गाँवीनगर, 


कानपुर-] 2सन्‌ 976 ई०) 


४: ए कम्पेरेटिव ग्रामर आफ द मॉडंन अ्रायंन लैग्वेज 


आफ इन्डिया, भाग-2 (उल्लेखों के श्राधार पर लंदन 
सन्‌ 4875 ई०) 





#०॥ जह। सन्पेडओ।  हाट 
ड]० प्र मदारायरणु व्डन 


डॉ० बावूराम सकक्‍येता 








न्‍रीवास्तव 


बकीनंदन श्रीवास्त तलतादास 


5 - 


जल लिच्वि स्टिक्स मिज्ानों दनी सदी 


लिखिस्टिक थ्योरी, (ऑ्रौक्स फोर्ड, 





पु ती,(ना०५०स०, काशी, सन्‌ [955ई०) 

: हिन्दी मापा और भापषिकी, (लक्ष्मीनारायर अग्रवाल, 
ख्रागरा, प्र०संग, सदन [964 ) 

की भाषा, (लखनऊ विश्वविद्यालय, सं० 
204 बि०) 

: हिन्दी भापा का इतिहास, (हि० ए० इलाहाबाद, सन्‌ 
]954 ई० ) 

: ब्रजभाषा-व्याक रण, हि०ए० इलाहाबाद, रन 954ई० 

एन आउदड लाइव झौक इग्लि 


सन्‌ 94 छः ) 


फोनंटिक्स, (स्वृग्गके, 


सूर की भाषा, (हिन्दी साहित्य भंडार, गयाप्रसाद रोड, 
लखनऊ, सन्‌ [957 ई०) 
ल्यूगन ऑफ अवधी, (३० प्रे० लिमि० इलाहाबाद 
सन्‌ 4937 ई०) 
: संस्कृत व्याकरण प्रवेशिका, (रामनाराबशलाल इलाहा- 


बाद, सन्‌ 965 ई० ) 
० [993 बि० 


पु रित फ्नि को सम ननथ 
गांसाई चरित, गीता प्र स, स॑ 


मूल 
: आउट लाइन ग्रॉक लिब्विस्टिक, ऐनेलेसिस (स्पेशल 


पब्लिकेशन्स ब्रॉक द लिन्विस्टिक सोसाइटी श्रौफ शब्ममे- 
रिका, सन्‌ 942 ई० ) 
: कवी र काब्य का भाषा गास्वीय अब्य 
(दिल्ली-6, सं. 2020 वि. 


अ ० प७ हा० 


भारतीय मभापषा-बिज्ञान की भूमिका, ने प.हा. दिल्‍ली-6 


सन्‌ [972 ई. 


: संस्कृत का भाषा शास्त्रीय अच्ययर, (भारतीय ज्ञानपीठ 
प्रकाशन, कायी, सन्‌ 4966 ई.) 


भद्रदत्त ज्ञास्वी 

भागोरथप्रसाद दोक्षित 
डॉ० माताप्रसाद गुप्त 
डॉ० माताप्रसाद युप्त 


डॉ० माताप्रसाद गुप्त 


गभौतावली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन 


: तुलसी संबंधी प्राचीन ग्रन्थों की खोज, हिन्दुस्तानी, सम्‌ 


]940 ई. 


: तुलसीदास और उनके ग्रन्थ, अशोक प्रक/शन लखनऊ, 


सन्‌ 955 ई. 


: तुलसीदास, प्रयाग वि.वि. हेनदी परिपद, प्रयाग, द्वितीय 


सस्करणा, सन्‌ 4946 ई. 


: मंझनकृत मधुमालती, मि.श्र.प्रा. लिनि., इलाहाबाद, सन्‌ 


]96] ई. 


: र मचरित सानस का पाठ हि. ए उत्तर प्रदेश, सं. 


2005 वि. 


एम.एव. कात्रे (अनुवादक): भारतीय पाठालोचन की भूमिका, (मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रस्थ 


डॉ० उदयनारायण तिवारी 


श्रकादवी, भोपाल सन्‌ 97] ई ) 


मिजाखा (एम. ज्याउद्दीत : ग्रामर श्रौफ ब्रजभापा, (विश्वभारती, शांती निकेतन, 


द्वारा सपादित) 
मायाणशंकर याज्ञिक 
डॉ. रमेशचन्द्र मिश्र 


डॉ रमेशपन्द्र महरोत्रा 


रामनरेण त्रिपाठी 
रामनरेश त्रिपाठी 
रामेश्वरप्रसाद प्रग्रवाल 
पं. रामचन्द्र शुबल 


रामकुमारी मिश्र 


सन्‌ 935) 


: गोप्वामी तुलसीदास, (ना.प्र. पत्रिका, सत्‌ [927.) 


: तुल्मीकृत गीतावली विमर्श (न.प्र. 24/6 बंगलो रोड़ 


शक्तिनगर, नई दित्ली, रूनू 969 ई.) 


: हित्दी ध्वतिकी और घ्वनिमी, (मुन्शीर/म मनोहरलाल 


रानी कासी, मार्ग, नई दित्ली-55, प्रथम संस्करणा, 
सन्‌ 970 ई.) 


: तुलसीद से और उनका काञ्प, (राजवाल एण्ड संस, 


दिल्‍ली, सन्‌ 953 ई.) 


: तुनसीदास श्रौर उनकी कविता, (हिन्दी मन्दिर प्रयाग, 


सन्‌ 937 ई.) 


: बुलेली का भापा शास्त्रीय अध्ययन, (वि.वि. हिन्दी प्र. 


लखनऊ, सत्‌ 963 ई.) 


: गोस्वामी तुनसीदास, काशी (ना.प्र. सं., पष्ठ संस्करगा, 


सं. 2005 बि.) 


: बिहारी सतसई का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन, (लोकभगारती 


इलाहाबाद, सन्‌ 970 ई.) 


सहायक भवुक्रमणिका 5 


डॉ. रामकुम'र वर्मा : हिन्दी साहित्य का आलोचनःत्मक इतिहास, (रामनारा- 
यणलाल इल हावाद, रून्‌ [954 एवं मत 958 ई ) 

राजेन्द्रप्रसान॑धिह व्यौहार : गोस्व'मी तुलसीदास की समन्वय साधना:प्रथम भाग, 
(काशी ना.प्र छ., स. 2005 वि.) 


डॉ. राजपति दीक्षत. : तूलसीदास और उनका युग, (ज्ञान मंडल, वाराणसी, 
॥॒ सं. 2009 ई.) 
राजकुमार : तुलमी का गवेपणात्मरू अध्ययन, (सरस्वती पुस्तक 


सदन, अ गरा, स॑ 202 बि.) 


डॉ. रामदत्त भ रहाज : गोस्वामी तुलसीदास, (भारतीय साहित्य मन्दिर, फवारा 
दिल्‍ली, सन्‌ [962 ई ) 


डॉ रामदत्त मारहाज  : गोस्वामी टुलवीदास का काव्य ।भेद्धान्त, ( साप्ताहिक 
हिल्‍दुस्तन, 3 जनवरी सन्‌ 960 ई ) 

र मरतन भटनागर : तुलरीदास एक अध्ययन (किताब महल, इत्राहावाद, सं. 
2003 वि.) 

रांगेय राघव : तुलसीदास का कथा शिल्प, ( साहित्य प्रकाशन दिल्‍ली, 
सन्‌ 959 ई.) 

लक्ष्मीधर मालवीय : देव ग्रन्थ वली, प्रथम-खण्ड, (ने,प. हा. दिलजी-7. सित- 
म्वर, सन्‌ 958 ई.) 

लूइस हरवर ग्रं : फाउण्डेशन ओफ लेंग्वेज, ( न्यूय के, द मैत्र मिलन कं० 
सन्‌ ]939 ई,) 

लीयोनाड ब्लूमफील्ड : लेंग्वेज 

(अनुदादक ) 


3 


डॉ. विखायध प्रत्माद भाषा, ( मोतील'ल, वनारसीदास, दिल्नी, वाराणसी, 
पटना, सन्‌ !968 ई. ) 


बडा की 


डॉ. विदया तिवास मिश्र : हिन्दी की शब्द संपदा, (राजकम” प्रकाशन, प्रा. लिमि. 
फंज बाजार दित्ली, सन. 972 ई. ) 

डॉ. विद्या वित्रप्त मिश्र : मारतीय भाष जास्व्रीप चिन्तन (राजस्थ'न हिन्दी ग्रन्थ, 
अकादमी, जयपुर, सन्‌ 7976 ई. ) 

डॉ. विमलकुमार जेव : तुलसीदास और उनका साहित्य, (साहित्य सदन, 

देहरादून, सन्‌ 7957 ई. ) 


डॉ. श्याम सुन्दर दास : गोस्वामी तुलसीदास, (हि. ए.ढ प्रयाग, सन्‌ 93] ई.) 


6 गीतावली का भाषा शास्त्रीय अ्रध्ययन 


डा. श्य,म सुर दास : हिन्दी भाषा, (इ. ग्रे, पल्लिकेशन्स, प्रा, लिसि. प्रयाग 
सन्‌ 96] ई.) 

डॉ. शशो प्रभा : भीरां की भाषा [स्मृति प्रकाशन, इलाहाबाद, प्र० सं० 
सत्‌ 972 ई.) 

सत्यनारायण जिपाठी. : हिन्दी भाषा और लिपि का ऐतिहाप्रिक विकास, ( वि. 
वि. प्रकाशन प्रथम संस्करण, सन्‌ !964 ई. ) 


शिव प्रसाद भिह : सर पूर्व ब्रजभाषा, ( हिन्दी प्रच'रक पुस्तकालय, 
वाराणसी; प्रथम संस्करण, अक्तूबर सन्‌ 958 ई. ) 

शिवनंदन सहाय गोस्वामी तुलसीदास, (विहार राष्ट्रभाषा, परिषद, पटना 
सन्‌ 96] ई. ) 

सुनीत कुमार चटर्जी : ग्रोरिजिन एण्ड डैवबलयमैट ऑफ द बंगाली लेंग्वेंज (कल- 
कत्ता यूनीवर्सिटी, सन्‌ 926 ई. ) 

सुनीत कुमार चटर्जी : भारतीय आरयभापा और हिन्दी, ( राजकमल दिहली, 
सन्‌ 954 ई. ) 

डॉ. हरदेव वाहरी- : हिन्दी उद्भव विकास और रूप, (किताब महल, इला- 
हावाद, सन्‌ 965 ई.) 

हडन, जी. : द एडवान्स इ थ्योरी ऑफ लैंग्वेज, एज चॉँइस एण्ड चांस 
( स्प्रिगर-वरलाग वरलित हैडलवर्ग-न्यूया्के सत_ 
966 ई-) 

पत्र-पत्रिकाए' 

आलोचना ४ राजकमल प्रकाशन नई दिल्‍ली 

इण्डियत लिग्विस्टिक्य- : लिग्विस्टिक सोसाइटी ग्रॉफ इण्डिया 

गवेपणा- केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, ग्रागरा 

नागरी प्रचारिणी पत्रिका : ना. प्र. स. वाराणसी 

भाषा : केन्द्रीय हिन्दी निदिशालय- भारत सरकार 

भारतीय साहित्य ; कन्हैयालाल मु शी - विद्यापीठ, आगरा 

लेंग्बेज : लिग्विस्टिक सोमाइटी झॉफ अमेरिका 

सम्मेलन पत्रिका : हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग 


हिन्दी प्रनुणीलन : धीरेस्द्र वर्मा विशेषांक 


न्‍अरीनननन.. क»म«म >डमाओ-ा अन«मममकाक, 


स्वर संयोग-- तालिका 


दो स्वरों का संयोग 


. प्राथमिक स्थति : * &छ 
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3, अंतिम स्थिति : »%& 
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